श्री रास पंचाध्यायों प्रणय रसवडनी ८2५ 2246 #4/४ 72% ७०३५७//॥०५८ ५८४: 4 हे ) ॥ ह ४११) 2 ० ४) (7 |) ) 5 बे 0 ४2! 0)! न्‍ ्छ् >श 7 |; // / 4.7: 226, '|' ् | | . 77 । है | नित#2 हे २१० है लेखक : ज्योतिविद पौराणिक आचार्य पं० रघुवर दयालु व्यास गज! पायसा, मथुरा श्री सर्वेश्व रो विजयते श्री रास पंचाध्यायी प्रजय रस वडद्धंनी लेखक : ज्योतिविद पौराणिक आचाये पं० रघुवर दयालु व्यास श्री पुरुषोत्तम ज्योतिष कार्यालय गजा पायसा, मथुरा प्रकाशक : श्री पुरुषोत्तम ज्योतिष कार्यालय गजा पायसा, मथुरा (उ० प्र०) ७ प्रथम संस्करण १०००: सम्वत्‌ २०४४ विजयादशमी ७ सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन ७ मूल्य : बीस रुपये मुद्रक व्यास प्रिन्टिंग प्रेस, गजा पायसा, मथुरा (3० प्र०) । श्री गणेशाय नमः ॥। | आनन्द सात्र मकरन्दसनन्त गन्धं, योगीनरद्र सुस्थिर मिलन्दसपास्त बन्धस्‌ । वेदान्त सुर्थय किरणेक विकास शीलं, हेरम्ब पाद शरदम्ब॒ज सानतो$स्मि ॥ $£ श्री राधा सर्वेश्वरों विजयते $£ समर्पण निखिल महीमण्डलाचारय चक्र चड़ामणि सवंतन्त्रस्वतन्त्रानन्तानन्त श्री विभूषित जगदुगुरु श्री निम्वार्काचाय पीठाध्िपति श्रो श्रीजी श्री राधासवेश्वर शरणदेवाचार्यजी महाराज के कर कमलों में श्री रास पंचाध्यायी प्रणय॑ रस बद्ध नी श्रद्धा सहित समर्पित है । रघुवर दयालु व्यास अनन्त श्री विभूषित जगद्गुरु श्री निम्बा्काचार्य श्री श्रीजी श्री राधासवेंश्व रशरण देवाचाय जी महाराज एक संक्षिप्त परिचय पं० प्रवर श्री रघुवरदयालु व्यास भत्‌ हरि ने सत्पुरुषों के स्वभाव का वर्णन करते हुए एक सुन्दर बात कही है--नम्रस्वेनोन्नमन्त: अर्थात्‌ वे नम्रता द्वारा ऊपर उठते हैं। इस उक्ति की सचाई का अनुभव आज मैं ये पंक्तियाँ लिखते हुए स्वयं कर रहा हूँ। श्रद्धय आचाये श्री रघुवर दयालु जी व्यास ब्रजक्षेत्र के सुविख्यात भागवत कथाकार एवं ज्योतिषी हैं। मैं इनकी चिद्गता एवं कीति से बचपन से ही सुपरिचित रहा हूँ। मेरा मन जहाँ आपकी ज्ञाच- गरिमा से अभिभृत हो जाता है बहीं साथ-साथ आपकी सरलता से श्रद्धानत भी हो जाता है। अतः आज जब मैं ये परिचय पंक्तियाँ लिख रहा हूँ--तो मुझे प्रसन्‍तता के साथ-साथ स्वाभा- . विक संकोच भी हो रहा है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि, मैं आपके बहुआयामी विरल शुण सम्पन्न तप-त्याग युक्त यश्वस्वी ज्यक्तित्व का पूर्ण परिचय नहीं दे पाऊंगा फिर भी, मैं अपनी भावनाओं को श्रद्धासुमनवत्‌ उनके परिचय के रूप में व्यक्त कर अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। पंडित प्रवर श्री रघुवर दयालु जी व्यास का जन्म खथुरा में कातिक शुक्ल-३ संवत्‌ १6६८ वि० को हुआ है। आपके पिताश्नी श्यामसुन्दर लालजी ने आपको अपने नानाजी' पं० युरुषोत्तम लाल जी व्यास को गोद दे दिया था जिनके स्नेह और पांडित्य के आप उत्तराधिकारी बने। पंडित श्री पुरुषोत्तम ( २) लाल जी व्यास श्री राधा गोविन्द भगवान के अनन्य उपासक थे तथा श्रीमद्भागवत्‌ के सुप्रसिद्ध वक्‍ता थे। आपका संस्कृत, हिन्दी, गुजराती और उद्‌ भाषाओं पर पूर्ण अधिकार था तथा आपकी साहित्य एवं संगीत में अच्छी गतिथी। आप भागवत के गूढ़, प्रसंगों की सुन्दर व्याख्या बड़ी मधुर बाणी में अत्यन्त सरल भाव से .करते थे और आवश्यकतानुसार भागवत के श्लोकों को अनेक राग-रागनियों में निबद्ध करके सुनाया करते थे। यही कारण है कि, आपकी कथा सुनने के लिए सर्देव ही श्रोतागण उत्सुक बने रहते थे। पिताश्रो के ये ही विशिष्ट गुण पंडित प्रवर श्री रघुवर दयालु जी व्यास को विरासत रूप में प्राप्त हुए हैं। आपकी कथा में भी श्रोताओं की मंत्र-मुग्ध-मुद्रा मैंने देखो है। आप गढ़ से गढ़ प्रसंग को भी सरलता से सहज ही स्पष्ट कर देते हैं । आपने संस्कृत साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया है और ज्योतिष पुराण तथा कर्मकाण्ड पर सम्यक भाव से अध्ययन- मनन कर अध्निकार प्राप्त किया है । आप अपनी अठारह वर्ष की आयु से श्रीमद्भागवत कौ कथा कह रहे हैं। आपकी प्रधानता में अनेक बार भागवत सप्ताह हो चुकी है तथा एक बार आप अष्टोत्तर शत भागवत परायण में प्रधान व्यास के आसन पर विराज कर कथा कह चुके हैं। आपकी कीति का विस्तार नगर में ही नहीं है अपितु, देश में दूर-दूर तक है। आपकी कथायें, बम्बई, कलकत्ता, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, जगन्ताथ- पुरी; नाथद्वारा एवं द्वारकापुरी आदि नग्रों में अनेक बार हो चुकी हैं। आप अपनी कथा को समाज सेवा और भगवत सेवा का रूप मानते हैं अतएवं, आपको कथा-कार्य अति रुचिकर बना हुआ है। आयु अधिक होने पर भी आप इस कथा-कार्य ( ३ ) की बराबर निभा रहे हैं, यह आपकी श्रीमद्भागवत्त के प्रति निष्ठा का प्रतीक तो है ही, साथ ही यह आपके हृदय की भावनाओं का भी परिचायक है । विगत दस वर्षों से आपने अपनी वाणी के साथ अपनी लेखनी से भी समाज हित के लिए महत्वपूर्ण अवदान प्रारम्भ कर दिया है। आपने अपने दीघेकालीन अनुभव, चिन्तन-मनन को लिपिबद्ध करके जो योगदान धामिक-जगत् को दिया है, वह वस्तुत: अत्यन्त सराहनीय है। आपकी अब तक पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनके नाम हैं-भागवत्त दृष्टान्त माला भाग-१, भाग-२, ज्ञानमाला ज्योतिष माला । आपकी अप्रकाशित पुस्तकें हैं-सम्पुर्ण भागबत, मथुरा गमन माला, बाल चरित माला, भक्ति चरित माला तथा उद्धव चरित माला। ये सभी पुस्तकें सरल भाषा में, साहित्य सौष्ठव के साथ लिखी हुई हैं। इन्हें कोई भी साधारण शिक्षा प्राप्त व्यक्ति पढ़-समझ सकता है। प्रस्तुत पुस्तक--“रास पंचाध्यायी-रसबद्ध नी” भी आपकी एक सर्वोपयोगी पुस्तक हैं। जिन प्रसंगों और विषयों को पंडित- समाज में अब तक गूढ़ समझा जाता था, उनमें अब इस प्रकार की पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, यह एक स्व हितकारी प्रसन्नता की बात है । ऐसे लेखन और प्रकाशन का समाज में स्वागत होना चाहिए। श्रद्धे य श्री व्यास जी अपनी इस बड़ी आयु में लेखन की यह कठोर तपस्या कर रहे हैं, इससे इनके प्रति मेरा श्रद्धाभाव द्विगुणित हो जाता है। मुझे पूर्ण आशा है कि, यह पृस्तक समाज के लिए हर हृष्टि से लाभप्रद सिद्ध होगी। श्रद्धेय व्यास जी तो समाज के उन अनुपम रनों में से हैं, जिनसे समाज गौरवान्वित माता जा सकता है कहा गया है :-- ( 9) आत्मार्थ जीवलोकेःत्मिनु को न जीवति मानवः। परं॑ परोपकारार्थ यो जीवति स जीवति। (इस संसार में अपने ही सुख के लिए सभी जीते हैं लेकिन, जो परोपकार के लिए जीता है, सचमुच वही जीता है ।) अतएव, मैं क्या लिख छोटा मुह बड़ी बात' न मानी जाये, मेरी तो यही कामना है कि, श्रद्ध य व्यास जी का यह स्तुत्य कार्य अन्य विद्वानों के लिए भी प्रेरक सिद्ध हो। इति डाॉ० तिलोंकीनाथ व्रजबाल ०श्री भवन मण्डी रामदास, मथुरा-२८१००१ भूमिका जनता जनादंन की भगवद्विरोधी प्रकृति ही आपत्तियों का पूल कारण बनी हुई है । यह संसारी मोहवश धर्म तथ। विश्व रक्षक भगवान को भूल कर खंसार के वर्तमान सौन्दये से आकर्षित होकर परस्पर होड़ से विषय वासना की सामिश्री के संग्रह करने में लगा हुआ है। मैं मेरा भाव प्रति दिन बढ़ता जा रहा है। इस अधाधुन्ध दौड़ का परिणाम कया होगा इसका किसी को ध्यान नहीं है । इस भगवद्‌ विरोधी प्रवृत्ति ने ही आज पारस्परिक विरोध उत्पन्त कर दिया है। यदि हम इस असद्‌ प्रवृत्ति को छोड़ कर भगवत चिन्त वन में लग जाये तो हम अपना ही नहीं अपितु, समस्त संसार का भला कर सकते हैं। भगवत सेवा ही सच्ची सेवा है विश्वम्भर को वन्दना से ही विश्व की सेवा है। इसी से समस्त संकटों से निवृत्ति होती है । वनन्‍्दना के अनेक साधन हैं। हमारे आचार्यों ने केसे-कंसे परम सुन्दर मनोर॑जक भगवच्चरितों की रचना की है। जिनको बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है अन्य मनोरंजक पादय पुस्तक तो एक बार पढ़ कर ही रख दी जाती है। हमारे आचार्यों की बाणी को तो बार-बार सुनने की इच्छा होती है। कृष्णेति मंगल नाम ग्स्थ वाचि प्रवर्तते ( 7 ) भरमी भर्वान्ति तब्न व महा पातक कोटयः जिस वाणी से श्री कृष्ण श्री कृष्ण यह मंगलमय नाम निकलता है उसके सेकड़ों महा पातक भस्म हो जाते हैं । ( भक्त रसामृत सिन्‍्धुः ) तन्निर्व्याज भज गुणनिध्चे पावन पावनानां श्रद्धारज्यन्मतितरां मुत्तमश्लोक मौलिस !। प्रोच्चस्नन्‍्तः करण कूहरे हनत सनन्‍्तास भानो राभासोडपि क्षपयति महा पातकध्वान्त राशिस्‌ ॥। है गुणनिधे ! आप श्रद्धा रंजित मति वाले हैं। आप अत्यन्त पुनीत उत्तम श्लोक मौलि श्री कृष्ण भगवान के नाम- को निष्कपट भाव से निरन्तर भजन करिये इस नाम रूप सूर्य का आभास मात्र ही हृदय रूप गुहा में जाकर महा पातक रूप अन्धकार का विनाश कर देगा । हरेनेमि हरेनेमि हरेनामिव केवल' कलो नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गति रमन्‍्यथा इस महान कलि काल में केवल हरिनाम ही सार है इसके (मो) अतिरिक्त कल्याण का और कोई साधन नहीं है। भगवान के सामने शुद्ध मन से जो उपासना की जाती है उसका अवश्य फल मिलता है उपासना के द्वारा शुद्ध अन्तःकरण से ही भगवद्‌ भक्ति प्राप्त होती है जिनकी विवेक हृष्टि पारस्परिक विवाद के कारण नष्ट हो गई है उनको वेदार्थ का बोध कराने के लिए तथा परम कल्याण की प्राप्ति के लिए ही श्री मदृभागवत का प्रादुर्भाव हुआ है । कृण्णे स्वधामोपगते घमज्ञानादिभिः सह कलो नष्ठ दुशामेव पुराणाकोड्धु नोदितः धर्म, ज्ञान आादि के साथ जब भगवान श्रो कृष्ण चन्द्र स्व- धाम चले गये थे। तब जिन मनुष्यों की हृष्टि कलियुग के कारण नष्ट हो गई थी उनके लिये ही इस पुराण सूर्य का उदय हुआ है | भ्री मदभागवत में बारह स्कनन्‍्ध हैं जो कि भगवान के बारह अ गे हैं। भगवदअ ग यथा :--- प्रथश द्वितीयों चरणों स्तः तृतीय चतुथथों जानू पंचसं कटि:। षण्ठे नाभि: सप्तम अणप्टमो भुजों नव स्तमे | दशम॑ हुदि एकादश मुखं । द्वादश लला्ं इस प्रकार दशम तो हमारे प्रभु का हृदय है। उसमें भी पांच अध्याय जिनका सार हमने लिखा है वह महारास ०) तो प्राण रूप है। जिस प्रकार बारह स्कन्धः भगवान के श्री अग हैं। उसी प्रकार भागवत वक्ता श्री शुक के भी बारह नाम हैं। जो कि निकुन्ज भेद से तथा दिव्य कथा भेद से श्र्‌ति संगत नाम हैं श्रीमदृभागवत कल्पद्र मे यथा :-- आदोश्र्‌ तधरोनाम द्वितीयों मृंदुूं वाच्छुक: तृतीयो रसवाइ नाम चतुर्थों मोदवाक शुकः पंचम: स्फुटवाड नाम षष्टस्त्वमृत वाक्‌ शुक:ः सप्तम: कुजगः साक्षी सुआजीवाक संज्ञकः शुकः आनन्द वागाष्टमश्च तवमस्तत्व वाक्‌ शुकः दशम: कलवाड़ नाम युक्त वाकू दशमो5्धिकः द्वादशों गुह्वाझ नाम एवं भेदाश्च द्वादशः यह शुकदेवजी के एक-एक स्कन्धर के अनुसार बारह नाम हैं। इन नामों से वक्ता का स्वरूप दीखता है तथा सभी प्रसंगो का स्वरूप दीखता है । इसी प्रकार बारह स्कतन्धों को स्वरूपानुसार द्वादशारण्य कहा है। सभी अरण्पों में उनके नामानुसार ही आनन्दमयी लीलाओं का वर्णन किया है। (४) प्रथम स्कन्ध मोदारण्य है द्वितीय स्कन्ध रसारण्य तृतीय स्कनन्‍्ध तत्वारण्य चतुर्थ स्कन्ध गुणारण्य पंच्रम स्कन्ध प्रमोदारण्य घष्ठ स्कन्ध सर्वार्थदा रण्य सप्तम स्कन्ध जनतारण्य अष्टम स्कन्ध रसका रण्य है नवम स्कनन्‍्ध तत्वारण्य है दशम स्कन्ध परमात्मारण्य है एकादश स्कन्ध तत्वारण्य है द्वादश स्कन्ध मधुरारण्य है दशम स्कन्ध तो परमात्मारण्य कहलाता है। इसमें भी . शांस पंचाध्यायी तो स्वरूपारण्य है । झुकदेवजी ने ही प्रिया प्रियतम की लौला देखी है जेसी आपने देखी है वेसी ही लीला वर्णन करी है। शुकदेवजी को सदा श्री राधारानी का सान्तिध्य मिलता था। श्री शुकदेवजी की वाणी ही हमारे रासबिहारी श्री कृष्ण चन्द्र को आकर्षित करती थी । एक समय भगवान ने व्यास जी से कहा था। ब्रह्म बेवर्त व्यासत्वदीय तनयः शुकवन्मनोज्न म्रूते बचो भवतु तच्छुक नामतेति ॥। व्यास जी आपका पुत्र शुकदेव शुकबन्मनोज्ञ वाणी बोलता (जी ८0% /5% 32% /7% /ठ9 (रथ) है अत: इसका नाम शुक है। वेसे तो शुकदेवजी के बारह नाम है । समस्त वेद वेदान्तों का सारश्री भागवत शास्त्र शुकदेवजी के मुख से अमृत की तरह निकला है। इसको भावुकजन ही जान सकते हैं, दूसरा नहीं । विगम कल्पतरोगलित' कल, शुकमुखादसृतद्व संयुतस्‌ । पियत भागवत रस मालय॑ं, मुहरहो रसिका भुवि भावुका: ॥| भागवत शास्त्र निगम कल्प तह का रसीला फल है। वह भी शुकदेवजी के मुख से निकल कर तो और भी स्वादिष्ट हो गया है। भागवतजन निरन्तर इसी का पान करते हैं | संत्तार में सबसे रसीला फल आम का कहलाता है कदाचित्‌ तोता का कुतरा आम का फल मिल. जाता है। तब तो उसका स्वाद और भी बढ़ जाता है। किन्तु उस स्वादिष्ट फल में भी एक कमी है कि उसमें गुठली निकलती है। जिसे फेंकना ही पड़ता है। पर भागवत फल में गुठली नहीं है। इसमें तो आदि से अन्त तक रस ही रस भरा हुआ है । भगवत रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोई समझ सकेना । ( भागवत ) भा शब्द: कीति वचनो गे शब्दों ज्ञान वाचकः सर्वेष्ठ बन्धनों बबच तो विस्तारस्य वाचकः कीतेज्ञॉनिस्थ सर्वेष्टल्यच विस्ता- रणादिदं अस्य भागवत नाम श्री व्यासेनेति कीतितम्‌ । भा' शब्द कीति वाचक है। “ग” शब्द ज्ञान वाचक है। व शब्द सर्वेष्ट बन्धन वाचक है। 'त' शब्द विस्तार वाचक [ था ) है। कोति ज्ञान सर्वेष्ट बन्ध्रन विस्तार आदि के कारण इसका नाम भागवत है। प्रेम भक्ति से जो ओतप्रोत है वही भागवत्त है और भाग- बत शास्त्र भी प्रेम भक्ति से ही मिलता है । (भकतया भागवत्तशास्त्रम) इस शास्त्र के रचयिता श्री वेद व्यास जी हैं । व्यासेन कुंत्वा तु शुभ पुराण शुकाय पुत्रायः महात्मने यत्‌ बराग्य शीलाय च्‌ पाठितंगे विज्ञाय. चेवारणि सम्भवाय व्यास जी ने इस ग्रन्थ की. रचना करके वेराग्य शील सम्पन्त अपने पुत्र शुकदेव को पढ़ाया तथा शुकदेवजी ने' इसे राजा परीक्षित को सुनाया। परीक्षित शुक सम्वादो योइसो व्यासेन वणित ग्रन्थोषष्टादश साहस्तो योधसो. भागवताभिधं भागवत तो वही है। जिसमें परीक्षित शुक सम्बाद है। भागवतकार ने जगत का उद्धार किया है। अनर्थोपशर्म॑ साक्षात्‌ भक्तियोग मधोक्षजे लोकस्याजानतो विद्वान श्चक्त सास्वत सहितास्‌ ( शाए ) इंस सात्वत संहिता के बनाने का तात्पय ही यह है कि मनुष्यों की आँखों में पड़े हुए अज्ञान के परदे का हटाना तथा अधोक्षज भगवान में प्रेमाभक्ति को उत्पन्न करना। भागवत महा पुराण में बारह स्कन्ध और अठारह हजार इलोक एवं ३३५ अध्याय हैं । ग्रन्थोष्टादश साहस्त्नः श्रीमद्भागवताभिधः पंचत्रिशोत्तराध्या: त्रिशती युक्त ईश्वरी इसके दशम स्कन्धर पूर्वाध को २४६-३०-३१-३२-३३ यह पाँच अध्याय रास पंचाध्यायीं कहलाती है। जिनमें हमारें महाप्रभु रास रासेश्वर की रखमयीं लीला वर्णन की है भाग- वत श्री नन्‍्दनन्दन भगंवान की वाड़मयी मूर्ति कहलाती है तथा बारह स्कन्धों की अंग प्रत्यंग की कल्पना करके श्री रास पंचाध्यायी को पंच प्राण के रूप में माना गया है। पाँच अध्याय में रास वर्णन किया है कारण कामदेव के पाँच वाण है--उच्चाटन, मोहन, विद्ठ ष, स्तम्भन, वशीकरण ! काम: पंच शरस्मृत: रास की पहली अध्याय में ही कामदेव ने अपने पाँचों वाणों का प्रयोग किया। किन्तु प्रभु ने सभी वांण काट दिये । १-जेसे उच्चाट्टन छोड़ा निशम्य गीता तदनंग वधेन ब्रज॒स्त्रियः कृष्ण गृही त सानसा: आजम्मु रपोन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र वान्‍्तो जबलोलकु डलाः ( £ ) जिससे गोपियों का मन उछट गया और सब काम छोड़ कर भगवान को आकर घेर लिया इस अवस्था में बड़े-बड़े जितेन्द्रिय व्याकुल हो जाते हैं। पर प्रभु ने उस बाण को काट विया । रजन्येषा धौर रूपा घोर. सत्वनिषेविता प्रतियात ब्र॒ज॑ नेह स्थेयं सत्रीभि: सुमध्यमाः अरी सुमंध्ययाओ, तुम ऐसी रात्नी में क्‍्योंआई हो। यहाँ चारों ओर हिसक जीव डोल रहे हैं अपने-अपने घरों में लौट जाओ भला कोई कामी पुरुष ऐसा कह सकता है । २--उसी समय कामदेव ने दूसरा तीर छोड़ दिया । (मोहनास्त्र) ता वारयमाणा:ः पंतिभि: पितृत्रि भ्रति बन्धुनिः गोविन्दाप हतात्मानो म॒न्यवर्तन्त मोहिताः इससे वह अत्यन्त मोहित हो गई। जो कोई उनको रौकता है उसकी भी उनको चिन्ता नहीं इस प्रकार मोहन बाण से ध्यथित देवियों को देख कर हमारे प्रभु कहते हैं । तदयाते सांचिरं गोष्ठे शुश्र घधर्व पंतीन्सती: ( * ) देवियो, तुम यहाँ से चली जाबो अपने-अपने पति एवं बान्धवों की सेवा करो अपने बड़ों का अपराध मत करो। इस प्रकार उस मोहन बाण को काठ दिया। ३--अब कामदेव ने तीसरा बाण छोड़ दिया। (विद ष) कुर्वन्ति हि त्वयि राति कुशला:स्घ आत्मनु नित्य प्रिये पतिसुतादिधभि रारतद: किस _ जो गोपियाँ कह रही है हमतो आपके पास आई हैं हमारी तो आपसे प्रीति है। पति पुत्नादि तो सब पीड़ा देने वाले हैं। देखो, कैसा विद घ फेला दिया। किन्तु भगवान ने इस बाण को भी काट दिया । भतु: शुश्र षणं स्त्रीणां परो धर्मों ह्ामायया गोपियो, भर्ता की निष्कपर्ट भाव से सेवा करना ही स्त्रियों का परम धर्म है। पति कैसा भी हो उसका आदर ही करना चाहिए। ४--इस पर भी जब कामदेव को सम्तोष नहीं हुआ तब उसने स्तम्भन का प्रयोग किया। पादो पर्द न॑ चलतस्तव पादयुलातु । खासः . कर्थ न्ननमथो करवास . किदा ( # ) श्यामसुन्दर, अब हम एक पर भी नहीं चल सकती। आपके पाद मूल से हटने की हमारी शक्ति नहीं है। कसा कामदेव ने अपना बल दिखाया कि अब तो गले पड़ गई। यह स्तम्भन है। पर हमारे सरकार ने इस बाण को भी काट दिया । ॒ श्रवणाहर्शनाद्‌ ध्यानातु मथयि भावोनु कीतनातु लत तथा सन्तिकर्षेण प्रतिवात ततोग्रहाबू श्रज देवियों, मेरी प्रसन्‍नता के लिये तुमको अपने घर चला जाना चाहिये। दूर से मेरी कथा सुनो दूर से मेरा दर्शन करो । एकास्त में बेठ कर मेरा ध्यान करो मैं पास में रहने से प्रसन्‍त नहीं होता इसलिये आप अपने-अपने घर पधारिये | प-अब तो काभदेव हताश हो गया। पर एक और अंतिम बाण छोड़ दिया। (वशीकरण) वीक्षालकावृतसु् तब कु डल श्री गण्डस्थलाधर सुथ॑ हसितावलोकस्‌ ॥। इससे तो गोपियाँ भगवान को पकड़ने का विचार करने लगी। है प्रियतम ! आपका यह सुन्दर मुंख कमल अलका- वलियों से सुशोभित, यह कमतीय कपोल जिन पर कुण्डल अप॑ता सौन्दये बिखर रहे हैं। यह तुम्हारे शरणागतों को ( # ) अभय देने वाले भुज युगल इनको छोड़ कर अब हम कहाँ जायेंगी। श्याम--हम सब आपकी दासी है। यह रहा अन्तिम वाण कामदेव का पर हमारे ब्रजराज ने इसे भी काट दिया तासां तत्सोौभगमर्द वीक्ष मान च केशव: प्रशमाय च प्रसादाय तत्न वान्तर धीयत इस प्रकार ब्रज किशोरियों का सौभग मद देख कर उन पर कृपा करने के उह शय से और कामदेव के मनोरथ अपूर्ण करने के लिये भगवान अन्तर्धान हो गये । कामदेव को तो यहीं परास्त कर दिया--जहाँ कामवासना होती है वहाँ तो पुरुष विहंबल हो जाता है रासलीला तो एक प्रेममयी लीला है प्रेमेव गोप कन्यानां काम इत्यगतुप्रर्था । प्रेम के स्वरूप को पहचानना कठिन है। जिस प्रकार वाणी द्वारा ब्रह्म का वर्णत असम्भव है उसी प्रकार प्रेम का वर्णन भी असम्भव है। जिस प्रेम को वाणी वर्णन कर सकती है वह वाह्य प्रेम कहलाता है। विशुद्ध प्रेम को कोई नहीं पहचान सकता कदाचित््‌ उसे पहचान ने की चेष्टा करता है तो मन से हाथ धोना पड़ता है। प्रेम मार्ग निराला है। जिस प्रकार ग्‌ गा व्यक्ति किसी अच्छे मधुर पदार्थ को खाकर उसका स्वाद नहीं बता सकता इसी प्रकार प्रेमानन्द में मग्न होने पर उस आनन्द का स्वरूप दूसरे को नहीं बता सकता | हाँ, जिस समय मनुष्य प्रेमानन्द में भर कर नृत्य करता है उस समय प्रेम का कुछ अंश लोगों को अवश्य दीखने लगता है । कारण प्रेमानन्द की प्राप्ति होने पर रोम-रोम से प्रेम की ( अं ) किरणें प्रगट होने लगती हैं। नेत्न अश्वुओं से भर जाते हैं तथा कण्ठ भी रुक जाता है | कारण वाणी गद्गद हो जांती है । नयन॑ गलदश्, धारया बदन गदगद रुद्धया गिरा पुलकंनिचित' वपु: कश तवनामग्रहणें भविष्यति ' परमात्मा के नाम ग्रहण मात्र से ही प्रेमी की यह दशा हो जाती है। ऐसा प्रेम गुणातीत, कामना रहित एवं अनिवेच- नीय, प्रतिदिन बढने वाला होता है। इसका स्रोत कभी नहीं टूटता, हृदय की गुफा में रहने वाला यह प्रेम सूक्ष्माति सूक्ष्म होने से केवल अनुभव जन्य है। प्रेम पात्र की किसी वस्तु में अभिरुचि नहीं होती | जैसे स्वर्ग का ऐश्वयं योग सिद्धि ब्रह्म पद आदि सबसे उसे उपराम रहता है। प्रेमी तो निज आनन्द मगन वासना रहित होता है। वह तो प्रेम बन्धन से मुक्त होना ही नहीं जानता । वन्धनानि खलु सन्ति बहुनि प्रेम रज्जु कृत बन्धन मन्यत्‌ ढारु भेद निपुणो5पि षड्डंत्नि निश्क़ियो भवति पंकज मध्ये सभी बन्धनों में प्रेम रज्जु कृत बन्धन ही निराला है। देखिये, भ्रमर काष्ट भेदन में अत्यन्त निपुण है पर कमल के भेदन में सदेव असमर्थ रहता है। इस बन्धन में बंध कर प्रेमी अपने प्राणों की आहुति तक कर देता है । प्रेम सदा मधुर है, अविनाशी है, सनातन है, सत्य है। ( अांए ) ऐसा प्रेम ब्रज सीमन्तिनियों में ही पाया जाता है यह अलौ- किक प्रेम है इस शुद्ध प्रेम से हो श्री कृष्णजी वशीभूत होते हैं। श्री कृष्णस्तु प्रेमवतीनां वश्यः न तु कामवतीनाम्‌ यह श्री क्ृष्णचन्द का स्वभाष है। उष्णो रविःशीतल एवं चन्द्र: सर्व सहाभुश्चपला: समीरा साध: सुधी रम्वुनिधी: गम्भी राः स्वभावत: प्रेमवशोहि कृष्ण: जिस प्रकार सूर्य में गरमी तथा चन्द्रमा में शीतलता, पृथ्वी में सहनशीलता, बिजली में चपलता एवं साधु में साधुता और समुद्र में गम्भीरता होना स्व्राभाविक धर्म है। उसी प्रकार प्रेम के वशीभूत होना श्री क्ृष्णचन्द्र का स्वभाव है। प्रेम राज्य में बड़ी कठिन समस्या आती हैं। सुख, दुःख, ईष्या, क्रोध, मान, अपमान किन्तु प्रेमराज का पथथिक सब कुछ सह॒ता है वह अपने आनन्द में कभी रोता है कभी हँसता है उसे किसी की चिन्ता नहीं उसी प्रकार विरहिणी गोपियां रो-रोकर अचेत हो रही है उनन्‍्मादनी हो रही है भूख, प्यास खो चुकी है पर इसमें भी उनको कितना आनन्द है इस आनन्द पर तो शत सहस्र इन्द्र सुख भी न्‍्योछावर है। तात्परय यह है कि प्रेमी प्रेमास्पद एक हृदय होने के कारण इस विरह दुःख में भी अतुलनीय सुख का अनुभव करता है । जहाँ विशुद्ध प्रेम होता है वहाँ आचार, विचार, विहार, पुधार कुछ नहीं होता । ( 2५ ) प्रेम राज्य में तो केवल प्रेमी का ही साम्राज्य है। उनके यहाँ कोई बन्धन नहीं है और यह भागवत शास्त्र भी प्रेम भक्ति से ही मिल सकता है । (भकतया भागवत शास्त्र) इस प्रेमा भक्ति रस को तो गोपियों ने ही पहचाना है। तभी तो ध्यामसुन्दर ने इतकी भूरि-भुरि प्रशंसा की है ने पारयेहह॑ निरवध्य संयुजां स्व साधु कृत्यं विवुधायुधाउपिव: । या माभजन्दुर्जर गेह श्खलाः सवृश्च्य तह: प्रतियासु साधना गोपियो, तुमने घर की बड़ी बेड़ियों को तोड़ कर मेरी सेवा की है । तुम्हारे इस साधु काये का मैं देवताओं की सी आयु पाकर भी बदला नहीं चुका सकता। तुम ही मुझे अपनी-अपनी उदारता से उऋण कर सकती हो। ऐसे सम्बन्ध को कौन समझ सकता है। ह प्रेम सम्बन्ध में एकादश आसक्त होती हैं, इनके भक्त अलग- अलग हुए हैं । जैसे गुण माहात्म्यासक्ति :-- नारद, वेदव्यास; शुकदेव, याज्ञनबल्क्य, काकभुशुण्डि, शेष सूत, शौनक, शाण्डिल्य, भीष्म, अजु न, परीक्षित, पृथु, जनमे- जय आदि। जैसे रूपासक्त :-- मिथिला के नर नारी, राजा जनक, ब्रज नारियां आदि । जैसे पूुजासकत :--- लक्ष्मीजी, राजा पृथु, अम्वरीष, श्री भरतजी आदि। (६ शशं ) जैसे स्मरणा सक्‍त :-- प्रहलाद, प्रूब, सनकादि। जैसे दास्यासक्त :-- हनुमाल, अक्र र, विदुर । यथा सख्यासक्त :-- अजु न, उद्धव, संजय, श्रीदामा, सुदामा आदि । यथा कान्तासक्त :-- अष्ट पटरानियाँ । यथा वांत्सल्या सक्‍त :-- कश्यप, अदिति, सुतपा, प्रश्नि, मनु, शतरूपा, दशरथ, कौशिल्या, नन्‍्द, यशोदा, वसुदेव, देवकी आदि। यथा आत्म निवेदतासक्त :-- वलि, विभीषण, हनुमान, अम्बरीष, शिव आदि। यथा तनन्‍्मयतासक्त :-- सुतीक्षण, कोडिन्य; याज्ञवल्क, शुक सनकादिक । - यथा परम विरहासक्त :-- अज्‌ न, उद्धब, ब्रज के नर नारी । यह है प्रेमोपासना की साधन प्रणाली । प्रेम तत्व के आचार्यों ने इस प्रेम को ही सबंश्रष्ठ माना है। इस प्र मोपासना में ब्रज के नर नारियों को ही सर्वश्रेष्ठ बताया है। जिनको नव रस मय ब्रजराज का साल्निध्य मिला है। यथा नबरसा: -- [ शो ) १. शआुद्धार २. वोभत्स ३- वीर ४. रौद्र ४- हास्य ६; भयानक ७. अद्भुत ८. करुणा ४. शान्ति । इस इलोक में नौ रस विद्यवान हैं। यथा ;-- सहलानामशनिन॒ णां नरवर: सज्नीणो स्‍्मरो मू्तिमान्‌। गोपानां स्वजनो5सतां क्षितिभुजां । शास्ता: स्वपित्रों, शिशुः॥ मृत्युभोजपते विराड विदृषां तत्व परं॑ योगिनाम्‌। बृठष्णीनां पर देवतेति विदितो रंगं गतः साग्रज: । श्री बलराम तथा श्री कृष्ण चन्द्र जिस समय कंसराज की रंगभूमि में गये थे। उस समय सबको अपनी-अपनी भावना से श्यामसुन्दर के दर्शन हो रहे हैं । यथा--मल्लों को खछ्ढ़ के समान दीख रहे हैं। यहाँ 'रोद्र रस है । मनुष्यों को श्रष्ट नरवर के रूप में दीख रहे हैं। यहाँ “अद्भुत रस' है । सत्नीजनों को मूतिमान कामदेव के समान दीख रहे हैं । यहाँ थश्रद्भधार रस है। व्रजवासियों को स्वजन सरीके दोख रहे हैं। यहाँ “हास्य रस है। खोटे राजाओं को आपका स्वरुप ऐसा दीख रहा है। मानो यह दण्ड देने वाले हैं। इसमें “वीर रस” हैं। ( रत अपने माता पिता को तो एक शिशु रूप में दीख रहे हैं । इसमें “वात्सल्य रस' है तथा 'करुणा' भी है । कंसराज को आपका स्वरूप मृत्यु रूप दीख रहा है। यह भयानक रस' है। मूर्खों को तो आपका विराट रूप दीख रहा है। यह वीभत्स्त रस है और योगीजनों को तो परमतत्व रूप में दीख रहे हैं। यहाँ 'शान्त रस' है| यादवों को तो आपका रूप पर देवता के समान दीख रहा है। यह प्रेम भक्ति रस” है। इसीलिए व्यामसुन्दर को नव रस मयो “ब्रजराज: कहते हैं । अथ मुख्य रसा: आचार्यों ने छे मुख्य रस बतलाये हैं । यथा-शान्त, प्रीति, प्र मं, वत्सल, उज्वल, भक्ति यह छे रस हैं | इनमें भी रसराज भक्ति है। यही मधुर रस है और यही उज्वल है। ब्रजराज रसमरति है। अतएवं रासमण्डल में भूषण हैं। हमारे स्वेश्वर महा प्रभ ने रास नत्य से सबको विमोहित कर दिया है । इह सप्तसे वर्ष भगवता कार्तिकासावश्यायां कर्मवादों व्यापनेन इन्द्रमखभंग कृतः तच्छक प्रतिपदि गोवर्धन महोत्सव : । हवितौयायां यमुना तीरे भातृ द्वितीयाया महोत्सव: श्री शुकैन वर्णितेडपिन्न य: । तत्नेव वर्णिता इन्द्र कोपोक्‍्तयश्च | तृतीया ' मारधश्य नवमी पयन्त गोवर्धन घारणं । दशम्यां गोपानां विष्मय कथा वाहल्यम्‌ । पौर्णमास्यां ब्रह्मतोक गमनस्‌। ततश्च शरद समाप्तत्वादष्टमे वर्षे सत्याश्विन पूणिमायां रासोत्सव। जब यशोदा नन्दन सात वर्ष के थे । तब कातिक की अमावस के दिन इन्द्र का यज्ञ बन्द कर दिया। उसी समय इन्द्र की [ हां कोपो क्ति हुई थी कारण आपने कारतिक शुक्ला प्रतिपदा को गोवर्धन महोत्सव किया जो अन्तकूट नाम से प्रसिद्ध है। कातिक शुक्ला द्वितीया में यमुना तीर पर श्राप्तृ द्वितीयाका महोत्सव मनाया गया। देवराज इन्द्र इस महोत्सव को न सह सका उसने ब्रज के नष्ट करने को मेघों के गण भेज दिये। उस समय हमारे प्रभु ने कातिक शुक्ला तृतीया से कातिक शुक्ला नवमी पर्यन्त गिरिराज धारण क्रिया। ब्रज को आपने बचालिया। दहशमी के दिन तो भगवान शी कृष्ण के ऐश्वर्य को देख कर बड़ा विस्मय हुआ । कातिक शुक्ला ११ के दिन तो इन्द्र नें आकर गोविन्दा- भिषेक किया | उसी दिन गोविन्द कुण्ड का प्रागट्य हुआ है। इसमें आकाजझ्ष गंगा के जल हैं तथा सुरभी का दूध है एवं भगवान श्री कृष्ण के चरणों का जल है इसलिए गोविन्द तथा गोविन्द कुण्ड का विशेष महात्म्य है। कातिक शुक्ला पूुणिमा में व्रजवासियों को बंकुण्ठ का दर्शन कराया है। जब यशोदा नन्‍्दन आठ वर्ष के हुए तब आशिवन शुक्ला पूणिसा की झारदीय राक्तियों में रास महोत्सब घताया था । रास तो प्रत्येक पूणिमा भें होता है। पर आश्विन मास की पूणिमा ही महारास की कहलाती है इसमें रासमण्डल को रचना कर सफेद वस्त्र धारण कराये तथा चांदी मोती हीरा आदि सफेद ही रत्तों के आभरण धारण कराये एवं सफेद वस्तुओं का नेवेय धरावे। उस दिन रास पंचाध्यायी का पाठ करे | इससे मन को पराभक्ति प्राप्त होती है। इससे श्री रासरासेश्वर भगवान श्री कृष्ण एवं रासरासेश्बरी श्री राधा भक्तों को मब्रोभिलिपित व रदान देती है । शघुव रदयालु व्यास श्रीरासपंचाध्यायी प्रथमोध्याय श्रीशुक उबाच भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमल्लिका: । वीक्ष्य रन्तु' मनशचक्र योगमायासुपाशित: ॥१॥ तदोडुराज: ककुभः करंमु ख॑ प्राच्या विलिम्पन्नरुणन झंतमे:। स चर णीनामुदगाच्छचो मृजन्‌ प्रिय: प्रियाया इब दीघंदशेन:ः ॥२॥ दृष्ट्वा कुमुदन्तमखण्डमण्डलं रमानताभं नवकुड़ मारुणम्‌ | बनंच तत्को मलगोभिरंजितं जगौ कल॑ वामहर्शां मनोहरम ॥३॥ निशम्प गीत॑ तदनजुवर्धनं ब्रजस्त्रियः कृष्णमृहीतमानसा: । आजम्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कांतो जबलोलकुण्डला:॥४॥ दुहन्त्योडभिययु: काश्चिहोहूँ हित्वा समुत्सुका:। पयोडघिश्रित्य. संयावमनुद्गास्यापरा ययु: ॥५॥ परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा पाययन्त्य: शिशृन्‌ पय:। शुश्न पन्त्य: पती न काश्चिदश्नन्त्योष्पास्य भोजनम्‌ ॥६॥। लिम्पन्त्य: प्रमुजन्त्योह्न्या अंजन्त्य: काश्च लोचने । व्यत्यस्तवस्राभरणा: काश्चित्‌ क्ृष्णान्तिकं ययु: ॥७॥ ता वायमाणा: पतिनभिः पितृश्रिश्रत्बन्धुमि:। ग्रोविन्दापहतात्मानोी न न्यवर्त्तन्त मोहिता:॥७॥ श्री रासपें चाध्यायी जन्तगू हगताः काश्चिद्‌ गोप्योउलब्धविनिग मा: । क्ृष्ण॑ तद॒भावनायुक्ता द्युमीलितलोचना: ॥ढ। दुःसहप्रेष्ठवि रहतीब्रतापधुताशुभा: । ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिव्‌ त्या. क्षीणमंगला: ॥१०॥ तमेव परमात्मानं जारबुद्धयाईपि संगता:। जहुगु णमयं देहू. सद्यः प्रक्षीणबन्धना: ॥११॥ राजोबाच क़ृष्णं विदुः पर कानन्‍्त न तु ब्रह्मतया मुने। शुणप्रवाहीपरमस्तासा गुणधियां कथस्‌ ॥१२॥ श्रीशुक उवाच उक्त पुरस्तादेतत्त चंद्यः सिद्धि यथा गतः । द्विषनन्‍्नपि हुषीकेशं किमुताघोक्षजग्रिया: ॥१३॥ लुणां ति:श्र यसार्थाय व्यक्तिभेगवतो नृप। अव्ययस्याप्रमेयस्थ नियूं णस्य गुणात्मनः ॥१४॥ काम क्रोध भयं स्नेहमेक्य सौहृदमेब च। नित्यं हरो विदधतो यान्ति तन्मय्रतां हि ते ॥१५॥ न चेव॑ विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे। योगेश्वरेश्वरे. कृष्णे यत एतद्विमुच्यते ॥१६॥ ता दृष्ट्वान्तिकमायाता भगवान्‌ ब्रजयोषित: । अवदद्वदतां श्रेष्ठोी वाचः पेशविमोहयन्‌ ॥१७॥ श्री भगवानुवाच स्वागतं वो महाभागा: प्रियं कि करवाणि व: । ब्रजस्थानामयं कच्चिदब्र तागमनकारणम्‌ ॥१८।॥ २१ श्री रासपंचाध्यायी रजन्येषा घोररूपा घोरसत्वनिषेविता । प्रतियात ब्र॒ज॑ नेह स्थेयं स्नीभि: सुमध्यमाः॥ १८! मात्तरः पितरः पुत्रा भ्रातर: पतयश्च वः। विचिस्वन्ति ह्मपक्यन्तो मा कृढ़वं बन्धुसाध्वसम्‌ ।२०३ हृष्टं बन॑ कुसुमितं राकेशकररंजितम्‌ । यपुतानिललीलेजत्तरूपल्लशो भितय ॥२१७४ तयात माचिर गोष्ठ शुत्ष घध्व॑ प्तीम सती: । क़न्दन्ति व॒त्ता बालाश्च ताबु पाययत दुष्यत ॥२२॥ अथवा मदभिल्नेहाइभवत्यों यन्त्रिताशया:। आगता हाय पपन्‍नं व: प्रीयन्ते मयि जन्तवः ॥२३॥७ भतु : शुश्र षर्ण स्लीणां परो धर्मों ह्यमाययां। सद्बच्ध॒नां च कल्याण्य: प्रजाना चानुपोषणम्‌ ॥२४॥ दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जहो रोग्यधनो5पि वा। यति: स्रीभिन हातव्यों लोकेष्सुभिरपातकी ॥२५॥॥ अस्वर्ग्यमयज्ञस्थं च फल्गुकृच्छ भयावहम्‌ । जुगुप्धितं च सर्वेत्न औपपत्यं कुलस्रिया: ॥२६।॥ श्रवणाहशनाद्धयानान्मयि भावोश्नुकीतनातू । न तथा संन्निकर्षण प्रतियात ततो गृहाबु ॥२७७ शीशुक उवाच इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम्‌ । विषण्णा भग्नसंकल्पाणिचन्तामापुदु रत्ययाम्‌ ॥२८॥) श्री रासपंचाध्याया दर कत्वा मुखान्यव शुचः श्वसनेत शुष्यद्‌- बिम्बाधराणि चरणेत भुवं लिखन्त्य: । असर रुपात्तमपिभि;। कुचकुड्धू मानि तस्थुप्ृ जन्त्य उश्द:खभरा: सम तृष्णीम्‌ ॥२व॥। ओरेष्ठ. प्रियेतरमिब प्रतिभाषमाणं क्ृष्ण॑ तदर्थविनिवर्तितसबंकामा: जेन्ने विमुज्य रुदितोपहते सम किड्चितु संरम्भगद्गदगिरोडबुवतानुरक्ता:. ॥३०॥ सोप्य ऊचुः बेब विभोहहेति भवान्‌ गदितु नृशंस संत्यज्य स्वेविषयांस्तव पादमूलम्‌ । भक्ता भजस्व दूरवग्रह मा त्यजास्मान््‌ देवों यथा5दिपुरुषों भजते मुमुक्ष॒त्र्‌ ॥३१॥ यस्पत्यपत्यसुहृदामनुवृ त्तिरंग स्रीणां स्वधर्म इति धर्म बिदा त्वयोक्तम्‌ । अस्त्वेबमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्ठो भवांस्तनुभुृतां किल बच्धुरात्मा ॥३२॥ कुर्वन्ति हि त्वयि रति कुशला: स्व आत्म नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरातिदे: किम्‌ । लन्‍नः प्रसीद परमेश्वर मा सम छिन्झ्या आशां भुृतां त्वयि चिरादरबविन्दनैत्न ॥३३॥ चित्त सुखेन भवतापहत गृहेषु यब्निविशत्युत करावपि गृह्मकृत्ये । पादोौ पद॑ न चलतस्तव पादसूला- द्याम; कथंत्रजमथों क्रवाम कि वा ॥१था। श्ड श्रीरासपंचाध्यायी सिचांग नस्त्वदधरामृतपुरकेण हासावलोककल गीतजह॒च्छयागिनिम । नो चेद्य॑ विरहजाम्न्युपयुक्तदेहा ध्यानेन याम पदयो: पदबीं सखे ते ॥३५॥॥ यहां म्बुजाक्ष तव॒पादतल रमाया दत्तक्षणं कंवचिदरण्यजन प्रियस्य । अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्‍्यसमक्षमंग स्थातु त्ववाभिरमिता बत पारयाम:ः ॥३६।॥॥ श्रीय॑त्पदाम्बुज रजइ्चकमे तुलस्या लब्ध्वाइपि वक्षसि पद किल भृत्यजुष्टम । यस्या: स्ववीक्षणक्ृतेड्न्यसुरप्रयास- स्तद्वदयंच. तब पादरज; प्रपन्‍्ना; ॥३७॥ तन्‍न: प्रसीद बुजिनादंन तेषहिः घऋमुल॑ प्राप्त! विसुज्य वसतीस्त्वदुपासनाशा: । त्वत्युन्दरस्मितनिरीक्षणतीब्रकाम- तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यस्‌ ॥३८॥ वीक्ष्यालकाबृतमुखं तब कुण्डलश्री- गण्डस्थलाध रसुध॑ हसितावलोकम्‌ । दत्ताभयंच भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्ष: श्रियेकरमणंच भवाम दास्यः ॥३४॥ का स्त्पज् ते कलपदायतमृछितेन सम्मोहिता5ध्येचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम ॥ श्रीरासपंचाध्यायी | श्र लोक्यसौभगामिदंच निरीक्ष्य रूप॑ यद्॒गोद्विजद्र्‌ ममृगा; पुलकान्यबिश्रन्‌ ॥४०१। ब्यकतं भवाच्‌ ब्रजभयात्तिह रोइईभिजातो देवो यथा5:दिपुरुषः सुरलोकगोप्ता। तन्‍तो निधेहि करपडूजमात्त बन्धरो तप्तस्तनेषु च शिरस्सु च' किड्धू रीणाम ॥४१॥ श्रीशुक उबाच इति विक्‍लवितं तासां श्र्‌ त्वा योगेड्वरेश्वर;। प्रहल्थ सदयं॑ गोपीरात्मारामी5प्यरीरमत्‌ ॥४१५॥ तामभिः समेतामिरुदारचेष्टित; भ्रियेक्षणोत्फुल्लमुखी भिरच्युत; उद्दारहासद्विजकुन्ददी धितिव्य रोचतेणाडू: इबोड्भिव्‌ तः ॥४३॥ उपगीयमान उद्गायव्‌ वनिताशतयूथप; । मालां बिश्रद्द जयन्ती व्यचरन्मण्डयन्वनम्‌ ।89४॥ नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिहिमवालुकम्‌ । रेमे तत्तरलानन्दकुमुदामो दवायुना ।।४५॥ बाहुप्रसारपरिम्भक रालकोरु- नीवीस्तनालभननर्म नखाग्रपाते: । क्ष्वेल्यावलोकहसितैब्र जसुन्दरी णा- मुत्तभ्भयन्‌ रतिपर्ति रमयांचकार ॥४६॥ एवं भगवतः क्ृष्णाहलब्धमाना महात्मन::। आत्मान मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योउभ्यधिक भुवि ॥४७॥ तासां तत्सौभगमद॑ वीक्ष्य मानंच केशव: । प्रशमाय. प्रसादाय तत्नेवान्तरधीयत ।॥।४८॥ इति प्रथमी5ध्याय: द्वितीयोडध्याय: शरीशुक उद्ाच अभ्तहिते भगवति सहसेव ब्रजाजुना:। अतप्यंस्तमचक्षाणा: करिण्य इंव यूथपम्‌ ॥ १॥ ग्त्यानु रागस्मितबिश्नमे क्षितै में नो र - मालाप विहार बि श्रम: । आक्षिप्तवित्ता: प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिका: ॥२॥ शतिस्मितप्रेक्षणषभाषणादिषु प्रिया; प्रियस्य प्रतिख्ठमृत्त यः । असावह त्वित्यवलास्तदात्मिका न्यवेदिषु: कृष्णविहा रविश्रमा:. ॥३॥ सायस्त्य. उच्चेरमुमेव संहता विचिक्युरुन्मत्तकवद्नाहनम्‌ । पप्रच्छु राकाशवदन्तरं बहिभू तेष्‌ सन्‍्त॑ पुरुष बनस्पतीनू ॥४॥ हृष्टो वः कच्चिदश्बत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मनः। नन्‍्दसूनुर्गती.. हृत्वा प्रेमहासावलोकने: ॥४॥ श्रीरासपंचाध्याथी २७ कच्चित्‌ कुरबकाशोकनागपुन्ताग चम्पका: | रामानुजी मानिनीनामितोी दर्पहरस्मितः ॥६॥ कच्चित्त लसि कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये । सह ॒त्वालिकुलेबिश्रत्‌ दृष्टस्तेइतिप्रियो3च्युत: ॥७॥ मालत्यर्दाश वः कच्चिन्मल्लिके जाति यूथिके । प्रीति वो जनयन्यातः करस्पर्शेन माधव: ॥८॥ चुतप्रियालंपनसासनकी विदा र- जम्ब्वक॑ बिल्वबकुला म्रकदम्बनीपा: । येबन्ये परार्थ भवका यमुन्ोपकुला: शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां नः ॥ढी॥ कि ते कृतं क्षिति तपो बत केशवाहः घ्रि- स्पश्चोत्सवोत्पुलकिता ज्भुरुहै विभासि । अप्यंक्रिसस्भव उरुक़मविक्रमाद्दा आहो वराह॒वपुष: परिरम्भणेन ॥१०॥ अप्येणपत्न्युपमतः प्रिययेह गाछ्षे- : स्तन्‍्वन्दृशां सखि सुनिव्‌ तिमच्युतो बः । कान्‍्तांगसंगकुचकु कुमरंजिताया: कुन्द्नज: क्लुलपतेरिह वाति गन्ध: ॥११॥ बाहुं श्रियांस उपधाय गृहीतपदुमों रामानुजस्तुलसिकालिकुल मंदान्ध: । अस्वीयमान इह वस्तरव: प्रणाम कि वाभिनन्दति चरन्‌ प्रणयावलोक: ॥१२॥ श्द श्रीरासपंचाध्यायी पृच्छतेमा लता बाहुनप्याश्लिष्टा वनस्पते: | नूत॑ _तत्करजस्पृष्टा बिश्नत्युत्पुलकान्यहो ॥१३॥ इत्युन्मत्तवचों गोप्य: कृष्णान्वेषणकातरा: । लीला भगवतस्तास्ता ह्युनुचक्र स्तदात्मिका: ॥१४॥ कस्याश्चित्यृतनायन्त्या: क्ृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम्‌ । तोकायित्वा रुदत्यन्या पदाहुछकटायतीम ॥१५॥ देत्यायित्वा जहारान्यामेका कृष्णा भभावनाम्‌ । रिज्भरयामास काप्यंत्री कर्षन्ती घोषनि:स्वने: ॥१६।॥ कृष्णरामायिते हूं तु गोपायन्त्यश्च काश्चन । वत्सायतीं हन्ति चान्या त्तत्रंका तु बकायतीम्‌ ॥१७॥ आहय द्रगा यद्वत्कृष्णस्तमनुकुवंतीम । वेणु क्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्या: शंसन्ति साध्वति ॥१८॥ कस्याश्चित स्वशभरुजं न्यस्थ चलन्त्याहापरा ननु । कृष्णो5हूं पश्यत गति ललितामिति तन्मना: ॥१४॥ सा भेष्ट वातवर्षाध्यां तत्ताणं विहितं मया । इत्युक्वकेन हस्तेन यतत्त्युन्निदधेउम्बरम्‌ ॥२०॥ आरुह्येका पदाऊक्रम्य शिरस्यथाहापरा नूप। दुष्टाहे गचछ जातो5हं खलानां ननु दण्ड्घुक ॥२१॥ तत्न कोवाच है गोपा दावारिन पश्यतोल्बणम । चक्ष्‌ ष्याश्वपिदध्व॑ वो विधास्ये क्षेममंजसा ॥२२॥ बद्धान्यया स्रजा काजवित्तन्वी तत्र उलूखले। भीता सुदुक्‌ पिधायास्य भेजे भीतिविडम्बनम्‌ |२३॥ श्री रासपंचाध्यायी एवं क्ृष्णं पृच्छमाना वृन्दावनलतास्तरूच्‌ । व्यचक्षत वनोह शे पदानि परमात्मनः ॥२७॥ पदानि व्यक्तमेतानि नन्दसुनोम॑हात्मन:। लध्यन्ते हि ध्वजाम्भोजवज्ञाड कुशयवा दिभि: ॥२५॥ तैस्तें: पर्देस्तत्पदवी मन्विच्छन्त्यो5्ग्रतो5बला: । वध्वा: पदे: सुपक्तानि विलोक्यार्त्ता: समग्र बत्‌ ॥२६॥ कस्या: पदानि चेतानि याताया नन्दसुनुना । अ सन्यस्तप्रकोष्ठाया: करेणो: करिणा यथा ॥२७॥ अनया5राधितो नून॑ भगवान्‌ हरिरीश्वर:। यज्ो विहाय गोविन्द: प्रीतों यामनयद्रह: ॥२८॥ धन्या अहो ! अमी आल्यो गो विन्दांघ्रचब्ज रेणव: । यान्त्रह्मे शो रमा देवी दुम्‌ ध्न्यंघनुत्तये ॥२८॥ तस्या अमूनि न क्षोभ कुव॑न्त्युच्चे: पदानि यतु । येकापहुत्य गोपीतां रहो भुकतेज्च्युताधरम्‌ ॥॥३०॥ न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नून॑ तुणांकुरे;। खिद्यत्सुजातांधितलामुझिन्ये प्रेयसीं प्रिय: ॥३१॥ इमान्यध्रिकमस्नानि पदानि वहतो वधूम । गोप्य: पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामितः ॥३१।॥। अत्नावरोपिता कान्‍्ता पुष्पहेतोर्महात्मना। अतञ्र प्रसुनावचयः प्रियार्थ प्रेयसा कृतः। प्रपदाक्रमणे.. एते पश्यतासकले पदे ॥३३॥। केशप्रसाधनं त्वत्न कामिन्या: कामिना कृतम्‌ । तानि चडयता कान्‍्तामुपविष्टमिह ध्रुवम्‌ ॥३४॥ ३० श्री रासपंचाव्यायी रेमे तया चात्मरत आत्मारामोउ्प्यखण्डित:। कामिनां दश्शयन्द॑न्यं स्त्रीणांचव दुरात्मताम्‌ ॥३५॥ इत्येव॑ दर्शयन्त्यस्ताश्चेरुगोप्यो विचेतस: । यां गोपीमनयत्कृष्णो बिहायान्या: स्त्रियों बने ॥३६॥ सा च मेने तदा&्त्मानं वरिष्ठ सवंयोषिताम्‌ । हित्वा गोपी: कामयाना मामसौ भजते प्रिय: ॥३७॥ ततो गत्वा वनोहंशं दृष्ता केशवमनब्रवीत्‌ । न पारये5ह चलितु नय माँ यत्न ते मनः ॥३८०॥ एवमुक्त: प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामित्ति। ततश्चान्तदंध कृष्ण: सा वधूरच्वतप्यत ॥३ढ॥ हा नाथ रमण प्रेष्ठ ववासि ववासि महाभ्ुज । दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम्‌ ॥४०॥ अन्विच्छन्त्यो भगवतों मार्ग गोप्योअविदूरत: । दद्शु: प्रियविश्लेषमोहितां दु:खितां सखीम्‌ ॥४१॥ तया कथितमाकरण्य मानप्राप्तिंच माधवाव | अवमानंच दोरात्म्याहिसमयं परम ययु: ॥8२॥ ततो&विशन्‌ बन चन्द्रज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते । तम:प्रविष्टमालक्ष्य ततो निवदृतु: स्त्रिय: ॥४३॥ तन्मनस्कास्तदालापास्त द्विचेष्टास्तदात्मिका: तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मागाराणि सस्मरु: ॥४४॥ पुन: पुलिनमागत्य कालिन्धा: कृष्णभावना: समवेता जग: क्रष्णं॑ तदागमनकांकक्षिता: ॥४५॥ इ्ति द्वितीयोध्ध्याय: तृतोयो5ध्याय: गोष्य ऊचुः जयति तेडधिक॑ जन्मना ब्रजः श्रयत इन्दिरा शब्वदत्न हि। दयित हृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥१॥ शरदुदाशये. साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा। सुरतनाथ तेडशुल्कदासिका वरद निध्नतोी नेह कि वध: ॥२॥ विषजलाप्ययादुब्यालराक्षसाद वर्षमारुताद दर तानलातू । वृषमयात्मजादू विश्वतोभयादुषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥३॥ न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक। विखवसाथितो विश्वगुप्तमे सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥४॥ विरचिताभयं वृष्णिधु्य ते चरणमीयुषाँ संसृतेभयात्‌। करप्तरोरुहं कान्‍्त कामदं शिरसि घेहि नः श्रीकरग्रहम्‌ ॥१५॥ ब्रजजनातिहनू वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित । भज सखे भवत्किड्ूरी: सम नो जलरुह्मननं चारु दर्शय ॥६॥ प्रणतदेहिनां पापक्रशन॑ तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्‌ । फणिफणा वितं ते पदाम्बुजं कृणु कुचेष नः कृन्धि हच्छयम्‌ ।॥७॥ मधु रया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण। विधिकरीरिमा वीर मुझह्यतीरधरसीधुनाउथ्प्यायस्व नः ॥८५॥ तव॒कथाम्ृतं तप्तजीवन॑ कविभिरीडितं कल्मषापहम्‌ । श्रवणमद्भलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जना:॥ढ़ी॥ ३२ श्री रासपंचाध्यायी प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणजूच ते ध्यानमज्भुलम्‌। रहसि संविदो या हृदिस्पृथ: कुहक नो नम: क्षोभयन्ति हि ॥१०॥ - चलसि यद्‌ व्रजाच्चारयन्पशुत्‌ नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम। शिलतृणाइ कुरे: सीदतीति न: कलिलतां मन: कांत गरछति ॥११॥ दिनपरिक्षये.. नीलकुन्तलेबंनरुहाननं. बिश्नदावुतम्‌ । घनरजस्वल॑ दर्शयन्मुहुमंनसि नः समर वीर यच्छसि ॥१२॥ प्रणणकामद॑ पदु्मजाचितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि। चरणपदड्ुजं शन्तमज्च ते रमण नं: स्तनेष्वप॑याधिहन्‌ ॥१३॥ सुरतवधेन॑ शोकनाशनं स्वरितवेश्ुना सुष्ठु चुम्बितम्‌ । इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेउधरामृतम्‌ ॥१४;॥ अठति यज्भवानक्लि काननं तुटियुगायते त्वामपश्यताम्‌ । कुटिलकुन्तलं श्रोमुखञच ते जड़ उदीक्षतां पक्ष्मऋदहशाम्‌ ॥१५॥ पतिसुतान्वयश्रातृबान्धवानतिविलंघय॒तेज्त्त्यच्युतागताः । गतिविदस्तवोद्गीतमो हिता: कितव योपषित: कर्त्यजेन्निशि ॥ १६॥ रहसि संविद॑ हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्‌ । बृहदुर: श्रियो वीक्ष्य धाम ते मृहुरतिस्पृहा मुद्यते मन: ॥१७॥ व्रजवनौकसां व्यक्तिरज्ध ते वुजिनहसब्यल॑ विश्वमद्भलम्‌ । त्यज मनावच नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहुद्र जां यस्निषुदनम्‌ ॥ १८।॥ यत्त सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीता: शर्त: प्रिय दधीमहि ककंशेषु । तेनाटवीमटसि यद्‌ व्यथते न किस्वित्‌ कर्पादिभिश्न मसि धीर्भवदायुषां न: ॥१८।॥ इति तृतीयोउध्याय: 6 मे) ते) शमे हमे हमे मे (मे हमे हे: हमे: हमे: हमे हमे हमे हमे हमे) ९०) मे) (मे) (मे हमे) हमे) (मे) मे) शैमे) (मे) धैमे (मे हम हे (धमे मे) हमे (मे मे (मे) (मे) हमे मे (मे) (मे (मे) (मे) (मे के ज्योतिविद पौराणिक पं० पुरुषोत्तम देव व्यास मे ( श्री लल्‍लोजी महाराज ) (मु मे) जन्म तिथि : १०-१२-१५६६ (मे) निर्वाण दिवस : ४-४-१४४० (राम) हे हमे हे (गे 6 हमे) हे हमे) 6: हे हे मे हमे हमे हमे हमे (के के आचायें पं० रघुवर दयालु व्यास चतुर्थोष्ध्याय: श्रीशुक उबाच इति गोप्यः प्रगायन्त्य: प्रलपन्त्यदथ चित्रधा | रुरुदु: सुस्वरं राजन्‌ क्ृष्णदर्शनलालसा:॥१॥ तासामाविरभूच्छोरि: स्मयमानमुखाम्बुज:। पीताम्बरधर: ख्नग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथ: ॥२॥ स॑ विलोक्यागत प्रेष्ठ प्रीत्युत्फुल्लइशोड्बला: । उत्तस्थुयु गपत्सरवास्तन्व:. प्राणमिवागतम्‌ ॥३॥ काचित्कराम्बुज॑ शौरेजंगृहेडझजलिना सुदा। काचिहदधार तदबाहुमंसे चन्दनरूषितस्‌ ॥॥४॥ काचिदञ्जलिनागृहणात्तन्वी ताम्बूलचवितम्‌ । एकातदंध्रिकमल संतप्ता स्तनयोरधात्‌ ॥ ५४ एका भ्रकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्लुला। उनन्तीवैक्षत्कटाक्षेपं:... संदष्टदशनच्छदा ॥६॥ अपरानिमिषद्दुग्भ्यां जुबाणा तन्मुखाम्बुजम्‌ । आपीतमपि नातृथ्यत्सन्तस्तच्चरणं यथा ॥छाई त॑ काचिनेत्नरन्श्रेण हृदिक्ृत्य निमील्य च। पुलकाज्भच पगुद्यास्ते योगीवानन्दसंप्लुता ॥८॥ सर्वास्ता: केशवालोकपरभोत्सवनिब्‌ ता: । जहुविरहजं ताप प्राज्ञ' प्राप्य यथा जनाः ॥ढ॥ बढ श्रीरासपंचाध्यायी तामिविधृतशोकाशिभंगवानच्युतो. वृतः। व्यरोचताधिक तात पुरुष: शक्तिभियंथा ॥१०॥ ता: समादाय कालिन्दा निविश्य पुलिनं विभुः । विकसत्कुन्दमन्दा रसुरभ्यनिलषट्पदम्‌ ॥११॥ शरच्चन्द्रांशुसंदोहध्वस्तरोषातम:. शिवम्‌। कृष्णाया हस्ततरलाचितकोमलवालुकम्‌ ॥१२॥ तद॒शनाह्वादविधूतह॒द्र जो मनोरथान्तं श्र तयो यथा ययु:। स्वेरुत्त रीय: कुचकुड कुमां किते रचीक्लूपन्नासनमा त्मबन्ध्रवे ॥ १३॥ तब्नोपविष्टो भंगवात््‌ स ईश्वरो योगेश्वरान्तह दि कल्पितासन:। चक्रास गोपीपरिषद्गतो चितस्त्रयेलोक्यलक्ष्म्येकपद॑ बपुर्देधतु ॥ १४॥ सभाजयित्वा तमनज़जदीपनं॑ सहासलीलैक्षणविश्चमश्न्‌ वा। संस्पशनिनांकक्ृताड घ्रिहस्तयो: संस्तुत्य ईषत्कुपिता वभाषिरे ॥ १५॥ गोप्य ऊचुः भजतोउनुभजन्त्येक एक एतद्विपयेयम्‌ । नोभयांश्व भजन्त्येक एतन्नो ब्रहि साधु भो:॥१६॥ श्रीभगवानुवाच मिथो भजन्ति ये सख्य: स्वार्थे कान्तोद्यमा हिते न तत्र सौहद धम:ः स्वार्थाथ तद्धथि नान्‍्यथा ॥|१७,॥ भजन्त्यभजतोी ये वे करुणा: पितरो बथा। धर्मों निरपवादोउत्न सौहृदझ्च सुमध्यमा:॥१८॥ भजतोडपि न वे केचिजूजन्त्यभजत: कुतः। आत्मारामा ट्याप्तकामा अक्ृृतज्ञा मुरुद्रह: ॥१८॥ श्रीरासपंचाध्यायी ३५ नाहूं तु सख्यो भजतो5पि जन्तृत्‌ भजाम्यमीषामन्‌ वृत्ति वृत्तये । यथाधनो लब्धधने विनष्टे तच्चिन्तयान्यन्निभुतो नवेद॥२०णां एवं मर्दर्थोज्यितलोकवेदस्वानां हि वो मय्यनुबृत्तयेड्बलाः। मया परोक्ष भजता तिरोहितं मासूयितु' माहंथ तत्त्रियं प्रिया: ॥२१॥ न पारये5हूं निरवच्चसंयुजां स्वसाधुक्ृत्य॑ विवुधायुषापि व: । या मा भजन्‌ दुज रगेहश्वद्ला:संवृश्च्य तद्: प्रतियातु साधुना ॥२२॥ इति चतुर्थोड्ध्याय: पञचमोडध्याय: श्रीशुक उदाच इत्त्यं भगवतों गोप्य: श्रृत्वा वाच: सुपेशला: जहुविरहजं ताप॑ तदज्झोपचिताशिष: ॥ ९४ तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनत्रतें: । स्त्री रत्तैरन्वित:.. प्रीतैरन्योन्याबद्धबाहुनि: ॥र॥/ रासोत्सव: संप्रवृत्तो. गोपीमण्डलमण्डित: । योगेश्वरेण क्ृष्णेन तासां मध्ये हृयोद यो: ॥३४ प्रविष्देन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकर्ट स्त्रिय: ॥३॥ ये मन्येरत्‌ू नभस्‍्तावद्विमानशतसद्ू कुलस्‌ । दिवौकसां संदाशणामौत्युक्यापहुतात्मनाम्‌ ॥४॥ ततो दुन्दुभयों नेदूनिपेतु: पृष्पवृष्टयः । जगुग्रन्धबेपतय: सस्त्रीकास्तयशोब्म लम्‌ ॥ ५ वेलयानां नृपुराणां किड्धिणीनाब््ब योषिताम्‌ ! सप्रियाणामभुच्छब्दस्तुमुलों रासमण्डले ॥६॥ तत्नातिशुशुभे. ताभिभंगवान्‌ देवकीसुतः। मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतों यथा ॥७॥ पादन्यासैभु जविधुतिभि:. सस्मितैश्न विलासे- भेज्यस्मध्येश्वलक्ुचपट:. कुण्डलेगंण्डलोले: । स्विद्य॑स्मुखय: कबररशनाग्रन्थय: . कृष्णवध्बो मायन्त्यस्तं तडित इव ता मेघचक्र विरेजु:॥दा श्री रासपंचाध्यायी न उच्चेजंगुन्‌ त्यमाना रक्तकण्ठयो रतिप्रिया: । कृष्णाभिमश मुदिता यदगीतेनेदमावुत्तम्‌ ॥४॥ काचित्सम॑ मुकुन्देव स्वरजाती रमिश्रिताः। उन्निन्ये पूजिता येन प्रीयता साधु साध्विति। तदेव श्रवमुन्निन्ये तस्ये मानवूच बहुदातु ॥१०॥ काचिद्रासपरिश्रान्ता पाश्वेस्थस्थ गदाभुतः। जग्राह बाहुना स्कन्ध श्लथद्वलयमल्लिका ॥११॥ तत्रेकांसगत बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम । चन्दनालिप्तमाध्राय हृष्टरोमा चुचुम्ब ह॥१२॥ कस्याश्चिन्नादयविक्षिप्तकुण्डलत्विषमण्डितमू । गण्ड गणडे सन्दधत्या अदात्ताम्बूलचबितम्‌ ॥१३॥ नृत्यन्ती गायती काचित्कूजन्नू पुरमेखला। पाश्वस्थाच्युतहस्ताब्जं श्रान्ताधात्स्तनयो: शिवम्‌ ॥५४॥ गोष्यो लब्ध्वाच्युतं कान्‍्तं श्रिय एकान्तवल्लभम्‌ । गुहीतकण्ठ्यस्तदोभ्यां गायन्त्यस्त॑ विजहिरे ॥१४॥४ कर्णोत्पलालकविटडूकपोलघर्म- वक्‍त्न॑श्नयो... वलयनूप्रघोषबा्ध :। गोष्य: सम॑ चगवता ननृतुः स्वकेश- खस्तस्रजो श्रमरगायकरासगोष्ठयाम्‌ ॥१६॥ एवं. परिष्वद्भधकरामिमशेस्निमेक्षणोहामविलासहासे: । रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभियंथार्भक: स्वप्रतिबिम्बविश्रम: ॥१७॥ तदड्भसड्भप्रमुदाकुलिन्द्रिया: केशान्‌ दुकल॑ कुचपटिटकां वा । नान्‍ज: प्रतिव्योढ़पलंत्रजस्त्रियों विखस्तमालाभरणा:कुरूद्रह ॥ १८॥ न] श्री रासपं चाव्यायी कृष्णविक्रीड़ितं वीक्ष्य मुमुहुः खेच रस्त्रिय: । कामादिता: शशांकश्च सगणो विस्मतो5भवत्‌ ॥१ढै॥ कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीगोंपयोंषित:। रेमे स भगवांस्ताभिरात्मारामोषपि लीलया ॥२०॥ तासामतिविहारेण श्रान्तानां बदनानि सः । प्रामुजत्करुण: प्रेम्णा शब्तमेनाड़ ! पाणिना ॥२१॥ गोप्य: स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड- गण्डश्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन । सान॑ दधत्य ऋषभस्य जगुं; कृतानि पुण्यानि तत्कररुहस्पर्श प्रमोदा: ॥२२।। ताभियु तः. श्रममपोहितुमज्भसड्भ - घृष्ट्नज: स कुचकुड कुमरंजिताया: । गन्धवेपालिभिरनुद्रुत आविशद्वा श्रान्तो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतु: ॥२३॥ सोउम्भस्यलं युवतिभि: परिषिच्यमान: प्रेम्णेक्षित: प्रहसतीभिरितस्ततोड5ज्ध । वेमानिक्र: कुसुमवर्धिभिरोड्यमानो रेमे स्वयं स्वरत्तिरत्न गजेन्द्रलील: ॥२७॥ ततश्च कृष्णोपवने जलस्थलप्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे । चचार भुज़प्रमदागणावृतों यथा मद्च्युद्‌ द्विरद: करेणुनिः ॥३१५॥ एवं शशजांकांशुविराजिता निशा: स सत्यकामोध्नु रताबलागण: । सिषेव आत्मन्यवरुद्धसो रत: सर्वा: शरत्काव्यकथा रसाश्रया: ।२६॥ श्री रासपंचाध्यायी राजोबाच संस्थापनायथ. धर्मस्थ प्रशमायेतरस्य च । अबतीर्णों हि. भगवानंशेन जगदीश्वरः ॥२७॥ स कर्थं धर्मसेतूनां वक्‍ता कर्त्ताभिरक्षिता। प्रतीपमाचरद्‌ ब्रह्मनू. परदाराभिमशनम्‌ ॥ए८॥। आप्तकामो यदुपतिः कृतवान्व॑ जुगुप्सितम्‌ । किमशिप्राय एत॑ नः संशय छिन्धि सुत्रत ॥२४८।॥। श्रीशुक उवाच धर्ंव्यतिक्रमों दृष्ट ईश्वराणांच साहसम्‌ तेजीयसां न दोषाय वह्नोः सर्वभुजोी यथा ॥३०॥ नतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः। विनश्यत्याचरन्मौढ्याद्यथा रुद्रोडब्धिजं॑ विषम ।॥३१॥ ईश्वराणां वच: सत्यं तथेवाचरितं क्वचित्‌। तैषां यत्स्ववचोयुक्त॑ बुद्धिमांस्तत्समारेत्‌।।३२॥ कुशलाचरितेनंघामिह स्वार्थो न बिद्यते। विपयेयेण वानर्थों निरहड्डारिणां प्रभो ॥३३॥ किमुताखिलसत्वानां तियंहः मत्यंदिवौकसाम्‌ | ईशितुश्चेशितब्यानां कुशलाकुशलान्वय: |. ३४॥ यत्पादपद्धूजप रागनिषेवतृप्ता योगप्रभावविधुताखिल कम बन्धा: स्वर चरन्ति सुनयोउपि न नह्यमाना- डेदे स्तस्येच्छया»त्तवपुष: कुत एवं बन्धः ॥३५॥ छा0 श्री रासपंचाध्यायी गोपीनां तत्पतीनांच सर्वेषामेव देहिनास्‌ । योउन्तश्चरति सोब्ध्यक्ष: क्रीडनेनेह देहिभाक ॥३६॥ अनुग्रहाय. भूतानां मसानुष॑ देहमास्थित:। भजते तादृजी: क्रीडा या: श्र्‌ त्वा तत्यरो भवेत्‌ ॥३७॥ नासूयन्खलु क्ृष्णाय मोहितास्तस्थ मायया। भनन्‍्यमाना: स्त्रपाश्वेस्थालू्‌ स्वान स्वाच्‌ दारानु ब्रजौकस:।।३८॥ अह्यरात्र उपावृत्त बासुदेवानुमोदिता:। क्षनिच्छन्त्यो ययुगोप्यः स्वगुहात्‌ भगवत्त्रियां: ॥३४॥ विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदंच विष्णो: श्रद्धान्वित्तोज्नुश्रणुयादथ वर्णयेद्यः । भक्ति परा भगवति प्रतिलभ्य कार्म॑ हंद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर:॥॥४०॥। इति पंचमोध्यायः श्री रास पंचाध्यायी प्रथमोध्यायः प्रारम्भ! ॥ मंगलाचरणम्‌ ॥ राधाकृष्ण पदार्चनेक निरत' पुरुषोत्तम॑ गुरु वरम्‌ श्री निम्वाके पदारविन्द सुगलं ध्यानास्पर्द मंगलस ॥९॥ ज्योतिवित्तिलक पुराण पुरुष वेदान्त सूर्य परस्‌ वन्देई३हुँ करुणा पर सहृदय॑ मातामहं सबेंदा ॥२॥ श्री पुरुषोत्तम देवस्य प्रसादों रास संग्रहः रसवद्ध कप्रेमस्यथ नितरां जन संसदि रासेश्वरस्थ कृष्णस्य लीला यत्रप्रकीतिता सा परापरमारम्या पंचाध्यायी विरच्यते ॥३॥१ श्री राधाकृष्ण की सेवा में संलग्न चित्त तथा निम्बाके महाप्रभु के चरण युगल के सेवक आचाय॑ं श्री पुरुषोत्तम लाल जी घ्यास मेरे मातामह एवं गुरुदेव के श्री चरणों में प्रणाम करके उन्हीं का प्रसाद रूप श्री रास रासेश्वर महाप्रभु की प्रणय रसवद्ध नी रासलीला रास पंचाध्यायी का जिस प्रकार मैं कथा ( २ ) में वर्णन करता रहा हूँ उसी को भावुकजनों की सेवा में अपंण कर रहा हूँ । सजयति सिन्दुर बदनों देवोयत्पाद पंकज स्मरण वासर मणिरिव तससां राशिननाशय्यति विध्नानामु ॥४॥ ब्रह्माद जय संरूढ दर्पे कन्दर्प दर्पहा जयति श्रीपतिगोंपी रासमण्डल मण्डन: ॥५॥ आचाये चरण श्रीधरस्वामी ने रास के आरम्म में यह मंगला चरण किया है कि ब्रह्मादिक देवताओं को जीतने वाले अभिमानी कामदेव के धमण्ड को दूर करने वाले गोपी रास मण्डल के मण्डन शोभा सौन्दर्य स्वरूप श्रीपति रासरासेड्वर की जय हो जय हो। महारास यज्ञ की कथा प्रारम्भ करते हैं । यह भागवत की सार रूप कथा है :-- स्ववेदान्तमुद्ध त्य क्षीरवार घेरिवामृत तच्छीमागवत' शास्त्र प्रोक्त भगवतर स्वयं 0 तत्सारभृत' दशम स्कनन्‍्धं प्राहुमेनी षिण: ॥। तत्सारभुता “ परमा पंचाध्यायी निगद्यते. ॥$॥ ( ३ ) जिस प्रकार क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत निकाला है। उसी प्रकार मनीषि विद्वानों ने वेद वेदान्तों का सार रूप अमृत भागवत को निकाला है। और भागवत का भी सार दशम स्कनन्‍्ध है तथा दशम स्कन्ध का सार रास पंचाध्यायी है और इसका भी सार श्रीराधा जी का नाम है जो कि परम गोपनीय है भक्त जन कभी अपने गुरुजनों का नाम नहीं लेते । वह नाम तो सदा हृदय में ही निवास करता है। कदाचित्‌ नाम निकल जाय तो भावना में विभोर होकर समाधिस्थ हो जाते हैं यही कारण है कि भागवत महापुराण में जहाँ सभी राधा सर्वेश्वर की ही लीला वर्णन करी है वहाँ श्री राधारानी का प्रगट नाम नहीं लिया।. पादूमे राधानाम सात्रेण मूर्च्छा षाण्माषिकी भवेतु नोच्चारितमत:स्पष्टं परीक्षितु हितकृन्मुनिः ॥»॥ महामुनि शुकदेवजी जब भाव विभोर होकर श्री राधे श्री राधे ऐसा कह देते तो उनकी छे मास की समाधि लग जाती थी। आज यदि रासयज्ञ के अन्तर्गत उनकी समाधि लग जाती तब परीक्षित महाराज को कौन कथा सुनाता। यह नाम तो भक्तों का परम धन है । परम धन राधा नाम अधार जाहि श्याम मुरली पे टेरत सुमरत बारम्बार | परम० तन्‍त्र मन्त्र और बेद यन्त्र सें सब तारन को तार। परम्त० ( ४ ) श्री शुकदेव प्रगट नहें भाख्या जानि सार को सार। परम० कोटिक रूप धरे नन्‍द. नन्‍्दन तऊ ने पायों पार। परस० व्यास दास अब प्रगट वखानत डारि भार में भार। परसण धन राधा नाम अधार यह नहीं समझना कि भागवत शास्त्र में राधा नाम नहीं है राधा नाम तो प्रत्येक अध्याय में आता है पर जगज्जननी सर्वेश्वरी राधा को कौन प्रत्यक्ष में पा सकता है। रास के प्रारम्भ में ही श्री राधा' सर्वेश्वरी ने शुकदेवजी को समझा दिया था | कौशिक संहिता में लिखा है श्री शुकदेवजी राधा रानी से बोले :-- रासक्रोणां वर्णयितु मुद्य कतो वादरायणि: समाधिस्थस्ततो राधां प्राथंथयामास चेतसि रासक्रीणां.. वर्णयेह माज्ञामे दीयतां शिवे ।॥॥८॥ मैं आपको रहस्यमयी लीला का वर्णन करता हूँ। आप मुझे आज्ञा प्रदान करें । उस समय राधा जो कहती हैं :-- स्फूट प्रोबाच श्री राधा निःशंक॑ वर्णतामिति मदीय॑ मत्सखीनां च॑ नामग्राह्म न कुत्नचित्‌ ॥द॥ [| ४) आप मेरी लीलाओं का निःशंक होकर वर्णन करें पर मेरा तथा मेरी सखियों का स्पष्ट नाम न लेना। बताइये, इतनी वात होने पर फिर अपने आराध्य देव का कैसे नाम ले सकते। अस्तु, कितनी जगह नाम आत्ता है यह तो आप आगे स्वयं पढ़ेंगे या सुनेंगे । राधा तो रास की सारभूता है । राधा नाम तो मन ही मन में जपने का मन्त्र है ( मन्त्रस्य सुलघच्चार जप इत्यभिधीयते ) मन्त्र के लघु उच्चारण को जप कहते हैं। आचाये महाप्रभु कहते हैं । रहस्यं॑ श्रीराधेत्यखिल निगसानामिह धन निगृढ॑ मद्राणी जपतु सततं जातन परम ॥ ॥१०॥ अखिल शेष शास्त्रों का धन श्रीराधा नाम रहस्य है इसे किसी के सामने कहा नहीं जाता, मेरी वाणी निरन्तर इसी का जाप करती है और किसी का नहीं, तात्पर्य यह है कि यह नाम सवंथा गोपनीय है। व्यास जी ने प्रारम्भ में ही राधाक़ृष्ण का ध्यान किया है। यथा :-- जन्मागस्थ यतोन्वयादितरत्तः (अन्बयात्‌) अनुगच्छति सदा परमाननन्‍्द रूपायां तस्यां राधायां आसक्तो भवतीत्यन्वयः | भरी कृष्ण: यस्मातु (इतरतः) तस्या सदा द्विती- थाया भी राधाया एवं आद्यस्य आदि रसस्य जन्म प्रादुर्भावः । निरन्तर परमानन्द रूपा राधा के पीछे चलने वाले श्रीकृष्ण इतरा दूसरी श्री राधा इनसे हो आदि रस का प्रादुर्भाव हुआ [ है । ऐसे सत्य पर स्वरूप का हम ध्यान करते हैं। इस प्रकार अनेक स्थलों में श्री राधा का ही नाम- सर्वत्र लिखा हुआ है । रास की सारभूता श्री राधा हो है। अतः प्रथम रास रासेश्वरी वृषभानु किशोरी श्री राधांजी को नमस्कार है। वामेशारद चर्द्रकोदि सधुरां केंशोर कान्‍्त्युज्वलामु कानतां कामकलात्समकां कमलिनीं कारुष्यपुर्णेक्षण/स्‌ ॥। सत्कचित्पेम रसात्मकां रसमयीमाजानु दीघलिकां। सेवेहूँ परसेश्वरीं भगवती बुन्दावनाधीश्वरीमु ॥११॥ रास पंचाध्यायी में पाँच अध्याय वर्णन करी हैं। कारण पाँच ही तत्व हैं। पाँच ही यज्ञ हैं। पांच ही देव है। पाँच ही पंच होते हैं तथा कामदेव के भी पाँच बाण हैं यथा--उच्चाटन- वशीकरण, मोहन, स्तम्भन, और विद्वष इन परचचों के काटने के लिए ही पाँच अध्याय हैं। रास--रस एवं रास: जो रस से भरा हुआ है। रंस्यत आइश्वादिते रस के स्वाद लेने की वस्तु रास जिसमें आनन्द ही आनन्द है। जो बहुत सी नरतंकियों के साथ किया जाता है वह रास कहलाता है। रास करने का प्रयोजन क्या है? कामी कामदेव के गये को दूर करना जिसको ब्रह्मादिक के जीतने का गर्व था । ब्रह्माजी एक समय अपनी सुन्दरी पुत्री को देख कर मोहित हो गये थे । यह काम की विजय | शंकरजी मोहिनी स्वरूप को देख कर मोहित हो गये। यह भी काम की विजय । देवराज इन्द्र गौतम की पत्नी को देख कर मोहित हो गये। यह काम की विजय । इस प्रकार बड़े-बड़े लोकपालों को जीत कर कामदेव का गयवे बढ़ गया था। घमण्ड से भरपूर कामदेव अपने को ( ७ ) त्रिलोक विजयी समझता था। एक दिन बह अभिमानी अपने बल पर फूला अपनी भुजाओं को फटकारता घूम रहा था। उसको अचानक देवषि नारद मिल गये। उनको देख कर बोला--नारद जी आप तो संसार में भ्रमण करते हो बताओ फोई मेरे बराबर संसार में योद्धा है जो मुझसे युद्ध कर सके । नारद जी ने कहा--कामदेव ऐसा योद्धा तो अब एक ही रहा है जो तुम्हारा सामना कर सके। वह वृन्दावन में रहता है। कामदेव बोला अच्छा तो आप उसका पूरा नाम गाँव तथा उसके काम बताइये | नारद जी ने कहा--कामदेव वह वृन्दावन का राजा है। उस किले में सहसा कोई प्रवेश नहीं कर सकता वह शुद्ध सत्व की खाइयों से घिरा हुआ है, उसका परकोटा वृक्षलता ज्लाड़ियों से सुदृढ़ है। वहाँ चार बुजे हैं। ऋगवेद, यजुवंद, सामवेद तथा अथवंबेद । यह बाहर के बुज हैं। भीतर अठारह पुराण रूपी अठारह बुर्ज हैं। वहाँ का राजा नन्‍्दकिशोर है और रानी भी लाढली जी है। वहाँ गीता कोतवाल है और हरिभक्‍त वहाँ के सैनिक हैं जिनके पास शास्त्र रूपी शस्त्रास्त्र हैं। वहाँ कोई नास्तिक प्रवेश नहीं कर सकता कारण वह वेष्णव गोलन्दाज शास्त्र रूपी जो गोलाओं की वर्षा करके शत्रुओं को मार भगाते हैं। वहाँ की प्रजा कृष्ण प्रेमातुरी है। साधु भक्ति रूपा नाम के वहाँ दरवाजे हैं। जिनसे पुण्यात्मा ही प्रवेश कर सकते हैं यापियों को तो धक्का देकर बाहर निकाल दिया जाता है। यह सुनकर कामदेव बोला--ना रद जी अब मैं समझ गया। उस वृन्दावन के राजा को ही देखना है। कामदेव अपनी सेना को सुसज्जित करके अपने मित्र वसन्‍्त एवं मलयाचल का पवन आदि के साथ चल दिया। (८) सायंकाल का समय था वुन्दावन पहुंच कर वहाँ का सघन वन देखा एवं सामने से आते हुए नन्‍्दकिशोर को भी देखा जो कि गायों के साथ आः रहे हैं। उनके सौन्दर्य को देख कर कामदेव स्वयं मोहित हो गया । कुछ समय टकटकी लगा कर देखता ही रहा। आगे गाय पीछें गांय इल गाय उत गाय ! गोविन्द को गायन में वसवोई भावेरी ॥ गायन के संग धावे गायन में सुख पावे गायन के काज गिरि करते उठायो री । छीत स्वामी गिरधरन बिट्ठलेश वपुधारी स्वारिया को वेश धरे गायन में आवेरी ॥। गोविन्द को गायन में वसवोई भावेरी कामदेव ती उस माधुरी छवि को देख स्वयं आकुल हो उठा तथापि सावधान होकर उनके सामने आकर उनसे बोला-- भाई ! तेरा क्‍या नाम है श्रीनन्‍्दकिशोर ने कहा, भेया मेरा तो दो अक्षर का नाम है कृष्ण” पर मुझसे नन्‍्दकिशोर कहते हैं और भाई तुम्हारा क्या नाम है। कामदेव बोला-मेरा नाम जगद्विजयी मकरध्वज कामदेव । श्री ऋृष्णजी ने कहा-भाई तुम्हारा नाम तो बहुत बड़ा है। कामदेव ने कहा--ठीक है मैं तुमसे ही युद्ध करने आया हैँ ( श्रीकृष्ण अच्छा भैया, तो बता कसा युद्ध करेगा। मंदान का या किलेबन्दी क।। कामदेव पा, बोला, मैं यह नहीं जानता मेदान की लड़ाई कंसी होती है और किलेबन्दी की लड़ाई कंसी होती है । तब श्रीकृष्ण चन्द्र ने उसको बताया देख--किले की लड़ाई तो वह है कि मैं समाधि लगा कर बेठ जाऊँ और तू अपने हथियारों से मेरे मन को विचलित कर और भाई, मंदान की लड़ाई वह है कि मैं हजारों गोपियों के साथ रास नृत्य गान करूँ | उस समय तू अपने हथियारों से मेरे मन को चलायमान कर यदि मेरा मन उस समय के नाच, गाव तथा वाद्य से विचलित हो जाय तो तेरी विजय अन्यथा मेरी विजय यह है मेदान की लड़ाई। कामदेव ने सोचा, यह मेदान का युद्ध ही ठीक रहेगा। इसमें तो मैं इसको परास्त कर दूगा। कामदेव ते कहा -क्ृष्ण, मैं मैदान का युद्ध करू गा । श्री कृष्ण--अच्छा, तो तू आगामी शरद्‌ ऋतु की रात्रि में आ जाना उसमें मैं रासयज्ञ करूगा। वहाँ सब स्त्रियाँ ही रहेंगी पुरुष तो मैं अकेला रहूँगा उस समय आना । यह है रासलीला करने का प्रयोजन, उस अभिमानी कामदेव के मान का मर्दन करना । यह निवृत्ति परा लीला है जहाँ शुद्ध प्रेम का ही साम्राज्य है। श्री कृष्ण: प्रेमवतीनांवश्य: न तु कामवतीनां विशुद्ध प्रेम सदां बढ़ता है। साधारण प्राकृतिक प्रेम घट जाता है तथा कालान्‍्तर में नष्ट हो जाता है। श्री शुक उवाच-- भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमल्लिकाः वीक्षरन्तु मनश्चक्त योगमायासुपाश्ित: ॥१२॥ श्री शुकदेव जी बोले-- जहाँ शरद्‌ कालीन मल्लिका चमेली खिल रही है उन ( १० ) दिव्य रात्तियों को देख कर ब्रज देवियाँ रमण करने की इच्छा करने लगी । उसी समय भगवान भी रमण करने की इच्छा करने लगे | भगवान पषडेश्वय सम्पन्न को ही कहते हैं--यहाँ अन्य नाम जैसे वृन्दावन बिहारी, रसिक बिहारी, माधव, मुकुन्द, मघसूदन मनमोहन आदि रसलीला माधये सम्पन्त नामों की आवश्यकता न समझ कर षडेइ्बय सम्पन्त भगवान नाम ही शुकदेव जी ने लिया है। कारण इस नाम की ही शक्ति है जो करोड़ यूथ गोपियों में भी योगेश्वर बनने में समर्थ है तथापि परात्पर भगवान ने योगमाया का सहारा लिया है। यह आपकी आहलादिनी शक्ति राधा है । योज्यं भगवान यामुपाश्रवित सन्‌ रन्तु' मनश्चक्र सा अगमा दुर्गेमा (गोबिन्दप्रियवर्ग दुर्गम सखी वन्दे: समालक्षितेति सुधा- निधे) दुर्गगा यमादि साधने य॑म नियम आसन प्राण संरोध प्रत्या- हार, ध्यान धारणा, समाधि लक्षणानि साधननि तैरपि दुर्गमा सा राधा योगमायामुपाश्चितः यहाँ राधारानी का स्पष्टनाम दीख रहा है। बिना राधा के रासलीला कंसे हो सकती है इसलिये (स्वाश्विता मपि तांमाश्रित्य) अन्न व॒ुन्दावनेश्व रीमना- श्रित्य शासोत्सव॑ क्थ स्थात्‌ (योगमायां स्वीयांमचिन्त्य चिच्छक्ति मतीमुपग्रम्य आधिक्येन आश्रित्य इति । यहाँ योगमाया नाम वंशी का भी है वह भी रासरासेशएवर को सबसे अधिक प्यारी लगती है। उसका भी आपने सहारा लिया है यथा-महारद्रस्तुवंशिका इति युक्तमेव कामदर्पदलनायतदा श्रयेण प्‌ ॥ कामदेव के दये दमन करने के लिए आपको महारुद्र वंशिका का आश्रय लेता पड़ा। इसमें एक और भी रहस्य ५ 8.० ह॥ छिपा हुआ है। महा रुद्रावतार श्री हनुमान जी हैं उनकी साक्षी में ही रास सम्भव है। इस महारास में साक्षी होना आव- श्यक है। जिससे आपको योगेश्वर की उपाधि मिल सके । एक समय रामजी ने भरत जी से पूछा-भेया, एक बात बताओ मैं हनुमान के ऋण से कंसे उरण हो. सकता हूँ। भरत जी ने कहा--रामजी, जैसे हनुमान मे आपकी सेवा की है उसी प्रकार आप हनुमान की सेवा करें, राम के प्यारे हनुमान रुद्रांश वंशी के रूप में प्रगट हुए हैं यहाँ श्रीकृष्ण की सबसे प्यारी वस्तु वंशी रही है। उसी वंशी की श्रीकृष्ण ने सेवा की है महारुद्रस्तुवंशिका--श्री कृष्ण के साथ वंशी सदा रहती थी ! राधारानी ने भी रास में आने की स्वीकृति जब दी कि रास में ब्रह्माचारी ही साक्षी होना चाहिए। यही कारण है कि थोगमाया वंशी का आश्रय लेकर ही रास आरम्भ किया है यहाँ कोई शंका करता है श्यामसुन्दर बालक थे। उत्तर-- वाल्येडपि भगवान कृष्ण कंशोरं रूप माश्रितः इतिन्यायात्‌) आपने बाल्यावस्था में ही कैशोर रूप धारण कर लिया है। ततोड्राजककुभः करेमुखं प्राच्याविलिस्पन्नरुणेनशन्त्से: सचर्षणीनामुदगाच्छुचोमृजन्‌ प्रियः प्रियाया इब दी दर्शवः ॥१३॥ जिस समय रास रासेश्वर भगवान रास क्रीड़ा करने का विचार करने लगे। उसी समय चन्द्रोदय हुआ । वह अपनी सुखकारी लाल किरणों से नायिका स्वरूप पूर्व दिशा का मुख मण्डन कर रहा है ऐसा प्रतीत होने लगा! चन्द्रोदय के होने से खितहारे किसानों का दिनभर का परिश्रम दूर हो जाता ( १२ ) है। आज उस चन्द्रमा को देख कर तथा रात्रि की शोभा देख कर प्रभु ने उन ब्रज देवियों को बुलाने के लिए उस मनोहर गान का आरम्भ किया । एक दिन श्याम सुन्दर सायंकाल के समय यमुना तट वंशीवट पर एक कदम्ब के नीचे उसकी सुशीतल छाया में अपना पटका बिछा कर बेठे थे। उस समय आपके पास तीन बंशियाँ रकखी थी। एक का नाम नन्दिनी था और एक का नाम मोहिनी था तथा एक का नाम आकर्षणी था। आज आपने मोहिनी बंशी को उठाया और उससे बड़ें प्यार से बोले-अरी मोहिनी ! तू कभी मेरे किसी काम में नहीं आती है। और मुझे देख, मैं तेरी सदा सेवा करता हूँ। तुझे हर समय अपने होठों पर रखता हूँ तेरे चरणों को दबाता हूँ पर तू बड़ी कठोर है जो कभी मेरे काम में नहीं आती । शयाना हस्ताव्जे मृदुलमपधायाधरदलं, हरे मंन्दा दोला लक ततिभिरावीजित तनु: । दधाना सा हांकांगुलिभि संवाहत विधि, स्तथाप्येषा वंशी नहि भजति सामतन्न सुकुला ॥ ॥१४॥ भगवान की इस वाणी को सुन कर वंशी ने कहा--नाथ, आप ऐसा पछतावा क्‍यों कर रहे हो। मुझे कोई काम तो बताइये । मैंने तो आपके किसी काये में विरोध नहीं किया। नाथ, मैं तो आपकी दासी हूँ। तब भगवान ने कहा--अच्छा- तो आज सब ब्रज नागरियों को मेरे पास बुला ला। वंशी ने कहा, बस प्रभु इतने से काम को और इतनी बड़ी भूमिका बना रहे हो | मैं अभी जिनको आप कहो उनको बुलाती हूँ। ( १३ ) श्री रास रासेश्वर ने विचार किया कि पहिले रास रासे- इवरी राधा को ही बुलाना चाहिये अन्यथा वह कहीं मान करके बेठ गई तब यह उत्सव न हो सकेगा। इसलिये प्रभु ने प्रथम वृषभान किशोरी को ही टेर लगाई । है राधे वृषभानभूपतनये हे पूर्ण चन्द्रानने । है कान्‍ते कमतनीय को किलरवे व॒न्दावनाधीश्वरी। हे मत्प्राण परायणे च सुभगे हे सर्वयूथेश्व री । भागत्यंत्वरितं त्वमत्नविपने मां दीन मां नन्दय ।। ॥१५॥ कितने मात के साथ मधुर वचनों से राज राजेश्वरी को बुलाया है। है दीनों को आनन्द देने बाली नारदादि ऋषि वन्दिता देवी राधे शीघ्र पधारों जल्दी आओ। फिर आपने अन्य सभी ब्रजाज्भनाओं को बुलाया है। हे श्यामे सुभगे स्वभाव चपले चित्र विशाखे प्रिये । है चन्द्रावलि श्यामले चललिते हे तु गभद्र रमे । हे भद्र सुखदे च चम्पकलते, हे स्वर्णरेखे स्वभे। अन्याया ममवल्लभा ब्रजपुरेतास्तृणमागच्छत । ॥१६॥ इस प्रकार सबके नाम ले लेकर श्याम सुन्दर ने उनको बुलाया है। बंशी बजा कर उन ब्रजकिशोरियों के मन को अपनी ओर खींच लिया। आपने उनको इस प्रकार क्‍यों लुभाया इसका तात्पर्थ यह था कि उन देवियों के मन का हरण करना उनके मनको वहाँ से हटाना था कारण ( १४ ) यह कामदेव मनोज कहलाता है अर्थात्‌ मनका पुत्र | सर्वश्वर भगवान ने विचारा कि गोपियों का मन यदि गोपियों के पास रहेगा तब कामदेव उनके अंग प्रत्यंग में प्रवेश न कर सकेगा । कारण पिता मन के रहते वह उन अज्ों में कंसे प्रवेश कर सकता है। और यदि वह उनके अड़ों में नहीं बैठता है तो भगवान की हृष्टि में वह कमजोर रहता है। एक निबंल शत्रु से लड़ना भी उपहास मात्र होगा राहु जो दंत्य है वह भी पूर्ण चन्द्र पर पूणिमा में ही आक्रमण करता है। उसकी दुर्बल अवस्था में अमावश पर कभी आक्रमण नहीं करता जब असुर भी इस नीति को जानते हैं फिर हमारे सरकार कंसे एक दुबंल से युद्ध करते । इसलिये आपने कामदेव को पुष्ट करने के लिए हो वंशी नाद करके ब्रजकुमारियों का मन हरण किया है। यही वेणुनाद करने का प्रयोजन है -- निशम्य गीत तदनंग वद्ध न॑ ब्रजस्त्रियः कृष्ण गहीत मसानसा: आजम्मुरन्योन्यमलक्षतों द्यमाः स यत्र कान्‍तो जब लोल कुण्डलाः ॥१७॥ उस वंशी के मधुर गीत को सुत कर वह गीत अनंगवर्धन था प्रेम के बढ़ाने वाला। अनंग काम को भी कहते हैं। अनंग प्रेम को भी कहते हैं। अनंग प्रद्यूम्न को भी कहते हैं यह प्रेम के बढ़ाने वाला है एवं काम के तो काठने वाला है। इस प्रकार के प्रेम गीत को सुन कर वहू ब्रज की ललना जो कि चार प्रकार से प्रसिद्ध थी। श्र्‌ूतिरूपा, ऋषि रूपा, देव कन्या, गोपकन्या थो यह मानवी नहीं थीं। गोप्पस्तु श्र्‌ तयः प्रोक्ता ऋषिजा गोपकन्यकाः । देव कन्याश्च राजेन्द्र-न सानुष्यः कर्थंचनः | ॥१५८॥ साधारण स्त्रियों को तो वह बेणु गीत सुनाई भी नहीं दे सकता। (६ १५) यह साधन सिद्धाओं को ही सुनाई पड़ सकता है। इन्हीं देवियों का मन परमात्मा ने हरण कर लिया था। एक और आश्चर्य की बात कि ॥अन्योन्यमलक्षितों द्यमा:॥ ब्रज़किशोरी गण जब अपने कान्‍त के पास चली हैं उस समय उनका कंसा तन्मय भाव था कि वह एक दूसरे को न जान सकी। सबको यह आभास हो रहा है कि श्याम सुन्दर ने मुझे बुलाया है । ललिता जी समझ रही हैं प्रभु ने आज मुझे बुलाया है तथा विज्ञाखा जी समझ रही हैं मैं ही श्याम सुन्दर के पास जा रही हूँ। आज मुझे ही बुलाया है। जहाँ अनन्त कोटि गोपियाँ जा रही हैं वहाँ सब अपना-अपना ही सौभाग्य समझ रही हैं। यह तन्मय अवस्था है| तन्मय अवस्था में ऐसा ही हो जाता है। एक समय श्री राधाक्ृष्ण ब्रजदेवियों के साथ निकु ज में बैठे थे उस समय एक भ्रमर बार-बार आकर प्रियाजी के मुख मण्डल पर भमराने लगा कारण आज श्री राधा जी कमल पुष्पों के कुण्डल धारण कर रहो थी। वह गन्ध का लोभी भौंरा उनको आज बड़ा कष्ट दे रहा है। राधाजी की सखियाँ उसे अपने चमर एवं व्यजन पंखाओं से उसको निकुज से बाहुर निकाल देती हैं पर वह नहीं रुका । उस समय एक सखा उस भ्रमर को अपनी छड़ी से मारता बहुत दूर ले गया। तब कहीं शान्ति मिली इस खुशी में एक सखि ने आकर कहा, राधे मधुसूदन गये | मधुसूदन भौंरा से भी कहते हैं और मधुसूदन भगवान का भी नाम है राधाजी को कंसी श्रान्ति हुई कि श्याम सुन्दर निकुज से चले गये। वह तो एकदम व्याकुल हो गई और कहने लगीं । कक्‍्व ननन्‍द कुल चन्द्रमा कक्‍व शिखि चन्द्रिकाल कृतिः क्व सन्‍द सुरली रवः क्‍्व नु सुरेन्द्र नीलदयतिः ( १६ ) कक्‍्व॒ रास रसताण्डवी क्‍्व सखिजीव रक्षौषधि विधिमंमसुहृत्तम कक्‍्व हनत हा घिक्‌ विधिः ॥१द। नन्‍्द कुल चन्द्रमा आप कहाँ चले गये। हे मयूर चन्द्रिका से अलंकृत आप कहाँ हो । मनोहर मुरली बजाने वाले आप कहाँ हो | है रास सर्वश्वर सखियों की जीवन रक्षा औषधि आप कहाँ हो ? हे सुहृत्तम यह विधाता ऐसा वियोग क्‍यों करा देते हैं। विधाता तुमकी धिक्‍्कार है। यह राधाजी का तन्‍्मय भाव है। जबकि पास में परात्पर भगवान बढठे हैं पर इतनी सुनकर कि मधुसूदर गये। आपकी क्या दशा हो रही है आपको अब कुछ नहीं दीख रहा । श्री कृष्ण भी उनको समझा रहे हैं पर उनका तो यह वियोग जन्य दुःख बढ़ता ही जा रहा है। गोपियाँ भी व्याकुल हो रही हैं । यह क्या हो गया ? श्री राधा वह दुःखी हृदय राधा कृष्ण चन्द्र के विरह में वह वियोगिनी राधा, वह भक्ति रस तरंगिणी राधा, वह श्री कृष्ण को आहलादिनी शक्ति राधा, वह सर्वेश्वरी राधा दुखित हो विष कुन्ड की ओर चल दी मैं श्रीकृष्ण के बिना अपने प्राण त्याग दूगी। जेसे ही विष कुण्ड में कदने लगी । उसी समय श्रीकृष्ण चन्द्र ने! अपने! दोनों हस्तकमल उत्तके पक- ड़ने को कन्धा पर रख दिये। श्यामसुन्दर की हाथ की काली- काली पाँच-पाँच उंगलियों को देख कर कहने लगीं मुझे सर्पों ने पकड़ लिया है। और वह सर्प भी पाँच-पाँच फन के हैं। प्रभु की उंगलियों में जो मणिमय मुद्रिका प्रकाश कर रही थी। उनको देख कर कहने लगीं कि यह सप॑ भी मणिधर मालूम पड़ते हैं। पर इनका स्पशे मुझे इतना प्यारा क्‍यों लग रहा है। उसी समय एक चतुरा नाम की सखि इस सब रहस्य को ( १७ ) समझ कर कहने लगी राधे राधे मधुसूदन आ गये । बस, इतना सुनते ही राधा जी की सब वेदना समाप्त हो गई। और श्याम सुन्दर से मिलने लगी। यह तन्‍्मय अवस्था थी। ऐसी ही दशा यहाँ वंशी की ध्वनि सुन कर आज गोपियों की हुई है। अलक्षितोद्यमा | किसी को यह ज्ञान नहीं हुआ कि हमारे साथ और भी कोई गोपियाँ चल रही हैं । इन देवियों के वेग से आने के कारण कानों के कुण्डल भी हिल रहे हैं मानो वह आनन्द में झूम रहे हैं। यह ब्रज सुन्दरियाँ श्री कृष्ण के पास आई। श्री शुकदेव जी ने ऐसा नहीं कहा कि श्री कृष्ण के पास गई। इसका कारण यह था कि श्री शुक- देवजी को यह सब लीला दीख रहो है। प्रत्यक्ष श्री कृष्ण के आपको दरशन हो रहे हैं । इसी प्रकार रामजन्म के समय भी आपको श्री रामजी के प्रत्यक्ष दशन हुए थे । तस्यापिभगवानेष साक्षाद्रह्म मयो हरि ॥२०॥। | राजा परीक्षित से जब वंशावली वर्णन कर रहे थे उसमें रघुवंश के वर्णन करते समय कहा था कि दशरथ महाराज के एष यह बालक उत्पन्न हुआ । उस समय प्रत्यक्ष श्री रामजी के दर्शन हो रहे थे । कथा प्रसंग यह चल रहा है कि गोपियाँ मुरली की ध्वनि सुन कर अपने कान्‍्त के समीप में आ गई । दुहन्त्यो भिययुः काश्चिद्दोहं॑ हित्वा समुत्सुकाः । पयोधिश्रित्यसंपावभनुद्वास्या. पराषयुः ॥२१॥। ( १८ ) यह गोपियों का प्रस्थान है। उन्होंने आज श्री कृष्ण प्रेम रसामृत पान करने की इच्छा से अपने ऐहिक एवं पारलौकिक सुख के सभी कारये त्याग दिये । सायंकाल का समय था। एक गोपी गाय दुह्यय रही थी। मुरली के शब्द को सुन कर, पटक कर दोहिनी और मार कोहनी अब किसी की नहीं सुनृगी नाम जाको रोहिनी बह श्याम रूप की बोहनी करने को चल दीनी । एक गोपी सायंकाल के समय गायों को दरिया रांध रही थी | उसने जेसे ही मुरली की ध्वनि सुनो कि वह पटक कर दरिया और फोडकर हड़िया कारी कमरिया बारे समरिया के दशन को चल दीनी । परिवेशयन्त्यस्तद्वित्वा पायपन्त्यः शिशुन्पणः ।॥२२॥ शुश्र घन्त्यः पतीनन्‍्काश्चितु अश्नन्त्यों पास्थभोजनस्त ॥२३॥ एक गोपी अपने पति की सेवा में लग रही थी। अपने पति को भोजन करा रही थी। उसके कानों में श्यामसुन्दर को मुरली की ध्वनि एकदम बरछी सी लगी। वह सेवा शुश्र्‌ षा त्याग कर अपने सच्चे कान्‍्त श्री कृष्ण के दर्शन को चल दीनी । यह वन्ध्वादि त्याग है। काहु करत रसोई त्यागी कोई पति हि जिमावत भागी बालक गोद सम्भारन लीनो - दूध पिवाचत ही तज दोनो ( १८ ) कोई ब्रजा ज्रना अपने बालक को दूध पिला रही थी | उस बंशी की मधुर ध्वनि को सुन कर फेंक कर कटोरी, रूप की चखोरी, गोदी से उतार पृत, वंशी जाकी अवधूत श्री कृष्ण के दर्शन को चल दीनी। एक गोपी भोजन कर रही थी । उसने जो साँवरे की वंशी सुत्ती। वह बेहाल हो गई। मुख का ग्रास मुख में और हाथ का ग्रास हाथ में रहा। वह तो फेंक कर थारी और फोड़ कर झारी,पहर रेशमी पीताम्बर सारी लगो जिसमें गोटा कितारी, नाम जाको क्रृष्ण प्यारी, वह वनवारी मुरारी, उस गिरधारी के दर्शनों को पधारी। यह देहिक त्याग है । कोई कहता है इनके सन्‍्तान थी। तब उसका उत्तर तो यह है कि (न जातु ब्रज देवीनां पतिभिः सह संगमः ।) इन देवियों का पतियों के साथ संगम भी नहीं हुआ। बालक तो जेठ देवरों के थे । यह्‌ गोपियाँ तो भ्र्‌ ति रूपा, ऋषि रूपा थीं। भगवत्सेवा के लिए ही पधारी हैं। कोई शद्ूू। करता है। गोपियाँ जूठे मुंह चल दीं। ( भश्नत्त्यो पास्य भोजनम्‌ ) इसका समाधान तो यह है कि प्रेम में आचार-विचार नहीं देखा जाता । प्रेम्णो विचित्वा परिपाप्युरीरिता प्रेम के न जातपांत प्रेम के न रात दिन प्रेम के न जन्त्र मन्त्र प्रेम के न नेम है प्रेम के न रंग रूप प्रेम के न रंक भूष ( २० ) प्रेम के तो यही नेम लोह और हेम है प्रेम केंन सुख दुःख प्रेम के न हानि लाभ प्रेम के न जीव ताते तीनों काल क्षेम हैं देवी दास देखहु विचार चार युगन मांहि राखो यह प्रन प्रकाश मान प्रेम है ॥ प्रेम की बड़ी विचित्र गति होती है। उसका जानना कठिन है। देखिये ब्रह्माजी भी इस प्रेम की गति को नहीं समझ सके । जबकि बाल कृष्णलाल जी बाल भोजन मण्डली में बेठे थे । सभी शिक्षुगण अपनी-अपनी सामिग्री श्याम सुन्दर को दिखा रहे थे | भेया, देख मेरी माता ने यह मिठाई बनाई हैं। श्री दाम कह रहा है। कृष्ण मेरी माता ने मेवावाटी बनाई है और सुबल कह रहा है मेरी माता ने गुजिया बनाई है। भगवान सभी मित्रों की सामिग्री चाख रहे हैं उस समय प्रभु का हास्य सखा मधु मंगल कहता है भरे कृष्ण तू तो अपनी मिठाई चखा, तेरी माता ने कया बनाया है। उस समय भगवान श्री क्रृष्ण चन्द्र ने एक लडुआ भिकाल कर मधुमंगल को दिखाया। भेया मेरी माता ने लड़॒आ बनाये हैं । भेया मोहे लडुआ ही लड़आ भावें नुकती के नहि बेशन के नहिं माखन के रुचि आवें । भ्ेैया० ([ २१ ) साखन भी सुरभी को भावे कजरी देख रिसावे । भैया० मुक्ता कामरी भेरी गेया दूध की धार बहावें | भैया० या लडुआ कों देख मंगला तेरी जी भर आवें। भैया० गोपाल कृष्ण ने एक लड़ निकाल कर मधमंगल को दिखाया। उसी समय मंगला ने हाथ बढ़ाया। पर प्रभ उस मोंदक को स्वयं अरोग गये । उस समय मध्च॒ मंगल को बड़ा क्षोभ हुआ। उसने भी एक मोदक अपने पात्त में से निकाला और बोला कन्हैया देख यह मखाने का' लड्ड है। भगवान ने लेने को हाथ बढ़ाया । पर मधुमंगल स्वयं उसे खागया और प्रभ को सींग दिखाने लगा। मित्र का यह परिहास भगवान न सह सके और उसको छाती पर चढ़कर उसके मुहका लड्डू निकाल कर स्वयं खा गये । सर्वेमिथो दर्शयन्त्यः स्वस्व भोज्य रुचि पृथक । इस लीला को देख कर ब्रह्मा जी भी आश्चये में पड़ गये। वह इस प्रेम की लीला को क्‍या समझें | वह तो कह रहे हैं यह ईश्वर कैसा है । बालकों की जूठन खा रहा है। प्रेम में आचार- विचार नहीं होता (अन्न तु अताच्रार एवं भाचार) और भी सुनिये माता यशोदा जब अपने नीलमणि को दूध पिलाती थी। उस समय गरम दूध को देख कर प्रभू कहते थे। माता दूध अभी गरम है त्‌ पीकर देख ले उस समय वह स्नेहमयी माता यां ब्रज देवियाँ एक घूट लेकर देखती थी तब प्रभु उसको पीते थे । ( २२ ) कृष्णं सतृष्णमत्युष्ण॑ पायं पायं मुहु म॒ हु लीला मुग्ध॑ पाययन्त्यो दुग्ध॑ सप्रेम गोपिका ॥२४॥ यहाँ आप कहेंगे श्री कृष्ण जूठा दूध-पीते थे यां गोपियां उन को जूठा दूध पिलाती थीं। यह बात नहीं है। यह प्रेम की लीला है और भी सुनिये कदा विम्वोष्ठि ताम्वूल मया तब मुखाम्वुजे अप्यंभाण.. ब्रजाधीश सूनु राच्छिद्य भोक्षते ॥२५॥ ललिता जी कहती हैं। हे विम्बोष्ठि राधे वह दिन कब होगा । जब मैं पान की बीड़ी आपको अपंण करूंगी और श्याम सुन्दर आपके ब्रजाधीश आपके मुख की बीड़ी को स्वयं पान करेंगे। यहाँ क्या कोई विचार की बात कह सकता है यह तो प्रम की लीला है। रामावतार के समय जब श्री रामजी मतंग मुनि के आश्रम में पहुंचे थे । वहाँ एक परम भक्तिमति शबरी भीलनी रहती -थी। वह सदा रामजी के दर्शनों की लालसा करती थी। उसने रामागमन की कामना से बड़ी तैयारी की थी। रामजी आयेंगे बह प्रतिदिन मार्ग का शोधन किया करती थी। सैं कर रही रस्ता साफ आज मेरे रघुवर आयेंगे ( २३ ) रामजी को शुद्ध मीठे फल इकट्ठे किया करती थी। किस बृक्ष का फल मीठा है | इस प्रकार चाख कर, परीक्षा करके अपनी डलिया में सजाती थी। एक दिन श्री रघुनाथजी उसके आश्रम में पधारे। उस शबरी ने रामजी को चार फल अपंण किये श्री रामजी ने भी प्रेम के दिये उन फलों का प्रसाद पाया :-- प्रंप्णा विशिष्ट सुच्छिष्टं भुक्ता फल चतुष्ठय॑, कृता रामेण भक्तानां शबरी कचरी मणिः॥२६॥ प्रेम से चाख कर मीठे-मीठे फल शबरी द्वारा जब रामभद्र फो दिये गये। उस समय श्री रामजी ने शबरी भीलनी को भक्तों की चूड़ामणि बना दिया। इस प्रकार सर्वोत्मा भगवान अपने भक्तों के वज्ीभूत हैं। प्रेम राज्य में यह सब आचार- विचार नहीं चलता। आज किशोरीगण श्री कृष्ण मुख निर्गत वेणु पीयूष का पान करती, जूठे ही मुख आ रही हैं । बहां कोई शद्भा नहीं करनी चाहिये । घबरी के फलों के विषय में पद्म पुराण में भी लिखा है। फलानि नव सुपक्वानि मूलाति मधुरानि च स्वयमाश्वाद्य माधये परीक्ष परिभ्चक्ष थे ।॥२७॥। पश्चान्निवेदयामास राघवाध्यां दृढब्रता फलान्यास्वांद्य काकुत्थ तस्ये सुक्ति परां ददों ॥२८॥ ( २४ ) रामायणों में तो कहीं झूठ फल का प्रसंग देखने में नहीं आता। जसे वाल्मीक तथा तुलसीकृत। भक्तों की लीला सब रहस्यमयी होती हैं । एक भक्त तो अपने प्रवचन में ऐसा कहते थे। कि शबरी ने यह सोचा था कि मैं रामभद्र को फल अपंण करूँगी। पर श्री रामजी कोई भी पदाथे द्विज को (ब्राह्मण) अर्पण किये बिना ग्रहण नहीं करेंगे। अतः यहाँ कोई द्विज भी नहीं है। तो द्विज नामंधारी इन दांतों को ही अर्पण करके फिर रामजी को फल खिलाऊंगी । द्विज ब्राह्मण को कहते हैं। कारण द्वाभ्यां जन्म संस्काराध्या जायते इतिद्विज, जिनके दो जन्म होते हैं। एक माता की कुक्षि से जन्म होता दूसरा जन्म यज्ञोपवीत संस्कार का होना इससे यह द्विज कहलाते हैं। इसी प्रकार पक्षियों को भी द्विज कहते हैं। इनका भी दो प्रकार से जन्म होता है। प्रथम अण्डा के रूप में फिर पक्षी के रूप में। इन दांतों को द्विज कहते हैं। कारण इनके भी दो जन्म होते हैं। एक बार आकर चले जाते हैं। फिर इनका जन्म होता है। शबरी ने इन द्विज नाम धारी दाँतों को ही पहिले फल अरपप॑ण किये थे । फिर श्री रामजी को चार फल दिये। यह प्रेमा भक्ति है। श्रीराम के पास कोई खट्टा फल न चला जाय। यह सब भावुक भक्तों के भाव हैं। (भक्ति प्रियो हि माधव) यह एक भक्ति ग्रन्थ है इसमें इस प्रकार की शद्धा करना अपराध है। यहाँ इतना इसलिये लिखना पड़ा कि इस रसमयी लीला का सभी प्रेम से आश्वादन कर सकें। अभी तो भ्रोपियों के प्रेम की वार्ता बहुत आयेगी भमहिरिव गति प्रेम्ण: स्वभाव कुटला भवेत्‌ । प्रेम की चाल सर्प की तरह स्वाभख्िक टेढ़ी- ( २५ ) होती है। इसलिए प्रेम मार्ग में अनेक शद्भा प्रकट हो जाती है। अब आगे भी गोपियों का आगमन सुनिये :-- लिम्पन्त्यः प्रमृुजन्त्योन्या अंजन्त्यः काश्चलोचने व्यत्यस्त बस्त्राभरणा: काश्चितु कृष्णान्ति क॑ ययुः ॥२८५॥ जो अपना श्यगार कर रहीं उनने अपने श्वूगार छोड़ दिये । एक गोपी काजर लगा रही थी। उप्चने एक आँख में काजर लगाया | उसी समय वंशी धुनि सुनी । वह पटक काजर और प्रेम की चादर एक आंख में अंजन वह दुखभंजन के पास चल दी । आज उत देवियों को वस्त्र आभूषण पहरने का भी ध्यान नहीं रहा हारं श्रोणि तटे मणीन्द्र रसना वक्षोजयोन्‌ पुरे । दोष्णारंगद मडः प्रिपद्स युगले केशेषुनी वेम॑ णि:।। नीवो केशर्माण दधम गद्शोमन्ये प्रमोदोदया । दद्धान्येव परस्परं विदधिरे ह॒षषप्रसादोत्सवर््त्‌ ॥२र्५॥ हार को कमर में पहनने लगीं तथा कंधनी गले में लटका लीनी | हाथों में नूपुर पहरने लगीं तथा परों में कद्भूड़ पहन लिए । इस प्रकार उनको वस्त्रावरण धारण करने का अनुसंधान भी नहीं रहा :-- एक उठ दोरी एक भूल गई पोरी एक राख भर कोरी सुध रही ना तनमें ( २६ ) एक खेले बार एक तन की ना सम्भार एक भूषण उतार चली दामिनी ज्यों घन में एक उजियारी ग्रोपीनाथ ने निहारी एक भई बोरी डोले प्रेम के उमंग में अधमभयो है धड़ी चार ब्रज मण्डल में बाँसुरी बजाय श्याम आज वुन्दावन में ब्रज में चारों ओर प्रेम की नदी उमड़ पड़ी है। उस प्रेम भदी में प्रेमीजन उन लहरों में गोता लगा रहे हैं। मानो जहाँ प्रेमानन्द का कान्‍्त है उसके पास जा रहे हैं। वाजी घर आई वाजी देखवे कों आईं वाजी मुरझाई तान सुन गिरधर की घाजी हंस बोले वाजी करत किलोले बाजी संग लागी डोले सुधिविसारघरकी बाजी ना धरे धीर वाजी ना सम्भारे चीर वाजिन के उठी पीर दाबवानल भर की घाजी कहे वाजी वाजी कहे कहाँ वाजी वाजी कहै वाजी वांसुरी सांवरे सुधर की अब उन प्रेमवती मोपियों को कौन रोक सकता है। परि* धारीजनों का प्रयास भी निष्फल हो गया । ता वार्यभाणा: पतिन्रिः पितृत्रि: ध्रांतृबन्धुभिः । गोविन्दाप हतात्मानः न न्यवर्तन्त मोहिताः ॥३०।॥ जिन देवियों के मत गोविन्द ने हरण कर लिये हैं। वह ( २७ ) किसी के रोके से रुक सकती है। उनके पतियों ने उनको रोका तुम कहाँ जा रही हो कारण पति ही शुभाशुभ के भागी होते हैं । उनके माता-पिताओं ने भी रस्नेहवश रोका था। अपकीति के वश भाइयों ने भी रोका। कुलदोष की श्भूत से कुटुम्बियों ने भी उनको रोका था। पर वह किसी के रोकने से रुकी नहीं । ये स्त्रियां परतन्त्र हैं। इनको कभी स्वतन्त्रता नहीं है । रक्षेत्कन्यां पिता प्रौढ़ां पति: पुत्नस्तु वाद्ध के । अभावे ज्ञातय स्तासां न स्वातन्त्यं क्वचित्स्त्निया: ॥३१॥ कन्या अवस्था में यह माता-पिता के अधीन रहती हैं। युवा' अवस्था में यह पत्ति के आधीन रहती हैं और वृद्धावस्था में पुत्र के आधीन रहती है अभाव में ज्ञाति के वान्धवों की देख रेख में रहती हैं ।इतको कभी स्वतन्त्रता नहीं रहती | पर आज वह किसी के रोकने से नहीं रुकी । एक ब्रजवासी ने अपनी पत्नी को रोक लिया। उसने उस को कोठे में बन्द कर ताला लगा दिया। पर वह गोपी तो अपने शरीर को त्याग कर परमात्मा फे चरणों में लीन हो गई। इसी प्रसंग में राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा-- कृष्णं बिंदु: पर॑ कानत' नतु ब्रह्मतयामुने गुणप्रवाहोपरमस्तासा ग्रुणधियां कथ्थ ॥३२॥ हैं मुने ! यह ब्रज देवियाँ श्री कृष्ण चन्द्र को ब्रह्म स्वरूप ते जानकर उनको अपना कानन्‍्त ही मानती हुई गोपियाँ श्री कृष्ण चन्द्र को केवल कानन्‍त भाव से ही जानती थीं। उनकी वृद्धि भ्री कृष्ण के प्रति ब्रह्म परक नहीं थी | फिर गुणों में उनकी ( रश८ ) बुद्धि को वृत्तियाँ लगने पर भी उनमें गुणों के प्रवाह कैप्ते शान्त हो गये । ब्रज सुन्दरियों का नित्य मण्डल प्रवेश जानते हुए भी परम भागवत राजा परीक्षित जनता के संशय निवृत्ति के लिए ही ऐसा प्रश्न कर रहे हैं। यह महाराज का अज्ञान एवं संशय नहीं है । परम भागवत राजा परीक्षित का नाम ही इसलिये है। श्री कृष्ण परीक्षणात्सवेंषां हृदवृत्ति परीक्षणाद्वा परीक्षित | रस परीक्षणाच्च ॥ इन तीन हेतुओं के कारण ही आपको परीक्षित कहते हैं। और भी सुनिये-- परि सर्वतोभावेन क्षोयते हन्यते दुरित' येन स परीक्षित । स एवं लोके विख्यात: परीक्षिदिति यत्प्रभु: । गर्भेदृष्ठ मनुध्याय्यन्परीक्षेत नरेश्विह ॥३३॥ शजा परी क्षित के इतना कहने पर कितने भाव प्रगट हो रहे हैं। तथा शुकदेव जी कहते हैं। महाराज गोपियों ने भगवान श्री कृष्ण को अपना कान्‍्त ही माता है । कारण सुख का अन्त यहीं होत। है । उनके अतिरिक्त सुख की भाषा और कहाँ मिल सकती है। गोषियों ने प्रभु को ब्रह्म भाव से नहीं माना। कारण ब्रह्मभाव की उपासना मोक्ष देने वाली होती है। इस प्रेम साम्राज्य में मोक्ष की इच्छा नहीं रहती । नवाकपृष्ट ने चपारसेष्ट्य न सार्वभोभ ने रसाधिपत्यं । न योगसिद्धिरपुनर्भंव वा समंजसत्वा विरहय्यकांक्षे ॥३४॥ परात्पर भगवान के परम भक्त न तो स्वर्ग की इच्छा रखते ( रद ) और न ब्रह्मलोक की इच्छा रखते हैं और न उनको वरुण राज्य सिहासन की आवश्यता है और न वह सा्वभौम साम्राज्य पद के लोलुप हैं और तो क्या उनको जन्म मरण एवं योग सिद्धि की भी इच्छा नहीं होती। कारण वह समझते हैं। कि यह सब वस्तु रज प्रधान है। देखिये भक्त की कितनी उच्च कोटि की भावना! है! वह कहता है कि वर्णाश्रम धर्म को यथा विधि सेवन करने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। इसके बाद (ब्रह्मणा सह मुच्यते) इस वाक्य के अनुसार ब्रह्मा के साथ मोक्ष मिलती है। पर यह भी एक पराधीनता है। स्वर्ग मिलने पर वह कहते हैं कि यह भी कालान्तर में नष्ट हो जाती है क्षीण पुण्येमत्ये लोके विशन्ति। तीसरा फल साव॑- भौम सम्राट होने की इच्छा सावेभौम में सब लोकों में यश फंलता है। पर यह भो यज्ञ दानादि सत्कर्म से और यज्ञ दानादि सत्कम धन से होते हैं। और धन में तो राग, द्वं षादि अनेक उपाधि लगी रहती है। इसलिए वह राज्यासन की भी इच्छा नहीं करते । अब रहा वरुण राज्य का' मिलना | यह है तो सुन्दर नीचे के लोकों का आधिपत्य यहाँ सब लोकों से अधिक सुख भोग है। पर वह सब लक्ष्मीसे होते हैं और वह लक्ष्मी आपने बलि से छीन कर इन्द्र कोदे दी है।यह एक विरोघ बढ़ाने वाली बात हो गई। और वह है चंचला । इसलिये मुझे वरुण राज्य की भी इच्छा नहीं । अब रहा योग सिद्धि आपसे वहिमुख योगाभ्यासी जाने क्या-क्या काम कर डालते हैं । इससे वह भी योग भ्रष्ट हो जाते हैं। इससे मुझे इसकी भी इच्छा नहीं। तब क्‍या चाहता है। है सर्वानन्‍्द- स्वरूप मैं तो आपको चाहता हूँ। कि प्रतिदिन आपकी सेवा करता रहूँ। आपकी सेवा रूप भक्ति को छोड़ कर कौन इस प्रपंच में पड़ेगा । यह वचन है भक्‍तराज वृत्रासुर के। इसी प्रकार गोपियों की भावना है। वह कान्‍्त के पास आई हैं । ( ३० ) एक गोपी जिसने शरीर त्यागा है। यह केवल मरने का अध्यवसाय है। अर्थात्‌ उद्योग (श्री कृष्ण ध्यानानु भावेन स्वदेह मन्तर्धानम्‌ नित्य सिद्ध सहशेनालौकिकेन देहेन त॑ प्रापुरिति) सिद्ध गोपी अलौकिक देह से परमात्मा के समीप पहुंच गई । यहाँ मृत्यु नहीं कहना । श्री शुकदेव जी कह रहे हैं योगेश्वर श्रधोक्षण भगवान में ऐसी दंका नहीं करतो चाहिए। परात्पर भगवान की प्राप्ति के पाँच साधन हैं। श्री कृष्ण से प्रेम करता। उनमें भक्ति करना उनसे भय करना। उनसे क्रोध करना। उनसे स्नेह करना | तुम अभी एक कथा सुन चुके हो कि शिश्ुपाल भग- वान से शत्तता करता भी मुक्ति को प्राप्त हो गया। गोपियों का प्रेम था एवं कान्त उसे कहते हैं जहाँ सुख का अन्त होता है। श्री कृष्ण चरणों में ही सुख का अन्त है। अतः आप कान्त हैं । ब्रज ललनाओं के श्री क्ृष्णचन्द्र के पास आने पर भगवान भी उनको देख कर उनका स्वागत करते उनसे कहने लगे। स्वागत वो महाभागाः पियं कि करवाणि वः । .. ब्रजस्थानासयं कश्चिदृत्र तागसन कारणस ॥३५॥ हे बड़भागिनियों ! मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। कहिये और मैं आपका क्या प्रिय करूँ । पर यह बताइये आप सब इस समय कंसे आइयो; कहो ब्रज में तो सब मंगल है । देखो कसी घोर रात्रि का समय है। चारों ओर भयंकर जीव घूम रहे हैं और आपके साथ कोई रक्षक भी नहीं है । अतः आप सब यहाँ से शीघ्र लौट कर अपने स्थानों पर (६ ३१ / जाइये, तुम्हारे माता-पिता पुत्र भाई पति तुमको देख रहे होंगे । आप उनका अपराध मत करो। शीघत्र लौट जाओ। तथा अपने-अपने गृह-गृहस्थ के कामों को सम्भालिये। गोपियाँ बड़े आइचरय्य में पड़ गईं कि श्याम सुन्दर क्या कह रहे हैं। उसी समय प्रभु ने कहा :-- अथवा मद्भिः स्नेहादुभवन्त्यो यस्त्रिताशया: । आगताह्मय प परनंत्र: प्रीयन्ते सथि जन्तवः ॥३६॥ प्रभु अपना भाषण बरावर दे रहे हैं। गोपियों ! यदि तुम मेरे स्नेह वश यहाँ आई हो, तब तो स्नेह तो मुझसे प्राणी मात्र करते हैं। एक गोपी ने कहा, प्रभु तब आप भी उनके साथ कुछ सद्व्यवहार करते हो। प्रभु ने कहा--प्राणि मुझसे प्रीति मात्र करते हैं। मुझसे कुछ याचना नहीं करते। गोपी-अच्छा तो आपसे कोई यावना नहीं करता तो आपको ही कुछ सोच कर उस स्नेह का प्रसाद देना चाहिये। कृष्ण-गोपियों, मैं उनको क्या प्रसाद दे सकता हूँ | उनकी मेरे सामने आते ही सब इच्छा समाप्त हो जाती है। रामावतार के समय विभीषणराज जब रामजी की शरण में आये थे । उस समय न जाने वह क्या-क्या सोच रहे थे। परन्तु श्रीराम के दर्शन होते ही सब कुछ सोचना समाप्त हो गया । उर कछु प्रथम वासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो वही ॥ गोपियो, अब आप समझी भकक्‍त मुझसे कुछ चाहना नहीं करता केवल प्रीयन्तेमयि स्वरूप मात्रे नतु प्रत्युप कारिणी । भक्तजन प्रत्युपकार की दृष्टि से मेरा भजन नहीं करते। पर- ( ३२ ) मात्मा से वही प्रेम करता है। जिनका अन्त:करण समस्त काम- नाओं से निमु क्त हो गया है। कामना वाले अनेक देवताओं की उपासना करते हैं और (अकाम: सर्वे कामों वा मोक्ष काम उदारधीः | एक परात्पर श्री कृष्ण का ही चिन्तवन करते हैं । भगवान बोले ब्रज सुन्दरियो अब अधिक समय यहाँ बिताने का नहीं है। आप सब अपने घर जाकर अपने पतियों की सेवा करिये। भतुः शुश्र षणं स्त्रीणां परोधर्मो ह्यमायया त हन्धूनां च. कल्याण्य: प्रजानां चानु पोषणस्‌ ॥३७॥ निष्कपट भाव से भर्ता को शुश्र॒ुषा करना ही स्त्रियों का - परम धर्म है तथा उनके बन्धुओं का सनन्‍्मान करना एवं प्रजा का पोषण करना ही उनका धर्म है। भर्ता कैसा भी हो वह सदा सेवनीय है। यदि वह खोटे स्वभाव का है यां वह दुर्भागी भाग्य हीन है। यां वह वृद्ध हैं। जड़ रोगी निर्धन होने पर भी उसका परित्याग नहीं करना चाहिये। पति सेवा से ही स्त्रियों की कीति बढ़ती है । सदुभाव रखने वाली सेवा परायणा स्त्रियों के घर में कभी कलह नहीं होता । देवियो--उप पतियों का तो कभी ध्यान ही नहीं करना चाहिये। यह अपकीरतिकारक एवं नरक में डालने वाला है। अच्छी स्त्रियाँ कभी कहीं नहीं भटकती और मेरी पूजा करने की भावना वाली देवियाँ भी अपने घरों में बेठकर पूजा किया करती हैं । ( हे३ ) श्रवणाहर्शनाद्यानान्मयिभावोनु कौर्तनातु । न तथा सन्तिकर्षेण प्रतियातततों ग्रहान्‌ ॥३५॥ मेरी कथाओं का श्रवण करो तथा मेरा दर्शन करो। मेरा ध्यान करो। मेरा कीर्तन करो । यह सब दूर रह कर ही शोभा देता है। मैं पास में रह कर ऐसी साधना करने वाले से प्रसन्न नहीं हूँ । इसलिये आप सब अपने-अपने घरों में जाइये, जाओ- जाओ अपने घरों को जाओ देर मत करो । रात्रि हो रही है । जल्दी यहाँ से जाओ। इति विप्रियमाकर्ण्य गोष्यो गोविन्द भाषितसु विषण्णा भन्‍न संकल्पा श्चिन्तामापुदु रत्यथास्‌ ॥३<।॥। ब्रज देवियाँ मोविन्द के इस प्रकार विप्रिय बचन को सुन कर दुःखी हो गई उनके उत्साह नष्ट हो गये। वह एक बड़ी चिन्ता में पड़ गई। श्याम सुन्दर आज ऐसे कठोर वचन क्यों कह रहे हैं । कृत्वा सुखान्यवशुच: श्वसनेन शुष्यद्‌ विम्वाधराणि चरणेनभुव॑ लिखन्त्य: अस्लोौरूपात्तमसिभिः कुच कुकुमानि तस्थुमर जन्त्य ऊर दुःखभराःस्म तूष्णीमु ॥४०। ब्रज किशो रियों के मह््तक नव गये न जाने कितने भार से दब गई हैं। उनके गरम-गरम श्वास निकलने लगे। ओष्ट ( ३४ ) सूख गये पर के अँगूठे से भूमि को कुरेदने लगी और उनके कजरारे आँसुओं से वस्त्र भीग गये। एकदम चुप होकर बैठ गई। नीचा मुह करने के आचार्यों ने अनेक भाव लिखे हैं कि गोपियों के सस्तक क्यों नव गये । १--उनको लज्जा आगई कि प्रभु ने हमको बुलाया नहीं है हम सब विना बुलाये आई हैं। ः २-समुख तीचा करके देवियाँ यह देख रही हैं कि भगवान के वचन वाण से कहीं यह हमारा कलेजा तो नहीं फट रहा । ३--भगवान के वचन प्रवाह में हम बह न जायें, इसलिये नव गई। नदी में जो पेड़ नव जाते हैं। वह नहीं उखड़ते जो सीधे खड़े रहते हैं। बह नष्ट हो जाते हैं। इसी लिये गोपियाँ नव गई हैं । ४-अथवा' श्याम सुन्दर हमारे शोक सन्तप्त मुख को देखेंगे तो उनको भी दुःख होगा: इसलिये मुख नीचे कर लिये । ५-मुख नीचा' करने का एक अभिप्राय यह भी है कि यह मस्तक आपके सामने है इसे आप चाहो तो रखिये या काट दीजिये । गोपियाँ पैरों से भूमि कुरेदने लगी तात्पयं यह है कि जब स्त्रियों से कोई विषम बात कहता है। तब वह कहती हैं कि हे पृथ्वी मां तू अब फट जा। जिससे हम उसमें समा जाय। अब हमसे यह कठोर वचन सुने नहीं जाते। ऐसा ही सीताजी के कहने पर पृथ्वी फट गई थी और सीता उसमें समा गई थी । ([ ३५ ) मगोपियों के नेत्नों से काले-काले आंसु निकल रहे हैं। इसका पह भाव है कि व्यमिंसुन्दर यह काजल की स्थाई है। इससे बड़े-बड़े विद्वान आपके चरितों को लिखेंगे कि श्यामसुन्दर ने ग्रोपियों के साथ कसा व्यवहार किया था । लिदुर बचन सुन श्याम के युवति उछीं अकुलाय चकित भई मन गुन रहीं मुख कछु वचन न आय जैसे-तेसे सावधान होकर अकुला कर कुछ कहने लगीं । मेंब॑ विभोष्हेति भवाहुगवितु नुशंसं संन्त्यज्य सर्व विषयां स्तव पाद सूलं भक्ता भजस्व दुरवग्रह मात्यजां समा न्देवों यथादि युरुषो भजते भुमुक्ष नु ॥४१॥ हे विभो ! आप हमसे ऐसे कठोर वचन मत कहो | हम संसार की समस्त विषय वासनाओं को त्याग कर आपके चरणों में आई हैं। है दुरवग्रह भाप हमारा त्याग मत्त करो । अपने भक्तों का पालन करो । जिस प्रकार आदि पुरुष मुमुक्षू- जनों का भजन करते हैं। श्यामघुन्दर अभी तो आपने ऐसा कहा कि (प्रियं कि करवाणि) मैं आपका क्‍या प्रिय करूँ और अभी- अभी अपने रचनों को भूल गये । आप सत्य प्रतिन्न हैं जो कहते हो वही करते हो। गोपायेत्स्वात्म योगेने सोध्यं मे ब्रत आहित । यह आपकी ब्रजवासियों की रक्षा' करने की प्रतिज्ञा है। आज अपनी प्रतिज्ञा! को भी भूल गये और हमसे ऐसे कठोर वचन कह रहे हो । ( ३६ एक सखि ने कहा--बहिन, यह आज किसी की बातों में आकर आज अपनी प्रतिज्ञा भूल गये हैं । एक गोपी ने कहा--बहिन, श्यामसुन्दर पर और तो किसी का प्रभाव पड़ नहीं सक्रता। हाँ, यह वंशी ही श्यामसुन्दर को बहकाती रहती है । उत्त समय गोपी जो श्याम को दुरवग्रह कह चुकी है। उसने कहा, हे श्यामसुन्दर आप इस वंशी की बातों में आ गये हैं । याकी श्याम जात नहिं जानी बिन बूझे बिन ही पहिचाने कर बेठे पठरानी । जाकी० बारम्बार लेत गल बेंया सुन सुन मधूरी वानी गांव नाम नहिं या वंशी को याइ कहां सों आनी निज कुल दहत विलम्ब न की नो कौन धर्म ठहरानी। जाकी० सुनहु सूर याकी कछ करनी यह मुख नहिं जात बखानी एयामसुन्दर यह बात सत्य है । तब तो यह ॒वंशी अपने कुल की तरह और भी कुलों का नाश कर सकती । तथा आपके गुणों में लांछत भी लगा सकती है। अतः आप अपने उन्हीं बचनों पर ध्यान दीजिये कि--प्रियं कि करवाणिव: ॥ मैं आपका क्या _ प्रिय करूँ । भगवान श्री कृष्ण चन्द्र ने कहा--गोपियो, गृह सुख त्याग कर तुम यहाँ मेरी चरण सेवा करने आई हो | इसमें तुमको क्या सुख मिलता है। उस समय प्रवीणा सखि ने तत्काल ( ३७ ) उत्तर दिया। श्यामसन्दर आपके श्री चरणों में लिवेणी जी विराजमान है। शो० ली७ नखसित रुचि गंगा कृष्ण. पादप्रयागे तदुपरिशित रोचि भनुजा संगतासीत्‌ ॥४२४ अरुण किरण धारा सात कन्याप्यधस्तातु लसति निखिल सर्वा आीष्टदेयं त्रिवेणे ४४३१ आपके इन चरण नख की ज्योति में त्रिवेणी गंगा, यमुना, पधरस्वती विराजमान है। नख में जो सफेद झलक है। यह श्री गंगा है तथा नखों में नीलम की झलक श्री यमुना है एवं यह नख में जो ललोंई है। यह सरस्वती है। अब अगप ही बताइये । इस त्रिवेणी संगम को छोड़ कर और कहाँ जाय । दयामसुन्दर ने कहा-देवियो, अपने घरों के राज्य अधि- कार को छोड़ कर यहाँ दास्य भाव ग्रहण करने को क्‍यों आई हो। तब एक देवी ने कहा-श्यामसुन्दर जो सुख आपके भजन में है। उस सुख की घर में गन्ध' भी नहीं है। आपका भजन सुखावधि रूप है भौर यह घर गृहस्थ दुःखावधि रूप है । इसलिये हमने यह दास्य भाव स्वीकार किया है। श्यामसुन्दर ने कहा - गेपियो, तुमको परलोक का भी भय नहीं है। उस समय चन्द्रानना कहने लगी हे श्याम ! सुन्दर ( है ) आप जो धर्म की बातें हमारे सामने करते हो यह धर्म संबं आप में ही शोभा देता है। हम तो आपकी एक बात को ही' मानती हैं । सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेक॑ शरण ब्रज अहंत्वां सर्ग पापेध्यों मोक्षयिस्थासि मा शुच्च ॥४४॥ सभी धर्मों को छोड़ कर एक मेरी शरण में आइये। मैं ही सब पापों से बचा दूगा। क्या यह आपका वचन नहीं है । इससे बड़ा धर्म का साधत और दूसरा कया हो सकता है। (त्वय्या राधिते सर्वमाराधितं भवति) आपकी आराधना से ही सबकी आराधना का फल प्राप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में उन पीड़ा के देने वाले पति पुत्नादिक का क्या प्रयोजन है। हैं अरबिन्द नेत्र ! आप हमारे ऊपर कृपा करिये। हमारे पैरों में अब यहाँ से लौटने को शक्ति नहीं है। कारण हमारा चित्त तो आपने हरण कर लिया है। अब आप हमको अपने अधरामृत पूरक से सींचिये। अन्यथा हम इस विरह्ाग्नि में जल कर ध्यान योग से आपके चरण कमलों में प्राप्त हो जायगी। श्यामसुन्दर आपके चरण रज की तो हरिबल्लभा श्री लक्ष्मी जो सदा वक्षस्थल में रहने वाली है। वह भी चाहना करती है। कारण वक्षस्थल एक ही रस हैं और चरण तल सर्व रसाश्नय भूत है । हे ब्रज की पीड़ा हरने वाले हम आपके चरण शरण त्याग कर अब कही नहीं जायगी । तत्वात्मनां पुरुष भूषण देहि दास्ये। तुम्हारी सेवा की आशा करने वाली सदेव आपके सुन्दर मुख कमल के दशेनों की भूख इन सर्खिओं को हे पुरुष भूषण अपना दासस्‍्य भाव देने की अनुकम्पा करिये। वीक्षालकावृतमुखं तब कुण्डल श्री शण्डस्थलाधर सुधं हसितावलोकम्‌ दत्ताभय च भुज दण्ड युगं घिलोक्य वक्ष: श्रियेंक रमण्णं चे भवाम दास्यः ॥०५१॥ है प्रियतम ! आपका यह सुन्दर मुखकमल जिस पर यह दिव्य मनोहर अलकावलि बिथुर रही है। आपके यह कमनीय कपोल जिन पर यह ॒कुण्डल झलक रहे हैं। आपके यह मधुर अधर जो सदा सुधा रस को बरसाने वाले हैं। यह आपकी मनमोहनी चितवन जो मन्द हसन से उल्लसित हो रही है। यह आपकी दोनों भुजायें जो शरणागत को अभय देने वाली है। यह आपका वक्षस्थल जो कि लक्ष्मी जी का क्रीड़ास्थल है जिसे देख कर हम आपकी दासी बन गई हैं । एक ब्रज स॒न्दरी बोली--हे श्यामसुन्दर आपने जो औप- पत्य में छः दोष बतलागे हैं कि-- अध्वस्येभयशस्यं च॑ फल्गुकृच्छ भयावहम जुगुप्सित' च॒ सर्भत्र ओपपत्यं कुलस्रियाः ॥४६।॥। ( ४० ) ओऔपयत्य (१) नरक में ले जाता है । (२) अपयंश कराता है (३) तुच्छ है एवं कष्ट देने वाला है (४) भय देने वाला है तथा सव्वत्न भिन्दित है। पर हमको इनमें भी गुण दीख रहे हैं। कारण आपके भक्त* जन स्वर्ग अपवर्ग तथा नरक इनमें तुल्यार्थदर्शी होते हैं। तथा यह्‌ छे: दोष आपके छे: गुणों को देख कर गुणों में ही फरिणित हो गये हैं । ह क्वचित्‌ मुणी5पि दोषस्यातु । दोषो5पि विधिना गुण: ॥४७॥ कहीं गुणों में भी दोष आ जाते हैं तथा दोषों में गुण भी भा जाते हैं। जैसे वेदाध्ययन ब्राह्मण को गुण हैं तथा अपात्र को दोष है। हे सर्वात्मन्‌ ! हम आपकी दासी हैं। देखो, आपके श्री चरणों को देख कर हमने अस्वरग्य स्वीकार किया है। आपके गण्ड स्थल को देख कर हमने अस्वग्य॑ स्वीकार किया है। आपके गण्डस्थल को देखकर हमने अपयश स्वीकार किया है। आपकी अधर सुधा को देख कर तुच्छता स्वीकार की है। आपकी हँसी भरी चितवन को देखकर कष्ट स्वीकार किया है ! आपके भुजदण्ड देख कर भय स्वीकार किया है तथा आपका वक्षस्थल देख कर निन्‍दा भी स्वीकार कर लीं है। है नाथ ! ' मुखादि दर्शन रूप मूल्य से खरीदी। हम आपकी दासी है। आपका दास्य भाव परम पुरुषार्थ साधक है। हमको आप कोई विभीषिका मत दिखाइये। हम बविप्र पत्नियों की तरह आपकी बातों में नहीं आयेगी। वह विचारी माथुर ब्राह्मणों की पत्नी सव कुछ त्याग कर आपके चरणों में आई थी पर आपने एक ही बात कह कर उन गरींबनियों को भगा दिया कि तुम्हारे पति यज्ञ कर रहे हैं। उनके यज्ञ में विध्त पड़ेगा ( ४१ ) अते: तुमे सब यज्ञ स्थली में लौट जाओं | पर हम आपकी बातों में नहीं आयेंगी। हैं आते बन्धोी ! आपका अवतार ब्रजवासियों की रक्षा के लिए ही हुआ है। विश्व पालन के लिए नहीं । कारण विश्व रक्षाती आप सदा और भी अवतारों में कर सकते हो किन्तु ब्रजवासियों की रक्षा और किसी अवतार में नहीं हो सकती । गोष्ट में आप नृत्तिह रूप धारण करके नहीं आ सकते हो । गौ सेवा तो इस गोपाल स्वरूप से ही हो सकती है। है श्यामसुन्दर अब आप देरी मत करो। अपनी दासियों पर शीघ्र ही अंनुकम्पा करो। जसे गजेन्द्र की टेर सुन कर आप नंगे पेर ही चल दिये। या द्रोपदी परित्राणे या गजेद्धस्य रक्षणे ॥४५॥। वह आज आपकी करुणा कहां चली गई | गजेन्द्र की टेर सुन कर बिना पादुका के ही चल दिये। गंरुण पर उछल कर बैठ गये। वहाँ अपने सेवकों का भी सहारा नहीं लिया। गरुण पर आसन लगाना भी भूल गये । और एक बड़े आश्चर्य की बात उस समय लक्ष्मी को भी साथ नहीं लिया । है भक्त वत्सल ! आज आपकी वह भक्‍त वत्सलता कहाँ गई । ब्रज की वाला आज करुणावतार के सामने विनय कर रही हैं पर श्यामसुन्दर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं । हाय ! वह तो आज बड़े निठुर बन रहे हैं। एक गोपी ने कहा--प्रियतम, हमको आप आज ऐसी शिक्षा क्यों दे रहे हो। हमको यह आपकी नीति अनुकूल नहीं है। जो अपराधी हैं उनको तो आप शिक्षा नहीं देते और जो निरपराधी हैं उनकी उपदेश कर रहे हो। यह शिक्षा तो इस खलमुखवारी मुरली को देनी चाहिए । जो सदा मर्यादा का हरण (६ 8९ ) करने वाली है उसको तो आपने हृदय से लिपटा रकक्‍्खा है। श्याम आप स्त्रियों के हृदय को जानते हुए भी ऐसा कह रहे हैं । परोपदेशे पाण्डित्यम्‌ यह बात संसार में प्रसिद्ध है यह कहने से ही काम नहीं चलेगा। पहले उपदेशक को भी आचरण करना पड़ता है, तब कहीं उपदेश करने का अधिकारी होता है। इसलिये यह आप का उपदेश पति सेवा परायणता का तभी सफल हो सकता है जबकि आप स्त्री का रूप धारण करके पति की सेवा करोगे। शयामजी शरीरधारियों के परम प्रिय आत्मा आप ही हो । अतः प्रेम तो आत्मा से ही किया जाता है और सब प्रेम तो स्वार्थंमय होते हैं। और स्वार्थमय प्रेम ध्यूखला एक न एक दिन टूट ही जाती है ।एक परमात्मा ही विशुद्ध प्रेम के स्थान हैं तथा आनन्द के अधिष्ठाता हैं और सबके बन्ध हैं। इसीलिये हम आपके पास आई हैं । हमारे साथ ऐसा निठुरता का व्यवहार न करिये। निठुर वचन सुन श्यामके युवति उठीं अकुलाय चकित भई सन गुनि रही सुख कछु वचन न आय ब्रज युवतीजन अब मौन हो गई। उनको जो कुछ कहना था, सब कुछ श्यामसुन्दर से निवेदन कर दिया। श्यामसुन्दर भी एक-एक सुन्दरी के मनोभावों को पहचान रहे हैं। विरह विकल चिन्ता अतिवाढी, रहो चित्र पुतली सी काढ़ी। ( ४४३ ) रसिक शिरोमणि श्री श्याम जी ने जो खेल खेला है उसे वह व्र्जांगना समझ न सकी । और यशज्योदानन्दन मन ही मन हँस रहे हैं । विरह॒ बिकल लखि गोपिकन कृपा सिन्धु भगवान उमग उठे दंग भरि लिये बीत वचन सुतर कान श्री शुक्त उवाच इति विल्भवित तासां श्र त्वा योगेश्वरेश्वर: प्रहस्थ. संद्यं गोपी रात्मारामोप्यरी रमतु ॥४<।॥ इस प्रकार व्याकुंल गोपियों को देख कर योगेश्वरेश्वर भगवान श्री कृष्ण प्रसन्‍न होकर उस समाज में रमण रासलीला करने लगे । उसो समय आकाश में दुन्दुभी घोष होने लगा। ाझ ढप ढोल आदि अनेक वाद्य बजने लगे। गोपियों के बीच में श्री राधा कृष्ण नृत्य करने लगे। ब्नजाज्भनाओं के बीच में विराजमान श्री कृष्ण चन्द्र की अत्यन्त शोभा बढ़ रही है । गोपियाँ विप्रलम्भ के कारण अभी तक सर्वेश्वर से दूर खड़ी थीं, अब प्रभु के समीप में आ गई हैं। भगवान भी हँस रहे हैं तारागणों में जैसे चन्द्रमा शोभा देता है। उसी प्रकार आपकी गोपियों में शोभा बढ़ रही है। नृत्यारम्भ में गोपियाँ इस प्रकार गान करने लगी । | ४४ ) जय श्री कृष्ण कमलदल लोचन, दुःख मोचन भृग लोचन राधा । जय श्री ऋष्ण श्याम घन सुन्दर, दिव्य छठा तन गौरी राधा ॥ जय श्री कृष्ण रसौली नागर, रसिक रसीली नागरि राधा ॥ जय श्री कृष्ण छबीलो दूलह, नवल छबीली दुलहन राधा ॥ जय श्री कृष्ण मनोहर मूरति, परम मनोहर मूरति राधा । जय श्री कृष्ण सदा सुखसागर, सहज सदा सुख सिन्धुनि राधा ॥ जय श्री कृष्ण राधिका वल्लभ, कृष्ण वलल्‍लभारसिकन राधा । जय श्री कृष्ण पिया मनमोहन, प्राण प्रिया मनमोहनि राधा ॥ जय श्री कृष्ण लाढ़लो प्रियतम, प्यारी प्रिया .लाढ़िली राधा । जय श्री कृष्ण हरे हरि स्वामो, श्री हरि प्रिया स्वामिनों राधा ॥ श्यामसुन्दर भी उन ब्रज ललनाओं के साथ नाचने लगे तंथा गान करने लगे। वह रस स्थली बड़ी सुहावनी थी। ( ४४५ ) श्री यमुना का पुलिन जहाँ की सुकोमल रेती एवं शीतल मन्द सुगन्ध पवन चल रही थी । परस्पर आलिंगन के लिए भुजायें उठ रहीं थीं। आलिंगन करना, हाथ पकड़ कर नृत्य करता, अलकावलियों का स्पर्श एबं उरू, स्तन, नाभि का स्पर्श करना, हास्य वचन बोलना, क्रीड़ा एवं चितवन भरी हृष्टि से देखना। ऐसे रासेश्वर भगवान हास्य के द्वारा ब्रज सुन्दरीन को प्रेम उद्दीपन कराने लगे। यह अलौकिक प्रेम है। यह प्राकृतिक प्रेम नहीं है । प्राकृतिक प्रेम क्षीण हो जाता है और अलौकिक प्रेम प्रतिदिन बढ़ता है। इस रास महोत्सव में प्रेम रस बढ़ रहा है। रमत रास रस गरोप कुमारी, ननन्‍द नन्‍्दन पिय की सब प्यारी। करत गान कोकिला लज्ञावे, हाव भाव करि पियहि रिशावे | ब्रज देवियों ने तो यह समझ लिया कि इ्यामसुन्दर अब हमारे आधीन हैं । एवं भगवतः कृष्णाल्लव्धमाना सहात्मनः । अत्वानं सेनिरे स्त्रीणां सानिन्योभ्यधिक भुचि ॥५०।। श्री कृष्ण चन्द्र के द्वारा जब ब्रज सुन्दरियों को मान पिला । तब वह अपनपे को सर्वाधिक समझने लगीं, कि अब हमारे बराबर संसार में कोई बड़भागी नहीं है। इस प्रकार उनको गर्व ने दवा लिया और कहने लगीं । ( 9६ ) सुनो श्याम में अति श्रप्त पायो, अब तो मोपे जात न गायो । एक कहत सम्त पांय पिराही, मोपे नृत्य होत अब नाहों ॥ इस प्रकार ब्रज सुन्दिरियों के मनोभाव उनकी गवे भरी वाणी सुन कर प्रभु को हेसी आ गई। परात्पर भगवान भक्तों पर बड़ी कृपा करते हैं। केवल एक गवे किसी का नहीं सह सकते । करत सदां भक्तन सन भाई, एक गब श्यामहि न सुहाई । तासांतत्सोभगमर्र दीक्षमाने च केशवः प्रशमाय प्रसादाय तत्वान्तर घीयत ॥५१॥ गोपियों के इस सौभग मद को देख कर नवलकिशोर उन को शिक्षा देने को उनके गये को दूर करने के हेतु अन्तर्ध्यान हो गये। इसमें कितने ही कारण हैं। ब्रज देवियों के गर्व का खण्डन करना तथा उनके ऊपर कृपा करना, उनको शिक्षा देना एवं छिप कर उनकी लीला देखना कि मेरे वियोग में इनकी कंसी निष्ठा रहती है तथा वियोग के बिना संयोग पुष्ट नहीं होता । इस उद्देश्य से रास रस में विशेष सुखानन्द प्राप्ति के लिए ही आप अन्‍्तर्ध्यान हो गये अथवा कामदेव को भी एक झटका देने के उद्देश्य से आप अन्‍्तहित हो गये। कंसारिरपि संसार। वासना वद्ध श्र खलाम ॥ राधामाधाय ह॒दये । तत्याज ब्रज सुन्दरी: ॥५२॥। ( ४७ ) एक गोपी श्री राधारानी ही है जिनको हृदय से लगा कर ले गये और सभी ब्रज सुन्दरियों को त्याग दिया। यह देखना था कि राधा के हृदय में तो गवे ने स्थान नहीं लिया है। अथवा एक राधा के मनाने से हो गोपियों का मान रह जायगा। राधा को साथ ले लिया अन्यथा कामदेव समझेगा कि परास्त हो गये | मेंदान छोड़ कर भाग गये । गोपियों में बढ़े मद रोग को दूर करने के लिये ही प्रभु अन्तर्ध्यान हो गये। अब इनका गर्व स्वयं नष्ट हो जायेगा। एक गोपी को साथ ले जाना भी गोपियों के गये खण्डन करने का उपाय था । भगवान के अन्तर्ध्यान होने का एक अभिष्राय यह भी प्रतीत होता है कि कामदेव पर विजय को घोषणा करना |. इस श्लोक में भगवान का नाम केशव आया है। केशव नाम के अनेक भाव हैं । यथा :-- प्रशस्ता केशा: सन्त्यस्य केशव: जिनके सुन्दर केश होते हैं। वह केशव है। केशव-जल में शयन करने वाले को केशव कहते हैं। शेष की शय्या बना कर आप जल में ही शयन करते हैं। केशात्र्‌ वपति छिनत्ति रुक्मिण इति केशव: । वालान्‌ कृत्तति छिनत्ति इति केशव: चलेन वद्धातमसाधु कारणं सश्मश्र केश प्रवषन्‌ विरुपयनू । जो केशों के काटने में भी चतुर है अथवा--केशान्‌ वयते ग्रध्नाति इति केशवः ॥ केश सम्भालने में आप अति निषुण हैं। ( ४८ ) राधाजी के केशों का श्वुज्भार प्रभु स्वयं करते हैं। जल में शयन करने से भी आपका नाम केशव हैं। यथा :-- प्रलय॒ जले बालो पट पत्र पुटशायीति। क ब्रह्मा! ईश शंकर व अमृत इस प्रकार ब्रह्मा शद्धूर को भी अमृत दान करने वाले अर्थात्‌ संकटों से रक्षा करने वाले इस लिये केशव कहलाते हैं । केशव: केशिक: केशी इत्यमर: केशी दानव के वध करने से भी आपका केशव नाम पड़ा है। पृथ्वी को केशवाडइः घि प्रिय हैं । वेष्णव तोषिणी आदि में इनके अनेक भाव मिलते हैं। इन भावों से ही आप केशव कहलाते हैं। इस प्रकार केशव भग- वान्‌ गोपियों के देखते ही देखते उनके बीच से अन्‍्तर्ध्यान हो गये । ॥ इति रासक्रीणा वर्णन नाम प्रथमोध्याय:ः | चब रे 5 श्लजल्स्् 0 है हज के ४५६ है 20027: 7 ज्ज्न्स्च्ब्स्त्ल्र्ड ही 9 चि डे >९#+३54 2. 8 3.8 >डस्टेड यू ५. अं डफफिकज फिट सपप रकप १३२३५ विकिक सन ब् आटे ()+-- ०:९९... ५५३.९०.५०००.५..८ ६ ५ 4. 7.3 ५ 37०3-४१ ५ (), 5 जज चचकण क्र करी 2 जा कप श्री रास रासेश्वरी राधा जी द्वितीयो5ध्याय:ः श्री शुक उवाच श्री शुकदेवजी ने कहा--महा राज परीक्षित्‌ ! अन्तहिते भगवति सहसेव क्रजांगना:। अतप्यंस्तमचक्षाणा: करिण्य इब यूथपस्‌ ॥५३॥ भगवान श्री कृष्ण चन्द्र के अन्तर्धान हो जाने पर ब्रज देवियां आइचये करने लगीं कि श्यामसुन्दर अचानक कहाँ चले गये । विरह से सन्तप्त देवियां दु:खी होकर चारों ओर देखने लगीं । जेसे हाथी के बिना हथनियाँ दुःखी हो जाती हैं। उस रात्षि में सर्वाक्षन भगवान को ढूढने लगीं। सभी निक्रुज, बंशीवठ, यमुना तट पर श्यामसुन्दर को देखा पर प्रभु के कहीं दर्शन नहीं हुए | वियोग में कंसी दशा हो जाती है । अंगेषुतापः कृशता, जागर्यालम्ब शुन्यता | अध्तिजंड़ता व्याधि रुन्मादो मूच्छितोमृतिः ।।५४॥ वियोग में किसी को ज्वर हो आता है तथा अपने प्रिय की याद करते-करते शरीर दुर्बंल हो जाता है। रात्रि में निद्रा नहीं आती । ऐसा दीखता है अब कोई सहायक नहीं है। घेय॑ भी नष्ट हो जाता है। शरीर जड़ के समान हो जाता है। अनेक व्याधियां लग जाती हैं। किसी-किसी का तो चित्त चलायमान हो जाता है एवं मूर्च्छा आ जाती हैं तथा अन्त में मृत्यु तक होने का भय रहता है। आज श्री कृष्ण के वियोग में गापियों की सभी अवस्था हो गई हैं। एक मृत्यु को छोड़ कर । ( ४५० ) कारण गोपियों को विश्वास था कि इयामसुन्दर अवश्य दर्शन देंगे। ब्रज देवियां श्यामसुन्दर का एक क्षण भर का भी वियोग नहीं सह सकती थीं। आज प्रभु उनको छोड़ कर चले गये । इससे वह भत्यधिक व्याकुल हो रही हैं । प्रभु को जोर-जोर से पुकार रही हैं। कहीं दूर भी होंगे तो हमारे बचनों को सुन सकेंगे । उन्माद अवस्था में जड़ चेतन का ज्ञान नहीं रहता । इस लिये देवियां व॒क्षों से पूछ रही हैं। बड़े जुगादी वृक्षों से तो ननन्‍्द सूनु का नाम लेकर पूछ रही हैं तथा छोटे ब॒क्षों से रामा- नुज कह कर पूछ रही हैं । दृष्टोब: कश्चिदश्वत्थ, ... प्लक्षन्यप्रोध नो सनः। न्द सुनुर्गंती.. हत्वा, प्रेम हासावलोकने: ॥॥५५॥ कश्चित्कुरबकाशोक, नाग प्रन्नाग चम्पका:। रामानुजो माननीना, मितो दर्पहर स्मितः ॥५६॥ हे पीपर, वह पहिने मन्‍्जु मनोहर नूपुर, जगत उजागर, : प्रेम रस सागर, श्री कृष्ण कहीं देखे होंय तो बताय दे। हे बट, वह पहिरे पीतपट, वह श्याम नट; हम बुलाई वंशीवट, यमुना तट, वह झटपट सटक गयौ, वह नन्‍्द को पुत्र कहीं देखो होय तो बताय दें । हे कुरवक, श्री दामा को सख, मारो जाने वक, वह रामा- नुज कहीं देखो होय तो बत।य दे । । ( ५१ ) हे अशोक, हम सब्र है सशोक, बह विशोक कहीं देखो होय तो बताय दे । हे नाग, हे पुन्नाग, पहिरे वह सुखेपाग, हमारे हृदय में उठाई प्रेम की आग, देखो वृन्दावन बाग, काली नाग के नाथ वेवारों वह रामानुज कहीं देखो होय तो बताय दे। एक गोपी कुरवक के वृक्ष के पास खड़ी थी। दूसरी गोपी ने कहा--बहिन, तू किसके पास खड़ी है, यह हमको कुछ नहीं बतायेगा। इसका तो नाम ही कुरवक है। अर्थात्‌ खोटे वचन बोलने वाला। इससे तो अच्छा है,इस चम्पक से पूछें। यह हित मन हैं, यह कुछ पता बतायग्रेगा। उस समय एक ब्रज सुन्दरी ने कहा--बहिन, यह पुरुष जाति के वृक्ष कुछ भी नहीं बता सकते, यह विचारे स्त्रियों की वेदना को क्‍या समझें, इससे इन स्त्री जाति के व॒क्षों से पूछना चाहिए। कश्चितुलसि कल्याणि, गोविन्द चरण प्रिये । सहत्वालि कुलेविश्रद्‌, दृष्ठस्ते8 तिप्रियो5च्युत: ॥५७॥ गोपियां तुलसी के वृक्ष के पास जाकर बोली--अरी बहिन तुलसी, तू प्रेमानन्द में हुलसी, हम सब प्रेम व्यथा में भुरसी, तेने कहीं श्री कृष्ण देखे होंय तो बताय दे। जब तुलसी ने कोई उत्तर नहीं दिया; तब एक गोपी ते कहा--बहिन, यह हमको नहीं बतायेगी । कारण यह तो हमसे सापत्न भाव रखती है । इस मालंती से पूछो, अरी मालती, धरी जाने डाढ़ पर धरती, वह श्री कृष्ण कहीं देबे होंय तो बताय दे | ( ४२ ) है कोविदार; अंग जाकौ सुकुमार गोपी जनन के हृदय को हार, योगिओं को सार, वह नन्दकुमार कहीं देखो होय तौ बताय दे। गोपियां इस प्रकार पूछती-पुछती थक गयीं पर किसी ने श्यामसुन्दर का पता नहीं दिया । कुज कुज दूढ़त फिरी ढू ढ़त नन्द कुमार, प्राणनाथ पाये नहीं, विकल भई ब्रजवाम । विरहा कुल है गई पूछत वेली वन, को जड़ को चेतन्य, न जानत विरही जन । है मालति, हे जाति, यूथ के सुन दे हित चित, मान हरत, गिरधरनलाल, मनहरन लखे, इत । हे मुक्ताफल वेल धरे मुकता फल माला, देखे नपन विद्ञाल मोहनानन्द के लाला। है चन्दन, दुःखनन्दन, सबकी जडनजुडावहु, नन्दनन्दन जगवन्दन, चन्दन हमहु बतावऊ। हैं अवनी नवनीत चोर चित चोर हमारे, राखे कितेऊ दुराय बताय देऊ प्राण पियारे । जब कहीं श्यामसुन्दर का पता नहीं चला। तब तो देवियों के प्राण संकट में पड़ गये। उसी समय एक ब्रजकिशोरी के कानों में मोर की वाणी सुनाई पड़ी। जिसे सुनकर ब्रजसुन्दरी बोली--अरी बहिन, देखो यह मोर बोल रहा है। यह वृक्ष तो गूगे-बहरे हैं। यह श्यामसुन्दर का क्या पता बतायेंगे। आओ, चलो, इस मोर से पूछेगी। वह मोर नृत्य कर रहा था। गोपियों को अपनी और आता देख कर भागने लगा। गोपी बोलीं--भरे मोर, हम आंयी दोर तू है मन में विभोर, तने नन्‍्दकिशोर देखे हों तो बताय दे ।॥ पर उन पक्षियों ने भी कोई उत्तर नहीं दिया | ( ४५३ .) नूतबत्रियाल पतरसासन कोविदार, जम्बर्क विल्ब व कुलाम्र कदम्वनीप: । येडन्ये परार्थ भवका यसुनोप कूला: । श सन्तु कृष्ण पदवी रहितात्मनांनः ॥५८॥ हे रसाल, हे प्रियाल, हे पनस हे असन, हे कोविदार, हे जामुन, है अकं, हे विल्व, हे वकुल, हे कदम्ब, हे नीप, हें जमुना तट निवासी परोपकारी वक्षो, तुम्हारा जन्म तो केवल परामथ के लिए ही हुआ है | देखो दयालुओ, श्री कृष्ण के बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हमको भटकते-भटकते सारी रात बीत चली है। हम शक्तिहीन हो गई हैं। कृपा करके उनका मार्ग बताओ। वह किस मार्ग से गये हैं । कि ते कृत' क्षिति तपो, बत फेशवांडल्ि । स्पर्शोत्सवोत्पुलकितांग, रहेविभासि ॥५॥ कुछ देबियां तो पृथ्वी की बड़ाई करने लगीं। बहिन, इस पृथ्वी ने कौन सा तप किया है। यह तो इन वक्षों से भी अधिक भाग्यशालिनी है। इसको तो सदा केशव भगवान का चरण स्पश मिलता है। और इसी से यह इतनी हषित है। इसका रोम-रोम आनन्द में खिल रहा है। सखियो, यह तृणलता आदि से रोमांच प्रकट कर रही है। इसका उल्लास श्री कृष्ण के चरण स्पशे के ही कारण है। है प्रथ्वी, वामनावतार में तुमको ही अपने चरणों से श्यामसुन्दर ने नापा है। वराह रूप में भी तुम्हारा अंग संग हुआ है। यही कारण है। तुम्हारी प्रसन्‍तता का। उस समय एक ब्रज सन्दरी उन विशाल जुगादी वृक्षों के भूमि की ओर झकाव को देखकर कहने लगी। हे तरुवरो, श्यामसुन्दर की तुलसी की माला में ऐसी सुगन्ध हैं ( ५४ ) कि उसकी गन्ध के लोभी मतवारे भौरे प्रत्येक क्षण उसे पर मडराते ही रहते हैं। देखो उनके एक हाथ में तो लीला कमल है। और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसी राधा के कन्धे पर रक्‍्खा होगा । वह हमारे श्यामसुन्दर इधर से ही निकल कर गये हैं। और तुम सबने प्रणाम किया है, इसीलिये झुक रहे हो और श्याम ने भी तुम्हारी वन्दना का स्वागत किया है। इसलिये तुम सब इतने प्रसन्‍न चित्त हो रहे हो। भब आप जल्दी बताओ, श्यामसुन्दर किस मार्ग से गये हैं। उसी समय एक सखी कहने लगी-देखो यह वन लता ब॒क्षों को भुजपाश में बांध कर आलिगन कर रही है। दूसरी ने कहा-इससे क्या, देखो इनके शरीर में जो पुलक है, रोमांच हैं। यह तो श्याम थुन्दर के नख स्पर्श से हो रही है। ह इत्युन्मत बच्चो गोप्य:, कृष्णान्वेषण कातराः। लीला भगवत स्तास्ता, ह्यनु चक्र, स्तदात्मिक्ता: ॥६०७ भगवान्‌ श्री कृष्ण चन्द्र के ढूढ़ने में गोपियों को कैसा परि- श्रम हो रहा है। व्याकुल होकर श्री यमुना किनारे पर आकर बेठ गईं। अब कोई साधन नहीं रहा। श्री यमुना की लहरों को देख रही हैं। उस समय एक सुन्दरी ने कहा--बहिन, यह यमुना बड़ी प्रफुल्लित हो रही है। श्यामसुन्दर के दर्शन से इसका मन आल्हादित हो रहा है। देखो, इसका हृदय कंसी हिलोर ले रहा है और बहिन, यह बड़ी उदारमना भी है। यह दाता दुखियाओं के दुःख हरण करने वाली है। यह थी कृष्ण की प्रेमिन है। इसका अवतार प्राणीन के उद्धार के लिए हुआ है। एक सखि ने एक वार्ता सुनाई। देखो, एक समय यमराज बहिन यसुना के धर आये थे। यमुना ने भाई ( ४५५ ) का बड़ी संन्‍्मान किया। तंब यमराज बोले--बहिन, मैं तुझसे प्रसन्‍न हूँ, मांगले आज जो तेरी इच्छा हो सो । यमुना ने कहा-- भेया, जो कोई मुझमें समान करे वह कभी नरकों में ते जाय। इतना सुन कर यमराज बोले बहिन तेने तो मुझे नष्ट करने का वरदान मांगा है। तेने यह भी नहीं सोचा कि इससे तो भेया का नाम मिट जायगा | तब यमुना ने कहा--अच्छा तो भेया, कारतिक शुक्ला २ में मध्याहन के समय जो स्नान करे बह यमलोक में न जाय। यमराज ने कहा-अस्तु। तभी से यमद्वितीया का स्तान प्रसिद्ध है। गोपी ने कहा--बहिन, देखा घमुता का परोपकार, इससे अधिक और कौन परोपकारी हो सकता है। यह हमको श्री कृष्ण का पता जरूर बतायेगी। इस प्रकार बात करती चह देवियां यमृतरा किनारे पहुंच गई । है यमुने, है भानुनन्दनी; हे कृष्णप्रिया, हे गोलोक वासिनी, हे दीनजनोद्धारिणी, श्री कृष्ण कहीं देखे होंथ तो बताय दें। पर यमुना ने कोई उत्तर नहीं दिया। बह अपनी मत्त चाल से चज्ती ही रही । तब एक गोपी बोली--बहिन, यह नहीं बतायेगी, कारण यह भी तो हमसे सौत का भाव रखती है । हाँ, बहिन जो अपने भाई की सगी नहीं, वह दूसरों का क्या उपकार करेगी। अब मोषियों ने श्री कृष्ण प्राप्ति का अन्तिम साधन सोचा कि-- लोला भगवतस्तास्ता, हातु चक्कर स्तदात्मिकाः ॥६१॥ ( ४६ ) प्रियानुकरण ही लीला कहलाता है। अपने प्रियतम का अनुक रण ही लीला है। रासलीला आपने देखी ही है । 'कस्याश्चित्पूतनायन्त्या, कृष्णायन्त्यपिवत्स्तनम । तोकायित्वा रुदत्यन्या, पदाहुझछकटायती म्‌ ॥६२॥ एक गोपी पूतना बन कर आई, एक गोपी कृष्ण रूप बनी, वह ॒पूतना लीला का अनुकरण कर रही है। अब तृणावत्ते लीला कर रही हैं। जिस प्रकार ब्रज़ में वकासुर आया, उसका प्रभु ने वध किया था, उसका अनुकरण कर रही हैं। चार गोपी चहुर तान कर खड़ी हो गईं। एक गोपी क्रृष्ण रूप से कहती हैं-“-भरे, ब्रजवासियों, अब तुम बात वर्षा से मत डरो। मैंने यह छल्र लगा दिया है. यह गोव्धेन लीला है । अब उलूखल बन्धन लीला का अनुकरण करने लगीं। यह गोपियाँ इतनी व्याकुल हो रही हैं कि इनको आगे पीछे की लीलाओं का भी ध्यान नहीं है। गोपियों को इस लीलानुकरण का फल जल्दी ही मिल गया। ह पदानि व्यक्तमेतानि, नरन्‍द सुनोमेहात्मन: । लक्ष्यन्ते हिध्वजास्भोज, वज्ञांकुश यवादिभिः ॥६३॥ एक गोपी कहने लगौ--अरी बहिन, देखो, देखो यह नन्द- सूनु के चरण चिन्ह हैं, वह यहीं कहीं छिप रहे हैं। ध्वजा-कमल ( ४५७ ॥ वचञ्चअ--अंकुश-यव यह सब श्री कृष्ण के ही चरण चिन्हों में विराजमान हैं। एक गोपी ने कहा--बह्िन, यह राधाजी के चरण चिन्ह हैं। वह दोनों साथ-साथ ही हैं। अब जल्दी मिल जायेंगे। अरे मनश्चिन्तय राधिकाया, वामे पदांगुष्ठ तले यवादि। प्रदेशिनी सन्धित ऊध््गरिवा, माकुचितामा चरणाेमेव ॥६४॥ इस प्रकार भ्री राधारानी के भी चरण बिन्हों का वर्णन किया है । सखीजन चरण चिन्हों को देख रही हैं। साथ-साथ राधाजी के चरण चिन्हों को देख कर तो उनको बड़ा आश्चये हो रहा है ! अनयाए्राधितोनूनं भगवान्‌ हरिरीश्वर: | यन्‍्तो विहाय गोविन्दः प्रीतो याम तयद्रह: ॥६५॥। यह निश्चित हैं कि इस गोपी ने भगवान ईश्वर हरि की आराधना की है। इसलिये भगवान हम सबको छोड़ कर इसे एकान्त में ले गये हैं। रास महोत्सव के समय गोपियाँ चार यूथों में बटी हुई थीं। जेप्ते--स्वपक्षीय, प्रतिपक्षीय, तटस्थ पक्षोय सुहृद्‌ पक्षीय । आसां चतुविधा भेदः सर्वासां ब्रज सुझ्रावां सा स्वपक्ष: सुहत्पक्षः तदस्थ: प्रति पक्षकः ॥६६॥ ( ध्रूद ) अनया$राघितोनूनं भगवान्‌ हरिरीश्वर: । यह पद स्वपक्षीय गीपियों द्वारा कहा गया है और यन्नोविहाय गोविन्द: प्रीतोया- मनयद्रह:। यह पद विपक्षीयं गोपियों का कहा हुआ है । वस्तुतः भगवान में सबके एक से ही भाव हैं। इस इलोक में भी कृष्ण के लिये तीन छाब्दों में प्रयोग किया है। प्रथम भगवान यह नाम षडेद्वर्य सम्पन्तनता को व्यक्त करता है। दूसरा हरि--इसका आशय है श्री कृष्ण समस्त दु:खों का हरण करने की शक्ति रखते हैं। तीसरा! ईश्वर--इससे प्रतीत होता है कि श्री कृष्ण भक्तों की रक्षा के लिये. समर्थ है। चौथा नाम इसमें गोविन्द आता है जो सर्वोपरि है। गां विन्दतीति गोविन्द: प्राप्त काम धनन्‍वश्वये:। यथा :--- गोविन्दी नाम: विख्यातो। वंधाकरंण “देवता।॥ गां' परां: विन्‍्दते यस्मातु । गोविन्दो नाम वे हरिः ॥६७॥ गोविन्द नाम की अद्भुत महिमा है। सबसे प्यारा नाम है । इसका अर्थ है प्राप्त कार्म धेन्वेइ्बर्यं: जिनके पास सदा कामधेनु रहती है। एक ब्रजसुन्दरी ने: कंहा--सखि, यदि गोविन्द एक सखि को अपने साथ ले गये. हैं तो क्या हुआ | गोविन्द के पास रक्खा ही कया है जो उस -गोपीं को दे देंगे। दूसरी सखि ने कहा--बहिन, उनके पास सदा कामधेनु रहती है। जो सब कुछ द सकते हैं। देख प्रत्यक्ष में उस योपी को बृन्दावन का आधिपत्य दे दिया है । ह उृन्दावनाधिपत्य॑ तु वत्त तस्ये प्रतुंष्यता। कृष्णेनाग्यत्न देवोति राधा वृन्दावने बने ॥६८। का, यह क्या श्यामसुन्दर की कम कृपा है जो राधा को व॒न्दा- वेनाधीश्वरी बना दिया है। राधा के अनेक नाम है पर वृन्दावन में तो राधा ही राधा है । देवकी मथधुरायां पाताले परसेश्वरी : चित्रकटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्य मिवासिनों ॥६<॥ वाराणस्यां विशालाक्षी विमला पुरुषोत्तमे । रुक्मिणी द्वारवत्यांतु राधा वन्दावने बने ॥॥७०॥ सखि- मथुरा में इसका देवकी ताम है। पाताल में इसका परमेश्वरी नाम है। चित्नकट में इसका सीता नाम है। विन्ध्या- चल में इसे विन्ध्य निवासिनी कहते हैं। वाराणसी में इनका विशालाक्षी नाम है। पुरुषोत्तम तीर्थ में इसको विमला कहते हैं। और द्वारका में रुक्मिणी कहते हैं। पर वृन्दावन में तो इनको राधा ही कहते हैं । अब यहाँ शंक्रा होती है कि वृन्दावन में कितना बड़ा प्रभाव है । राधाजी का पर भागवत कारने तो उनका स्पष्ट नाम तक नहीं लिखा। इसका क्‍या कारण हो सकता है जब नाम ही नहीं तब तो उनका रास में होना ही सम्भव नहीं । ऐसी बात नहीं सोचनी चाहिए। हम पहिले ही समाधान कर चुके हैं। और भी सुनिये, जहाँ श्री ऋष्ण हैं वहाँ राधा है तथा जहाँ राधा है वहाँ श्री कृष्ण हैं । आनन्द धाम श्री कृष्ण एवं उनकी आहलादिनी शक्ति राधा अभिन्‍न हैं और एक हो हैं। श्री कृष्ण राधा स्वरूप हैं और राधा कृष्ण स्वरूप है। किसी भी समय, किसी भी देश में, किसी भी निमित्त से, किसी भी रूप में, किसी भी अवस्था ( ६० ) में, राधाकृष्ण का पाथिक्य सम्भव नहीं है। एक ही वस्तु के दो नाम हैं । एक ही अर्थ के दो शब्द है। श्री कृष्ण की लीला राधा की लीला एवं राधा की लीला श्री कृष्ण की लीला है। श्रीमद्भागवत में राधा नहीं है या उनका नाम नहीं है। ऐसा कहना स्वेथा असंगत है । भगवान श्री कृष्ण सच्चिनन्द स्वरूप हैं उनकी सत्‌ शक्ति से कमलीला और चित्‌ शक्ति से ज्ञान लीला तथा आनन्द शक्ति से विहार लीला सम्पन्न होती हैं। आनन्द प्रधान विहार लीला का जहाँ वर्णन हो। वहाँ श्री राधा लीला का वर्णन न हो। यह असंगत है। ग्रन्थराज में अनेक स्थलों में श्री राधाजी का वर्णन किया है। जैसे (आत्मारामोः्प्यरीमत्‌) आत्मा शब्द से राधा ही हैं। आत्मातु राधिका तस्य । तयेव रसणादसौ ॥। आत्माराम इति प्रोक्तो । ऋषिभिग्‌ ढ़ वेदिभिः ॥७१॥। हमारे महाप्रभु का नाम आत्माराम है। आत्मा श्री राधाजी हैं। उनमें रमण करने वाले आत्मा राम इसीलिए आपको राधारमण लाल जी कहते हैं। रसिक शिरोमणि रस राज श्री कृष्ण जब अवतार धारण करते हैं। तब राधा जी के साथ ही अवतार धारण करते हैं। तथा श्रातृवत्सल बलराम को भो साथ लाते हैं वृहद्रौत्तमीय के आधार पर। बलदेवजी के प्रति श्री कृष्ण के वचन हैं । सत्वः तत्व पर त्व चव॒ तत्वत्रयमहं किल । ब्वितत्व रूपिणी सापि राधिका भमसवहलभा ॥७२॥ ६ 52%.) अरे भेया बलदेव, सत्व तत्व त्रवितत्व यह तत्वव्य मैं हूँ । इसी प्रकार तत्बत्नय रूपा राधा है। प्रकृत: पर एवाहूं सापि मच्छक्ति रूपिणो । सान्विक॑ रूपसास्थाय पूर्णोंहं ब्रह्मचित्पर: ॥७३॥ प्रकृति से पर मैं हुँ और राधिका मेरी शक्ति रूपा है। सात्विक रूप में स्थित होकर पूर्ण ब्रह्म चेतन्य पर मैं हूँ । ब्रह्मण: प्राथितः सम्यग्‌ सम्भवाभि युगे युगे । तया साध त्वया सार्ध नाशाय देवताद हामु ॥७४॥ जब-जब ब्रह्मा जी प्रार्थना करते हैं। तब-तब युग-युग में, मैं अवतार लेता हू। उस समय भया, मैं राधा के साथ तथा आपके साथ ही अवतार लेता हूँ। प्रयोजन यह है कि उन देवताओं के द्रोही असुरों के मारने के लिए। यह वचन सिद्ध करता है कि प्रभु राधा के बिना अवतार नहीं लेते। इसलिये ऐसा तो कोई कह नहीं सकता कि रास में राधाजी नहीं हैं । अब प्रश्न उठता है उनके स्पष्ट नाम को जिसका समाधान हम पहिले ही कर चुके हैं । भगवान वेद ब्यास तथा शुकदेवजी अत्यन्त ज्ञान सम्पन्त थे। आपकी बुद्धि अगाध थी। वह किस उद्देश्य से क्या कह _ रहे हैं तथा कौन सा काम कर रहे हैं। यह तो वे ही जान सकते हैं। या उनके कृपा पात्र ही जान सकते हैं। दूसरा कौन समझ सकता है। इन रहस्य की बातों को। हाँ यही हो सकता है कि आपको उनकी प्रत्यक्ष लीलाओं के दशन हो रहे हैं। इसलिए नाम लेना सम्भव नहीं समझा । ( अनया5राधितोनूनम्‌ ) इस श्लोक में भी आंग्रुल्य निर्देश है। राधा जी उनको प्रत्यक्ष दीख रही है। इसीलिए कहा है यह ( ६२ ) जो कृष्ण के साथ जा रही है इसने निश्चय हरि का पूजन किया है। शुकदेवजी महाराज राधारानी के महल में लौलाशुक (तोता) के रूप में रहते थे। और उनकी लीलाओं में ही मुग्ध रहते थे | श्रीजी के अनन्य लीला प्रेमी वक्‍ता थे। और परीक्षित भी वैसा ही अनन्य प्रेमी श्रोता था। दोनों ही भाव में मग्न थे ।. श्री राधाजी का नाम तारक का भी तारक है। श्री कृष्ण नाम से भी अधिक गोपनीय है। कारण राधा नाम भगवान श्री कृष्ण के जीवन का आधार है और आत्मा है। एक दित नारद जी पावंती से एकान्त में बोले--देवि, यह तुम्हारे स्वामी शद्भूर भगवान अमर विद्या जानते हैं। जिससे यह अमर हैं। और तुमको एक दिन यह मृत्यु सतायेगी। अतः आप उनसे अमर विद्या क्‍यों नहीं सीखती हो । यह घुन कर पावंती जी ने एक दिन शंकर जी से प्रार्थना की स्वामी -आप अपनी अमर विद्या सिस्ताइये । पर श्भूर जी ने स्वीकृति नहीं दी । इस पर पावंती जी हुठ करने लगी। स्वामी मैं तो अन्न जल जब ग्रहण करूंगी । जब आप अपनी अमर विद्या सुनायेंगे। पावंती जी के हठाग्रह को देख कर भोलानाथ ने एकान्‍न्त में बैठ कर अपनी अमर विद्या सती जी को सुनाई। पावंती तो उस विद्या को सुनते-सुनते सो गई। पर वहाँ सद्यो जात एक- पक्षी उस विद्या को सुन कर अमर हो गया। जब वह पक्षी वहां से उठने लगा । तब उसके पंखों को फड़फड़ाहट से शंकर जी के नेत्न खल गये | उनने देखा एक पक्षो उनके अमर ज्ञान को लेकर उड़ रहा है। उस समय शज्भूर जी ने उसका पीछा किया तथा अपना शूल लेकर उस चोर के मारने को चल की दिये | ऐसी अवस्था में वह ज्ञानी पक्षी सूक्ष्म रूप धारण करके व्यास जी के घर में घुस गया और उनकी पत्नी के गर्भ में छिप कर बेठ गया था। भगवान शँकर ने व्यास जी से कहा-व्यास जी एक चोर हमारे अमर ज्ञान को चुराकर आपके घर में ““स गया है। मैं उस चोर को मारे बिना नहीं रहूँगा । कारण वह मेरी अमर विद्या को अनधिकारियों को सुनायेगा । व्यास जी हँस कर बोले प्रभु इसीलिए लोग आपको भोला- नाथ कहते हैं। जब अमर विद्या उसको मिल गई है। तब आप केसे मार सकेगे। वहाँ इस ज्ञानी शुक बालक का जन्म हुआ। इस वृत्तान्त से शुकदेबजी पूर्ण अवगत थे। मुझे जो ज्ञान प्राप्त हुआ है इसको और भी लोग चुरा सकते हैं। इस लिये आप पूरा राधा नाम ही उच्चारण नहीं करते थे। केवल रा-रा-रा हो कहा करते थे। जिससे कोई चोरी ही न कर सके । ऐसी गोपनीय वस्तु को आप कैसे किसी को बता सकते हैं। हो सकता है इसीलिये आपने राधा नाम का उच्चारण नहीं किया । वास्तव में राधा नाम ही भागवत का सार है। (राधया माधवों देवों माधवेनेव राधिका विश्राजन्ते जनेश्वा ) अस्या: श्र तेश्वायमर्थ --राधययात वशी करोति कृष्णममति राधा। यद्वा-राध्यते आराध्यते श्री क्ृष्णेनेति राधा । यद्वा--राधयति साधयति सबे कार्य रब भक्तानामिति ( ६४ ) राधा | यद्वा-राधयति आराधयति कृष्ण मिति राधा तया राधया सह माधव: श्री कृष्णो देव: सन्‌ विश्राजते दीव्यति नित्य॑ क्रीडति तथा स नित्य विहारी इत्यथ:। (अनया5उराधितो नूनम्‌) इसी में सब कुछ बता दिया है। माधव नाम भी श्री कृष्ण जी का राधा नाम से पड़ा है। मा नाम राधा उनके धव नाम पति उनको माधव कहते हैं। माधव के माधवपन में राधा ही कारण है। प्रजा के कारण ही प्रजापति कहलाता है। जेसे जठाओं से ही तपस्वी कहलाता उसो प्रक्रार राधा से ही माधव का माधवपना ज्ञात होता है । राधया माधवो देव:। हेतो तृतीया वेयाकरणियौ के मत से फल की सिद्धि करने के योग्य पदार्थ को हेतु कहते हैं। श्री राधा के साथ ही माधव देव सेवनीय है। बिना राधा के श्री कृष्ण की सेवा में दोष लगता है। इसलिये राधा कष्ण ही सेवनीय है । सम्मोहन तन्त्र में लिखा है कि :-- गोर तेजो बिता यस्तु श्याम तेजः समचंयेत्‌ । जयेद्वाध्यायते वापि सभवेत्‌ पातकी शिवे ॥७१॥ गौर तेज के बिना श्याम तेज की पूजा केसे की जाय। जहाँ राधा वहाँ श्री कृष्ण । (तस्मा ज्योतिरभूद्द धा राधा माधव रूपकम्‌) भगवान में एक भक्त वात्सल्य ऐसा! प्रबल है कि एक ही ज्योति राधा माधव रूप से प्रगट हुईं है । (अथर्वबेदे राधातपिन्यपि) येयं॑ राधा यस्य कृष्णो रसाव्धि । ईहश्चेकः क्रोडनार्थ द्विधाभुतु ॥७३॥ ( ६५ ) श्री राधा और क्ृष्ण यह प्रेम सागर है तथा एक देह है क्रोणा करने को दो देह धारण किये हैं। तदुक्त माचार्ये: । विना कृष्णं राधा व्यथयति समनन्‍्तान्मसम सनो । बिना राधा कृष्णो5प्पहह्‌ सखि मां चिक्‍ल बयति ॥ जतिः सा में माभृत क्षणदपि न यत्र क्षण दुहों । युगेनाक्ष्णोलोह्ञाम झुगपदनयों वक़॒ शशिनों ॥छ७।॥ भक्तराज कहते हैं बिना राधा के कृष्ण नाम लेने में मेरे मन में व्यथा होती है। इसी प्रकार बिना कृष्ण के रावा नाम लेने में मेरा हृदय दुःखी होता है। मेरा जन्म क्षण मात्र को भी ऐसे स्थान पर न हो जहाँ उत्सव पूरक राधा कष्ण न हों । मैं एक साथ ही दोनों का मुखचन्द्र अपने नेत्र युगल से आश्वादित करता रहूँ। श्री राधाजी का सौभाग्यातिशय और सर्वोत्तमता आदि वाराह राधा कुण्ड के प्रसज्ग में देखने को मिलता है। यथा राधा प्रिया विष्णो स्तस्या: कुण्ड तथा प्रिय । सर्व गोपीषु सेवेका विष्णोरत्यन्तवल्लभा ॥७४॥ ब्रजराज नन्‍्दन को जेसी राधा प्यारी है। उसी प्रकार राधाकुण्ड भी प्यारा' लगता है। तभी तो आपने गांव का नाम भी राधाकुण्ड रक्‍्खा है। जहाँ राधाकुण्ड कृष्ण कुण्ड दोनों ही समान रूप से हैं। किन्तु यहाँ राधाजी का ही सौभाग्यातिशय दिखाया है। जो कि गाँव का नाम राधाकुण्ड ही प्रसिद्ध है। बृहद्रोतमीय तम्त्रे :-- देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका पर देबता सब लक्ष्मीमयी सर्व कान्तिः सम्मोहिनी प्रा वराभयकरा ध्येया सेविता सब देवता ॥७६। ( ६६ ) दीव्यतीति देवी क्रीड़ा करने वाली, कृष्णमयी कृष्ण में अनुराग करने वाली, पर देवता पर श्री कष्ण उनकी देवता, अत्यन्त प्रीति का विपय श्री राधिका जी है। लक्ष्मी पद से रुक्मिप्यादि का एक राधिका ही आधार होने से सर्व लक्ष्मी मयी है तथा सब कान्तियों को मोहित करने वाली अतः सर्व कान्ति- मयी, सम्मोहिनी, दोनों हस्त कमलों से अपने परम भक्तों को वर एवं अभय देने वाली सब देवताओं से ध्यान: करने योग्य पराशक्ति शाधिका जी ही सेवनीय हैं। इसलिये राधा कृष्ण ही कहा जाता है । आदो राधां समुच्चार्य क्ृष्णं पश्चाहदेद धः व्यतिक़से ब्रह्म ह॒त्यां लभते नात्र संशयः ॥७७॥ प्रथम राधा का नाम उच्चारण करना पीछे कृष्ण नाम कहना । अन्यथा ब्रह्म हत्या जैसे दोष का भागी बनता है। जगनन्‍साता च॒ प्रकृति पुरुषश्च जगत्विता । गरोयसी त्रिजगतां माता शतगुणः पितुः ॥७८।॥ जगन्माता प्रकृति कहलाती हैं तथा पुरुष जगत्पिता कह- लाता है। किन्तु संसार में माता-पिता से शतगुणी श्रष्ठ होती है । इसलिए माता को पहिले स्मरण किया जाता है। राधा कृष्णेति गौरी शेत्येव॑ शब्द: श्र्‌ तो श्र्‌ तः । कृष्ण राधेश गौरोति लोके न च कदावन ॥७र४६॥ सवंत्र राधा कृष्ण गौरीशंकर ही कहा जाता है। कृष्ण राधा यां ईश गोरी कोई नहीं कहता । राधा कहने से ही कृष्ण स्वयं आ जाते हैं । रा शब्दोच्चारणा देव स्फीतो भवति साधवः। धा शब्दोच्चारतः पश्चाद्धावत्येव न संशय: ॥८०।॥ ( ६७ ) 'रा' शब्द के कहते ही माधव दयादे हो जाते हैं और 'था' के उच्चारण करते ही माधव भक्तों के पीछे-पीछे चले आते हैं। यह है राधा” नाम का प्रभाव । अनया$राधितो नून॑ भगवान्‌ हरिरीश्वरः इस श्लोक में ही हमारे आचाये वर्य राधा नाम का इस प्रकार दर्शन कराते हैं। है अनया अति महीयस्या तया सह वृर्थव साम्याहुंकारादनीति मत्य: नून॑ हरिरयं राधित: राधामितः प्राप्त: शकनन्‍्धादित्वात्पर रूपम॒ अनेन राधयात्याराधयतीति राधेति नाम करणत्वं दशितम्‌। इस प्रकार सात श्लोक राधा! नाम के मुझे प्राप्त हुए हैं । गोपियाँ कह रही हैं कि राधा ने ही सच्ची आराघना की है। जो श्यामघुन्दर इसको ही एकान्त स्थान में ले गये हैं। इसकी कोई बड़ी साधना है| सर्वेश्वर महाप्रभू की प्राप्ति की आराधना प्रणाली यही एक गोपी जानती है । गोपियाँ उन चरण चिन्हों को देखती आगे श्री श्यामशुन्दर की देखने चल दी । इस प्रकार की व्याख्या रासपंचाध्यायी के प्रत्येक श्लोकों पर संग्रह किया है । उसका प्रकाशन कोई भगवान का प्यारा ही करा सकता है। प्रसंग यह चल रहा है कि ब्रज देवियाँ राधा क्षुष्ण के चरण चिन्हों को देखती हुईं। उनके दर्शनों की लालसा से आगे बढ़ रही हैं उस समय एक किशोरी ने कहा :-- तस्या अमूनि नः क्षोभें, कुव॑न्त्युच्चे: पद्ानियत्‌ । येकापहत्य. गोपीना, रहो भकतेच्युताधरस्‌ ॥।८१॥। एक मोपी ने कहा-बहिन, इस गोप रमणी के चरण ( ६८ ) चिन्ह हमको अत्यधिक क्षोभ्॒ उत्पन्न कर रहे हैं यह गोपी गोविन्द को कहीं एकान्त में ले जाकर उनके अधरामृत का पान कर रही है। खज्भधार रस का स्वभाव है परस्पर वेयक्ष होना। चन्द्रा- वलि श्री राधाजी के सौन्दय को देख कर लजाती थी, उनका मन उदास हो जाता था, उस समय उनकी प्रधान सखी पदमा भी लज्जित हो जाती थी जो कि सदा चन्द्रावलि का गौरव बढ़ाना चाहती थी। त्रपते विलोक्य पद्मा ललिते राधां विनाप्यलंकारं। तदल मणिमस्तय मंडल मसनन्‍्डत रचना प्रयासेन ॥८२॥॥ पद्माजी कहती थी कि राधा का सौन्दर्य तो बिना अलं- कार के ही बिखर रहा है। यदि इसका श्ज्भार कर दिया जाय तब तो कहना ही क्‍या है। हाथ मेरी सखि चन्द्रावलि का ऐसा सौन्दर्य नहीं है पर पदुमाजी बड़ी धैर्य धराने वाली थीं वह अपनी चन्द्रावलि को इस प्रकार धैर्य धराती थी । मा चन्द्रावलि मलिना भव, राधाया समीक्ष सोभाग्यं । ज्योतिविदोषषि विद्य:, कृष्णे किलवलवती तारा ह'८्हा। हे चन्द्रावलि तू श्री राधा के परम सौभाग्य को देख कर अपना मन मलीन मत करे। देख ज्योतिषियों ने भी कहा है-- - कृष्ण पक्ष में तारा बलवानहों जाती है। इसी प्रकार इस राधा तारा का भी श्री कृष्ण पर प्रभाव पड़ रहा है । बज में गोपियों के दो यूथ रहते थे। एक राधा रानी का | ६ ) यूथ, जिनको प्रधान सखि ललिता थी। दूसरा चन्द्रावलि का यूथ इनकी यूथपा पदमा थी । दोनों ही यूथ की गोपियां स्यामसुन्दर से स्नेह करती थीं। पर उनमें थोड़ा सा अन्तर था कारण स्नेह दो प्रकार का होता है । एक शुद्ध घृत स्नेह तथा' दूसरा शुद्ध मधु स्नेह । अनन्त कोटि गोपीषु यायाः: शुद्धघृतस्नेहवत्यः त्तासु एकंव चर्द्रावलिमुख्या: अन्यास्तत्सख्यः पद्मादयः तासु एव श्री राधा ललितादीनां दषो नान्‍्यत्न स्वंथा भाव वंजात्या- भावात्‌ । एवं चन्द्रावली पद्मादीनां शुद्धमधुस्नेहवतीषु श्री राधा ललितादिषु एव नान्यत्र । तात्पयं यह है चन्द्रावली का छुद्ध घृत स्नेह था और श्री राधाजोी का शुद्ध मधू स्नेह था इन दोनों यूथों में परस्पर वेपक्ष था। ब्रज के दोनों यूथों का स्नेह घृत स्नेह एवं मधु स्नेह दोनों एक से एक बढ़ कर थे। यथा :-- ततल्नमदीयामयों घृत स्नेह: इति भावनामय: श्री कृष्ण मेरे हैं यह भावनामय शुद्ध घृत स्नेह कहलाता है । जो कि चन्द्रावली के यूथ का माननीय था। तदीयामयों भाव: मधू्‌ स्नेह: श्री कृष्ण की मैं हैँ। इस भावना का स्नेह शुद्ध मधु स्नेह कहलाता है। जो कि श्री राधाजी के यूथ का माननीय था। (यह उज्वल नीलमणि के भाव हैं )। श्री ऋष्ण मेरे हैं यहाँ थोड़ा अहं भाव आ जाता है और श्री कृष्ण की मैं हूँ यहाँ दास भाव प्रतीत होता है। यह सब देवियां श्यामसुन्दर से स्नेह करती थीं। असंख्य ( ७० ) गोपियां थीं! और उनके अनन्त भाव थे, पर सबका श्री कृष्ण चन्द्र से अनन्य प्रेम था। इस वियोगावस्था में सब एक होकर अपने कान्‍्त को दूढ़ रही हैं । देवियां उन चरण चिन्हों के सहारे एक निकुज के समीप पहुंच गईं। किन्तु यहाँ तो एक और ही आएचये देखा कि केवल श्री बिहारी जी के चरण चिन्ह तो दीख रहे हैं। श्री बिहारिन जी के चरणों के दशंन नहीं हो रहे। उस समय प्रमुखा सखि ने कहा। ब्रज रानियों मुझे तो ऐसा आभास हो रहा है कि श्यामसुन्दर ने अपनी श्यामा को कन्धे पर बेठाया है (इसी से श्यामसुन्दर के चरण इस रज में दब रहे हैं। चलो आगे चलो । एक सखि ने कहा--बहिन, यहाँ तो श्यामसुन्दर के आधे-आधे व4॑जे दीख रहे हैं। यह क्या कारण है। प्रमुखा ने बताया--यहाँ श्यामसुन्दर ने उचचक कर फूल तोड़े हैं ऐसा शञान होता है। हमारे श्यामसुन्दर वेणी ग्रुथना अच्छा जानते हैं। सर्वेश्वरी राधा के केश बन्धन के लिए आपने पुष्प चयन किये हैं । सखि वह सर्व गुण सम्पन्न है। अब तो सखियां एक निकुज के द्वार पर पहुंच गई । इसी निकुज में श्यामसुन्दर छिप रहे थे। गोपियों का जो कोलाहल सुना सोई प्रभु प्रियाज़ी का हाथ पकड़ कर भागने लगे । राधाजी के केशों से फूल बिखर रहे हैं, वह श्यामसुन्दर के साथ दौड़ी जा रही हैं। गोप देवियां निकुज में आकर वहाँ की शोभा देख कर आइचर्य में पड़ गई और कहने लगीं । केश प्रसाधन त्वत्न कामिन्या: कामिना कृतस । तानि चूडयता काम्तासुपविष्टसिह प्र बस ॥८४॥ ( ७१ ) अरी बहिन, यहां तो श्यामसुन्दर ने कामिनी राधा के केश सम्भाले हैं देखो, इस चौकी पर प्रभु बेठे हैं और प्रियाजी नोचे बठी हैं, सामने यह दर्पण रक्‍्खा है, इसमें प्रिया का मुखकमल दीखता रहे | यह फूलों के गुच्छे, यह टूठे हुए फूल, यह अन्य श्रुद्धार सामिग्री, इसका प्रमाण है अब इश्यामसुन्दर कहीं आस- पास में ही मित्र जायेंगे । आगे चलकर श्री वृषभानु राजदुलारी राधा मान करके बेठ गई और कहने लगीं--श्यामसुन्दर, अब मेरी श्ञक्ति आगे चलने की नहीं है। श्यामसुन्दर कह रहे हैं-राधे, यह मान करने का समय नहीं है। जल्दी चलो, देखो, गोपियां पास में ही आ रही हैं! राधाजी कह रही हैं-- ततो गत्वा बनो दृशं । दृप्ता केशव मप्रवीतु । न पारपे5ह॑ चलितु । नप मां यत्र ते सनः ।८५॥ प्रभु अब मैं एक पैर भी नहीं चल सकती । आपको तो गोचारण में चलने का अभ्यास है। हम तो कभी अपनी हवेली से बाहर नहीं निकली । देखो, मेरे पर की अंगुलियों में कांटे छिद रहे हैं, पांयन में छाले पड़ गये हैं, अब नहीं चला जाता । जेसे आप समझो वेसे मुझें ले चलो। राधा का मान देख कर वह गर्वापहारी भगवान बोले--प्रिये देखो गोपियां आ गईं; आओ, मैं तुमको कन्धा पर बंठा कर ले चलू गा। ज॑से ही प्रियाजी ने कन्धे पर चढ़ने को पर ऊँचा किया कि श्यामसुन्दर अन्तर्धान हो गये। और प्रियाजी भूमि में गिर पड़ीं। उसी समय गोपियां आ गईं और कहने लगीं--बहिन, देखो यह सामने बिजली चमक रही है या सोने की लता है या कोई अबला है। ( ७२ ) यहाँ एक शंका होती है कि श्री राधा तो प्रभु को सबसे अधिक प्यारी है उसको प्रभु ने कैसे जंगल में छोड़ दिया। और राधाजी ने भी आज इतना मान क्यों दिखाया। इसका समा- धान यह है कि राधाजी ने तो यह सोचा था कि मेरी सखियां रात्रि में भटक रही हैं, कष्ट पा रही हैं । मैं मान करके बैठ जाऊँगी । तब सबका यहाँ मिलान हो जायगा । श्री कृष्णजी ने यह सोचा कि यदि हम दोनों यहाँ एक साथ मिलेंगे तो गोपियाँ राधा को दोष देंगी कि यही श्री क्रृष्ण को ले आई है। मैं इनको भी छोड़ दूगा तब कहेंगी वह कृष्ण किसी का सगा नहीं है वह बड़ा निर्मोही है। यह कारण राधाजी के छोड़ने का है। श्यामसन्दर ने एक ओर प्रिया का गव दूर किया दूसरी और प्रिया का दोष दूर किया । ब्रज किशोरीगण राधारानी को सावधान कर रही हैं । कोई जल लेकर आई कोई पुष्प लेकर आई और कोई पंखा से वयार कर रही है जब ब्रजराज रानी की मूर्च्छा दूर हुई तब वह बड़ी करुणा पूवक रोने लगीं । हा नाथ रसण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज। वास्‍्थास्ते कृपणाया में सखे दर्शय सन्निधिसु ॥८६॥ हा नाथ--रक्षा करने वाले। रमगगप्रेष्ठ सख देने वाले । महाभूज--आपकी भुजाओं से ही प्राण रक्षा सम्भव है, सखे-- सखा भाव सर्वोपरि है। हम तो आपकी दासी हैं तथा अत्यन्त कृपणा दुखिया हैं हमको जल्‍दी दर्शन दो । हा ताथ हा रसणवर्य दयेक सिन्धो, क्वासि प्रिय प्रकट यस्य विलोकन मे । आवेद्भि यद्यपि भवन्तमिहैव सन्‍्त', दूरे इशोरित तथाप्यसुभिदु नोति ॥८७!॥ ( ७३ ) हा नाथ ! हा रमणवर्य, हा दया के सागर आप कहाँ हो; आप कहाँ हो है प्रिय मैं जानती हूँ आप मुझे छोड़ कर कहीं दूर नहीं जायेंगे । पर प्रियतम यह आपके वियोग की अग्नि के धू'आ' से मेरी हृष्टि ही धू धली हो गई है इससे आपके दर्शन नहीं हो रहे हैं | हे प्रियतम, अब आप जल्दी दशेन दो । वियोग में हे नाथ के स्थान पर बार-बार हा नाथ ! हा प्रिय! हा करुणा के सागर ! ऐसे ही शब्द निकल रहे हैं यह अति खेद के द्योतक हैं। हे प्रियतम, अब यह प्राण देह से सब सम्बन्ध छोड़ चुके हैं। जब तक यह शरीर से प्रथक न हो उसके पहिले मुझे दर्शन दीजिये | यह प्राण अब आपके दर्शनों की इच्छा से ही रुक रहे हैं । श्यामसुन्दर क्या मुझसे कोई अपराध बन गया है :-- नेवापराद्ध सिह किचिद्‌ गये हेतो । नेबेहितः चम इदं हृषितोसियेन । तासां समागसन घुल बिलंम्बहेतो, नो पारयेच्चलितुमित्य बर्द न गर्वात्‌ ॥5८॥ राजाधिराज मैंने तो कोई आपका ऐसा अपशध कभी नहीं किया | जो आप रुष्ट होकर मुझे ऐसी राक्नि में इस घोर वन में अक्रेली छोड़ कर चले गये । हां, इतना तो मैंने आपसे अवश्य कहा था किशन पारयेहं चलितु' नयमां यत्र ते मनः) मुझसे अब चला नहीं जाता आप जैसे समझें बसे मुझे ले चलें। श्यामसुन्दर, यह बात भी मैंने गये में आकर नहीं कही, यह तो मैंने इसलिये कही कि मेरी सखि आपके वियोग से दुःखी मारी-मारी फिर रही हैं । मैं ( ७४ ) बैठ जाऊँगी तो सबका यहाँ मिलन हो जायगा। मैंने गव में ऐसी कोई बात नहीं कही । इतना कहते-कहते प्रियाजी फिर कहने लगीं । धिक्‌ यामिनी न रसते यदि यामनीशो, घिक्‌ पद्मनी न पश्यति पद्मनीशों । घिक्‌ जीवित यदि बिलेहति जीवतेशो, भुक्तः प्रियेण हि गुणो गुणतामुपेति ॥|८॥ हे प्राणनाथ, जिस रात्रि में चन्द्रोदय नहीं होता उस रात्ि को धिक्कार है । बिना सूर्य के कमल को धिकक्‍कार है। प्राण नाथ के बिना इस जीवन को धिक्कार है। हे प्राणनाथ, आप भोगो वही रात्री है और वही गुण हैं बाकी सब व्यर्थ है। प्यारे, ज॑सी मैं हुँ बसी आपकी । मेरे अवगुणों को हृदय से बिसार कर अब आप शीघ्र दर्शन देने की कृपा करो । आप कहाँ हो, आप कहाँ हो। ऐसा कहते ही मच्छित हो गई। थोड़ी सी देर में ही कहने लगीं । अहो गन्ध, यह वनमाला की कहाँ से आ रही है। अहो स्पर्श: यह मेरे शिर पर किसका हाथ रक्‍्खा है। अहो रूप, मैं यह क्‍या देख रही हूँ। श्यामसुन्दर आा गये । अहो, शब्द, यह मुरली की ध्वनि आ रही है। अहो रस, श्री कृष्ण के आगमन की बात सुन कर आप भी श्री कृष्ण कृष्ण कहने लगीं। यह है बियोग में स्वरूप रहित शब्दादि तन्मात्ना । इस प्रकार इस तनन्‍्मय भाव में प्रियाजी का मनोभाव एक भक्त द्वारा :-- उरझी लट सुरझाय जारे मोहन मेरे कर मह॒दी लगी है (७५ 9) शिर सों साड़ी सरक गई मोहन ताऊ ए नेक उढ़ाय जारे मोहन भालकी वेंदी गिर गई प्यारे ताकों नेक लगाय जारे मोहन लीलाधर प्रभु गुण नहीं भूलोगी, वोडीऊ और खबाय जारे मोहन, लट उरझो सुरझाय जारे मोहन बस इतना कहते-कहते आपको निद्रा आ गई एकदम अचेत अवस्था हो गई। कुछ समय में जहाँ चेतना आई अरे मैं सो गई श्यामसुन्दर चले गये । इस भाव का एक भक्त का वचन :-- नींद तोय बेच जो कोई ग्राहक होय । आये मोहन फिर गये अ गना मैं वेरिन गई सोय | कहा कहूँ कछ बस नहीं मेरो पायो धन दियो खोय। धोंधी के प्रभु फिर जो मिले हों राखोंगी नयन संजोय । वस्तुतः वियोग में ऐसी ही दशा हो जाती है । हे रास रस नृत्य में कुशल आप कहाँ हो। सखियों की जीवन रक्षा की औषधि सार आप कहाँ हो। हा विधाता, तुझे धिक्‍कार है यह बड़े खैद की बात है कैसा वियोग । वृषभानु राजदुलारी की ऐसी अवस्था देखकर सखियों ने अपने अन्यान्य उपचारों से उनको सावधान कर लिया। तथा ( ७६ ) सब वातें राधाजी से पूछी । राधाजी ने सभी बात उनको स्पष्ट बता दी यह सुन कर गोपियों को यह कहना पड़ा बहिन श्यामसुन्दर बड़े निर्मोही हैं। वह किसी के सगे नहीं हैं । एक सखि बोली--हां बहिन, उनने वलि का सर्वस्व हरण करके उसे पाताल में भगा दिया। एक ने कहा--हां बहिन, अपने स्वार्थ से वाली को मार डाला। तब एक गोपी ने कहा बहिन ऐसी बात नहीं है। र्यामसुन्दर तो सबका उपकार करते हैं। उनका दण्ड भी शिक्षाप्रद है। व्रजदेवियों ने अपने उपचारों से प्रियाजी को सावधान कर लिया उनको धेये धरा कर कहने लगी । राधे तू क्‍यों इतनी विमना हो रही है :-- केली कलासु कुशला नगरे घुरारे । आभोर पंकज दृुशः कतिवान सन्ति ॥ 'राधेत्वयाभमहदकारि तयो यदेष । दामोदर त्वयि परं परमानुरागः ॥८५॥ स्वश्वर भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जल्दी ही कृपा करेंगे। कारण इस आभीर नगरी में केली कला में निपुण कितनी ही गोपियां है पर श्री राधे--श्री दामोदर का तेरे ही ऊपर विशेष अनुराग है। यह तेरी तपस्या का फल है। हे वृषभानुनन्दनी राधे आप अपने मुख चन्द्र को इन मलीन नयनाम्बुज से मलिन मत करो। भगवान श्री कृष्ण चन्द्र करुणा के सागर हैं वह शीघ्र ही करुणा करेंगे। उनके दर्शन जल्दी ही मिलेंगे । हमें पूर्ण बिश्वास है । सलिनं नथनांजनास्वुरत्ति सुखचन्द्र करभोरु मा कुरु ( ७७ ) करुणा वरुणा लयो हरि स्त्वयि भूयः करुणां विधार्स्पात ॥र्5०॥ श्री राधा सर्वेश्वरी बोली हे सहचरी मैं क्या बताऊँ। मेरा मुख सूखता जा रहा है मेरी जंघा जड़ के समान होती जा रही है चलने की शक्ति नहीं है। हृदय बार-बार कांपता है। विरह की उष्णता के कारण कपोलों से पसीना झर रहे हैं । शुष्यति मुख मूरु युगं पुष्पति जड़ता प्रवेपते हुदयं, स्विद्यति कपोल पाली सखि वनमाली किमालोकि। ऐसी अवस्था देख कर सहुचरी उनको धेय॑ धरा रही हैं । द राधे तू बड़ भागिनी कोन ठपस्या कीन्‍न्ह तीन लोक तारन तरन सो तेरे आधीन एक सुन्दरी ने कहा-- राधा राधा कहेते भव वाधा मिद जाय कोट जन्म की आपदा राधा नाम लिये सो जांय राधे तुम क्यों इतनी दुःखी हो रही हो श्यामसुन्दर जल्दी ही आयेंगे वह आसपास में ही छिप रहे हैं। सभी सखियां राधाजी की सेवा में लग गई। तथा उनको साथ में लेकर हयामसुन्दर को देखने लगीं। ( छप ) दृष्ट: क्वाधि सम्ताधवो प्रिय सखीमादाय कांचिद गतः । सर्वा एवहि बंचिता सबि वयं सोन्वेषणीयो यदि ॥६१॥ हंद्बें गच्छत इत्युदीयं सहसा राधां गृहीत्वा करे। . गोपी वेश धरो निकु ज कुहरं प्राप्तो हरिः पातु नः ॥5२॥ कंसी सुन्दर भक्तों की बाणी है। भगवान श्यामसुन्दर कहाँ हैं गोपियाँ कह रही हैं हमको प्रभु ने ठग लिया है । हम उनको ढूढ़े बिना न रहेंगी। दो-दो गोपियां उनको देख रही हैं कुछ राधाजी के साथ उनको देख रही हैं। भगवान कहाँ जायेंगे यहीं-कहों लीलाधर छिप कर गोपियों को देख रहे हैं। या गोपियों में ही गोपी रूप धारण करके घूम रहे हैं। ततो विशनु बन॑ चन्द्र ज्योत्स्ता यावद्विभाव्यते । तमः प्रविष्टभालभ्य ततो निवदश्तुः स्त्रियः ॥5३3॥ ब्रज देवियां श्री राधा के साथ वन-वन में ब्रजलताओं से पूछ रही हैं पर कोई उत्तर नहीं मिला। अन्त में कुछ दयालु सहृदय लताओं ने पूछा गोपियों तुम ऐसी रात्रि में कैसी मत- वाली सी भटक रहो हो गोपियां बोली अरी, वन सम्पदाओं तुमने हमारे चोर को छुपा लिया है ब्रजलता-तुम्हारे चोर का क्‍या नाम है गोपियां--अरी उसका नाम और पहचान बताना बहुत कठिन है। क्‍योंकि चोर का नाम बताना तथा उसका परिचय देना अपने शिर पर विपत्ति लेना है। इससे चोर का नाम लेना ठीक नहीं । पर हम इतना कह सकती है कि वह तुमको भी तड़फाता है। समझ गई । बताओ कहीं देखा ही तो । वनलता एकदम चौंक उठी और बोली बहिन क्या उस धूते की बात कर रही हो गोपियो--उस शठ की चर्चा मत ( ७छडे ) करो वह तो सबको इसो प्रकार सताता है। गोपियां बोली-- बहिन, हम इसीलिए तो पूछ रही हैं कि कहीं मिल जाय तो उसे पकड़ कर अच्छी शिक्षा देंगी। देखो, राधाजी की कैसी दशा हो रही है । बनलता बोली--बहिन, वह कहीं गह्वर कुज में किसी के साथ छिप रहा है। उसका तो विलास मय जीवन है। उसका पीछा करोगी तो तुम भी अपनी मान मर्यादा खो बेठोगी । गोपियां झुझला कर बोलीं कि वह मान मर्यादा भाड़ में जाय हमें तो अपने चोर को ढूढ़ना है। तुमने अभी कहा वह किसी गहवर कुज में किसी करे साथ छिप रहा है। वह किसी के साथ नहीं छिप सकता । उस पर तो एक मात्र राधा का ही प्रभाव पड़ सकता है। और राधा तो हमारे साथ है। वनलता--तदि ऐसा है फिर राधा को छोड़ कर क्‍यों छिप गया । गोपियाँ बहिन यह तो चोर की आदत होती है। चोरी करके छिप जाना और चोरी की वस्तु का छिप कर ही स्वाद लेता है। वनलता बोली--बहिन, वह ऐसी कौन सी वस्तु चुरा कर ले गया जिसके लिए तुम इतनी व्याकुल हो रही हो । गोपियां--अरी वनलताओ, उसने तो हमारा सब कुछ हरण कर लिया है। वह हमारा मनियां चुरा कर ले गया है। उसके बिना हमको एक क्षण के लिए भी चेन नहीं है। बहिन, जब तक हम अपना महारत्न न ले लेंगी । तब तक हम उसका पीछा नहीं छोड़ेंगी। और यह बात वह जानता है इसी से छप रहा है उसकी मुह दिखाने की शक्ति नहीं है। ( ८० ) वनलता बोली--मैं समझ गई तुम वृथा ही किसी को चोरी का कलंक लगा रही हो । वास्तव में तुमने अपना मनिया उस पर स्वयं न्‍्योछावर कर दिया है। गोपियां--अरी लताओ, तुम तो वास्तव में जड़ हो जो जड़ की सी बातें कर रही हो। तुम यह नहीं जानती कि मन को खोंचा जाता है। हृदय के अन्धकार से भी चुराया जाता है । देखो तुम भी तो उसे धूते और शठ बता रही। तुम्हें भी तो बह धोखा दे गया है । तरुलता अच्छा, गोपियो एक बात बताओ उसने और भी कहीं चोरी की है या तुम्हारे ही घर चोरी की है। गोपियां-बहिन, वह तो स्वभाव का हो चोर है। उसने न जाने कितनों का माल मारा है। वह तो चोरों का राजा है। उसने तो न जाने कितने झामशथ्यंशालियों के तत्वांश चुराये हैं। हमारी जेंसी अवलाओं को हृदय धन चुराना उसके लिए कौनसी बड़ी बात है। वनलता बोली--बहिन तब तो ऐसे बड़े शक्तिशाली का पता लगाना कठिन है। गोपियां--अरी बावरी, वह हमसे बच कर कहाँ जायगा। हम उसका अवश्य पता लगायेंगी। वह अब जायेगा कहाँ। रस्ता का थका कहों न कहीं सो रहा होगा। वनलता--यदि वह किसी गिरि कन्दरा में होगा तो, तुम्हें उसका दू ढ़ता कटिन हो जायगा। गोपियाँ--अरी उसका अंग ही ऐसा प्रकाशमान है कि वह छिप ही नहीं सकता। ( 5१ ) वनलता कह रही है देवियों ! तुम हमारी बात मानो इस समय यहाँ से लौट जाओ, रात हो गई है। बलवान जन्‍्तुओं के आने का समय हो आया है। यहाँ से चली जाओ। तुम . अबला हो अभी तो तुमने अपना मन खोया है। अब रात में तुम्हारा तन भी लुट जायेगा । गोपियाँ - हँस कर बोलों--वनलता वास्तव में तू जड़ लता ही रही हम समझती हैं कि तेरा उस नटखठ के साथ अधिक सम्पर्क रहा है। इससे तैरी जड़ता बढ़ गई है। देख हमारे साथ में राधा है इसके तो कटाक्ष मात्र से ही वह स्वयं जड़ हो जाता है। राधा के तो दर्शन मात्न से ही वह मूच्छित हो जाता है । वह या उसके साथी वनचर हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। हम तो उसे दूढ़ कर ही विश्राम लेगी। तू उसका पता बता या मत बता । जब तक वह हमारा चुराया धन हमको वापस न कर देगा। हम उसका पीछा नहीं छोड़ेंगी । हमारी यहु साधना कम नहीं हो सकती। सखियां वनलताओं से बातचीत कर रही है पर श्री राधाजी की हृदय वेदना बढ़ती ही जा रही है। तब उस समय ललिताजी ने कहा राधे तुम इतनी अधीर क्‍यों हो रही है। देखो, जिनके साथ रहने से तुमको बुराई मिलती है । तथापि तरलाशये न वितरतासि को दुगप्रहः फिर भी तू अपने हठ से टलती नहीं यह कौन सा दुराग्रह है। राधाजी ने कहा-- करोमि सखि कि धते । दतुज बेरि वंशी रबे ॥ सनागंपि सनो ने में । सुमुखि प्रै्थ॑ मालम्बते ॥5७॥ ( ८२ ) है सुमखि सखि मैं क्या करू दनुजदमन श्री कृष्ण की थोड़ी सी वंशी ध्वनि को सुनते ही मेरा मन क़िचिन्मात्न भी धैर्य धारण नहीं करता। और यदि श्री कृष्ण से प्रीति करने से मेरी अकी्ति होती है तो होने दो इसकी मुझे चिन्ता नहीं पर सखि तू सत्य सत्य कहना कि उस वंशी ध्वनि को सुनकर तेरी क्या दशा होती है फिर मेरे चित्त के दोष ग्रुण बताना ललिता जी बोलीं-- सत्य जल्पसि दुश्सहा खल गिर: । सत्य॑ कुल निर्मल 0 सत्य निष्करुणोःप्पयं सहचर । सत्यं सुद्रे सरितु ॥र5५॥ तत्सव॑ सखि विस्मरामि झटति । श्रोत्रातिथिर्जायते ॥ चेदुन्माद सुकुन्द मंजु सुरली। निस्वान रागोद्‌ गतिः ॥4६॥ राधे तू कहती तो सत्य है और मैं भी जानती हूँ कि दुष्टों की वाणी असटटय है और हमारा कुल अति निमल है यह भी सत्य है और बहिन प्रेमास्पद श्री कृष्ण भी दयाहीन हैं तथापि उसको मधुर मुरली की ध्वनि सुनकर मैं सब भूल जाती हूँ। यहां देवी चन्द्रानना इनकी बात सुर रही है। वह सभी सखियों को सावधान करके कहने लगी--बहनो एक उपाय मुझे श्री कृष्णजी के मिलने का मिल रहा है। सभी सखियां सावधान होकर सुनने लगी। देखो एक समय नारद जी ने नारायण से पूछा था। प्रभो ! आपका रहने का स्थान कौन सा है। तब प्रभु ने नारद को बताया -- ( 5 ) नाह बसामि बेकुन्ठे । योगिनां हृदये तथा ॥ सद्भक्ताः यत्र गायन्ति । तत्न तिष्ठासि नारदः ॥४७।। भगवान ने कहा-देवर्ष, न तो मैं बेकुण्ठ में रहता हूँ और नमैं योगियों के हृदय में रहता हूँ। मैं तो जहाँ मेरे भक्त मेरा ग्रुणानुवाद गान करते हैं। वहाँ रहता हूँ। इसीलिए तो कथा सत्संग का इतना बड़ा माहात्ग्य है। ऐसे प्रसंगों में महाप्रभु स्वयं आकर सहयोग देते हैं। न जाने किस रूप में प्रभु आ जाते हैं। इसीलिए सच्चा साथी सच्चा भाई सच्चा सहोदर एक सत्संगी भाई ही कहलाता है। जिसके साथ बैठ कर हम सदा कथा सुनते हैं सद्वार्ता करते हैं-- सत्कथा ही भगवान को प्यारी लगती है। आओ अब हम मिल कर भगवान के गुण कीत॑ न करे :-- राम राम कहते रहो, जब लग धट में प्रान । कबहु तो दीन दयाल की, भनक परेगी कान । इससे प्रभु अवश्य कृपा करेंगे। /॥ इति रास क्रीणा वर्णन नाम द्वितीयो5ध्यायः ॥ ततीयोषध्यायः जयतितेष्धिक॑ जन्मना ब्रजः श्रयत्त इन्दिरा शश्ववत्नहि । दयित दृश्यतां दिक्षू तावका स्त्वयि धृता सबस्त्वां विचिन्चते ॥र्ष८।॥ हे श्यामसुन्दर जब से आपने ब्रज में जन्म धारण किया है तब से लक्ष्मी इस गांव में निवास करती है । है प्यारे हम सब आपकी दासी हैं हमारे तो जीवन धन आप ही हो। हम आपके दरशंनों के लिए भटक रही हैं। अब आप हमकी अधिक मंत्र सताओ। सदा आपने हमारी रक्षा की है । आज इतने कठोर क्‍यों बन गये हैं।. है दयित, तुम्हारी मोषियां जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रकक्‍खे हैं। वे वन-वन में भटक कर आपको ढूढ़ रही हैं । गोपियों ने श्यामसुन्दर को दयित सम्बोधन करके अपनी दीनता दिखाई है। हमारे इस वचन को सुनकर भगवान के हृदय में दया पेदा हो जायगी । हे हृदय सर्वस्व हम तो आपकी बिना मोल की दासी हैं। हमको आप क्‍यों मार रहे हो | हे श्यामसुन्दर किसी का शस्त्र से वध करना हो वध नहीं होता, आप तो कमल कणिका के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से मार रहे हैं। जो रक्षक है, वही भक्षक बन जाय फिर किस की शरण में जाय | आप ( 5५ ) इतने कठोर क्‍यों बन गये हो । ऐसा हमसे कौन सा अपराध बन गया है। है दयालु हृदय प्राणियों के दुःख दूर करने को ही भापका अवतार हुआ है। आपका ही यह वचन है। परित्नाणाय साधनां विनाशय चदुस्कृताम | फिर आप अपने वचन से क्‍यों गिर रहे हो। आप अपने नाम को क्‍यों बिगाड़ रहे हैं। आपको सब कहते हैं कि श्री कृष्ण सत्य प्रतिन्ञ है। अपनी प्रतिज्ञा को कभी नहीं छोड़ते । प्रतिज्ञा नियमों यस्य । सुदृढ़ो स॒ दृढब्रतः ॥र्षर्॥ जिसकी प्रतिज्ञा एवं नियम हृढ़ हो, वह हढ़श़्त कह- लाता है पाण्डव पत्नी द्रौपदी महारानी सदा आपके वचनों पर ही जीवित रही थी। प्रतिज्ञातवव गोविन्द, हि न में भक्त: प्रणश्यति । इति संस्मृत्य संस्मृत्य, प्राणाससंधारयाम्यह्त्‌ ॥१००॥: हे गोविन्द, आप संदा कहते हो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता । इसी वचन को ध्यान में रख कर, मैं प्राण धारण कर रही हूँ | दुःखों का कोई पार नहीं है। केवल आपके वचनों के सहारे ही भक्त जीवित है । श्यामसुन्दर जिस समय इन्द्र का कोप ब्रज पर हुआ था। स्थूणा स्थूला वर्ष धारा । मु चत्स्वभेष्व. भीक्षणशः ॥॥ ( 5६ ) जलोधे:.. प्लाव्यसानाभे ना दृश्यत नतोन्‍नतम्‌ ॥१० १॥ हाथी की सूड जेसी मोटी वर्षा की धारा से सब ब्रज को डुबा दिया था| इस भूमि का रूप ही बिगाड़ दिया था। उस समय आप अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करके शीघ्र रक्षक बन गये थे । तस्मान्मच्छरणं गोष्ठं, सन्ताथंमसत्परि ग्रहस । गोपायेत्स्वात्त योगेन, सोष्यं मे ब्रत आहितः ॥१०१॥ यह ब्रज मेरी शरण है। मैं ही इसका नाथ हूँ। यह मेरा परिवार है। मैंने इसकी रक्षा के लिए प्रतिज्ञा की है। मैं आत्मयोग से इसकी रक्षा करूँगा। उस समय आपने अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया था। श्री गिरिराज को धारण करके व्रज की रक्षा की थी। अब आप अपनी प्रतिज्ञा क्‍यों भूल गये । रामावतार में जब आप सीता के साथ वन को चले थे । उस समय आपसे सीताजी ने कहा था। हे राम भद्र ! हम चौदह वर्ष की यात्रा पर निकसे हैं यहाँ आप हिसा मत करना । यहाँ तो अहिसा ब्त का ही पालन करना है। उस समय आपने जानकी जी से क्या कहा था आपको ध्यान है। अप्यहूं जीवित' जह्यातु त्वां वा सीते स लक्षणं न॒तु प्रतिज्ञां संत्रत्य । ब्राह्मणेस्यो. विशेषतः तदवश्यं मया. कायें ऋषीणां परि पालनस्‌ ॥१०३॥ सीते तुम जो कहती हो बह ठीक है पर मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं. व्णगए सुकताए "हे, जुन्कः रफ्जदुलएरी, में। आपने जीवल गण त्याग कर सकता हूँ। सीता मैं तुमको भी छोड़ सकता हूँ और इस प्यारे अनुज लक्ष्मण का भी त्याग कर सकता हूँ। किन्तु जो मैंने ब्राह्मणों के सामने प्रतिज्ञा की है कि इस जंगल के दुष्ट असुरो का मैं नाश करूगा। इस प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ सकता । उस समय आपने अपने वचन के अनुसार ऋषि सुनि साधु महात्माओं की उस समय उन असुरों को मार कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की थी। श्यामसुन्दर यह भी आपका ही घचन है :-- पतेद्यो हिमवान्‌ शीर्येत्‌ । पृथ्वी च शकली भवेत्‌ ॥ शुष्तेत्तोयनिधि:. कृष्णे । नसेमोध वचो भवेत्‌ ॥१०७४॥ कृष्णा द्रोपदी की विपत्‌ देख कर आपने कहा था। हे कृष्णे तू इतनी व्याकुल क्‍यों हो रही है। देख चाहे यह आकाश पृथ्वी में गिर जाय | चाहे हिमाचल पर्वत बिखर जाय। चाहे इस पृथ्वी के टुकड़ें-टुकड़े हो जायेँ। यह समुद्र सूख जाय, पर मेरा वचन कभी नहीं गिर सकता । मेरा वचन अमोघ है। क्‍या आप इन संब अपने प्रतिज्ञा वचनों को भूल गये। सुखिया अपनी सब बातें भूल जाता है। पर दुखिया को सब बातें याद आतो है। त्रज के राजा आज इतनी क्ृपणता क्‍यों दिखा ( ८क्त ) रहे हो। देखो, यह पूरी रात आपको ढृढ़ते-ढूढ़ते बीत चली है | विष जलाप्ययात्‌ व्यालराक्षसात्‌ । वर्षमारुताद बेच्यू तानलातु।। वृष मयात्मजादुविश्वतो भयात्‌ । ऋषभतेबयं रक्षिता मुहुः ॥१०५ हे पुरुषोत्तम, आपने कालीदह के विषले जल से रक्षा को, अधासुर अजगर से रक्षा की इन्द्र की वर्षा आँधी बिजली से रक्षा की, अरिष्टासुर देत्य से रक्षा की; व्योमासुर से रक्षा की विश्व के अनेक भयों से रक्षा की है, किन्तु आज हमको क्‍यों भूल गये। हे यादवेन्द्र, आप केवल गोपिका नम्दन ही नहीं हो । आप तो ब्रह्मा की प्रार्थना सुन कर विश्व रक्षा को प्रगट हुए हो । अब आप क्‍यों देर कर रहे हो। अपने कर कमल जोकि विश्व रक्षक हैं, उन्हें हमारे शिर पर रख कर हमको अभय दान करो। हे सखे ! आप अपने इन सुकोमल चरणों से वछड़ों के पीछे-पीछे चलते हैं। हभारी रक्षा के हेतु सांप के फड़ पर भी चरण रखने में सँकोच नहीं करते फिर हमारे हृदय में उन चरणों के रखने में क्‍यों देरी कर रहे हो । स्वामी आप गौचारण को जाते हो। उस समय आपके श्री चरणों में कंकड़-कांटे छिद जाते हैं। उस समय हमारा मन वेचेन हो जाता है। हम इन चरणों की यह वेदना को भी नहीं सह सकतीं। आज वह चरण हमसे कितनी दूर है। इस वन में और इस रात्रि में कहाँ छिप रहे हैं। हमारे मन में उनके दश्शनों की आकांक्षा बढ़ रही है । ( दर ) प्रणत काम पद्मजाचित' धरणि मण्डल' ध्येयमापदि चरण पंकर्ज शन्तमं च ते रमण नः स्तनेस्वर्पयाधिहन्‌ ॥१०६॥ प्रिययम, आपके चरण कमल शरणागत की रक्षा करने वाले हैं, स्वयं लक्ष्मी जी भी उनकी सेवा करती हैं। प्रृथ्वी में तो यह भूषण रूप है। आपत्ति के समय तो स्मरण मात्र से ही सहायक बन जाते हैं। बिहारी जी अब हमको अधिक मत सताओ अपने श्री चरणों को हमारे वक्षस्थल पर रख कर हृदय की व्यथा को शीघ्र दूर करिये। है वीर क्या वह अधरामृत हमको नहीं मिलेगा। जिसका पान यह वेणु सदा करती है। वीर आप उदार वन कर सभी को अधरामृत का पान कराइये। हमारी दशा पर कुछ तो ध्यान दीजिये । अति दीन होकर ग़्ोषियां प्रार्थना कर रही हैं पर उनकी पुकार कौन सुनता है। अन्त में गोपियों को आवेश आ गया और बोली :-- पति सुतान्वयाश्रातृबान्धवा नति विलंध्य तेष्न्त्यच्युतागता: गति विदस्तवोद्गीत मोहिताः कितवयोषितः कस्त्यजेन्निशि ॥१०७॥ हे क्रितव ठगिया' हमको ऐसा पता नहीं था कि आप इतने कठोर हो। हम अपने पति पुत्र भाई वन्धु सबको छोड़कर आई हैं और तुम ऐसी रात्रि में सबको छोड़कर चले गये। हम अब तुम्हारी इस चाल को समझ गई। आप इसी प्रकार अपने गान से मोहित करके सबको धोखा देते हो । ( ४० ) श्यामसुन्दर हम व्यर्थ में तड़फ रही हैं कि तुम्हारे चरण कांटों से छिद रहे होंगे। हम इन चरणों को कितना सुकोमल समझ रही थी जो अपने स्तनों पर भी बड़ी सावधानी से रखती कि कहीं आपके चरणों को चोट न लग जाय। हमको तो उन चरणों पर अब भी दया आ रही है। चाहे आपका कंसा भी कठोर व्यवहार है ऐसा कहती-कहती वह देवियां अचेत हो गईं। सावधान होने पर पुकारने लगीं । श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हा नाथ नारायण वासुदेव श्री कृष्ण प्राणताथ व्यामसुन्दर हमारा जीवन तुम्हारे लिये है । हम सब तुम्हारे लिए जी रही हैं हमको आशा है कि आप हमको अवश्य मिलेंगे । प्रभु यदि आपको हमसे मिलने की इच्छा नहीं है तो अब हम आपको नहीं बुलायेगी | पर आप अपने नंगे चरणों से जंगल में न भटकें। आपको बहुत परिश्रम हो रहा है। हम आपको इतना कष्ट देना नहीं चाहती । इससे आगे अब गोपियों की कुछ कहने की शक्ति नहीं रही । अब तो ब्रजदेवियां सब कुछ त्याग कर सर्वेश्वर भगवान की कथा गुणगान को ही सर्वश्रेष्ठ मान कर उनके कथामृत की ही महिमा वर्णन करने का निश्चय कर लिया । अतोनूलोके ननु नास्ति किचितु चित्तस्यशोधाय कलो पवित्नम्‌ अधोध. विध्वंसकरं तथंब कथा समान भुविनास्ति चान्यत्‌ ॥१०८॥ मनुष्य लोके में त्रित्त की शुद्धि के लिए कथा से बढ़कर ( थं॥ ) और कोई पवित्र साधन नहीं है। इससे बड़ा कोई रस नहीं है। यह रस भूमि में ही मिलता है। स्वर्ग में सत्यलोक में तथा कैलाश एवं वेकुन्ठ में नहीं मिलता। इसलिये बड़- भागियो कथा के बिना अपने समय को व्यर्थ में मत गमाओ। स्वर्गें सत्ये च केलासे बेकुन्ठे नास्थयं रसः। अतः पिवन्तु सदमाग्यामामानुचतु कहिचित्‌ । तव कथाम्ृत तप्त जीवन कविभिरीडित कल्मषायहस्‌ श्रवण मंगल श्रीमदातत' भुवि गुणसन्ति ते भूरिदाजता: ॥१०४॥ आपका कथा रूपी अमृत सांसारिक तापों से सन्तप्त मनुष्यों को जीवन देने वाला है। विद्वान कवि कहते हैं । यह पापों का ताश करने वाला है और दानी भी संसार में वह कहलाता है जो सबको कथामृत सुनाता है। स्वर्ग का अमृत तो केवल जीवन ही दे सकत। है। फिर भी वह मादक है और यह कथामृत तो स्वर्ग के अम्रृत से भी श्रेष्ठ है। कारक कामेच्छा तथा कामेच्छा जनित कम एवं सभस्त पापों का नाश करने वाला है यह गुण स्व के अमृत में नहीं है। नाथ इसमें तो और भी विशेष गुण है कि श्रवण मंगलम्‌ सुनने मात्र से ही भंगल करता है कितना सुखद सरल सरस साधन है। इसके निरन्तर सुनने से चोर चोरी करना छोड़ देता है हिसक हिंसा करना छोड़ देता है। कामी की तो काम वासना को काट 'कर दूर कर देता है। क्रोधी को एकदम शान्त बना देता है और मूर्ख को विद्वान बना देता है । एक भयानक चोर तो कथा में इतना सुनकर व्याकुल ( ४२ ) होगया कि यशोदा का नीलमणि. अमूल्य रत्नों के आभरण पहन कर अकेला ही गोचारण को जाता है! वह चोर व्यास जी से बोला-गुरुदेव ! यह यशोदा का नीलमणि कहाँ मिलेगा । व्यासजी ने कहा भाई, वह व॒न्दावन में यमुना तट पर एक कदम्ब के नीचे गाय चराता है। चोर के हृदय में उन गहनों के लेने की कसी लगन--जिससे वह यशोदा के त्तीलमणि के पास पहुंच गया (विश्वास से ही सफलता मिलती है) और श्री कृष्ण जी के दशेन करके भाव में विभोर हो गया। उस दिन से चोरी करना छोड़ दिया। एक बधिक जिसकी जीविका ही वध करने की थी। पर वह कथा सुनता था राजा भोज के मारने को उसी की नियुक्ति हुई थी । पर उस बधिक के हृदय में दया उत्पन्न हुई उसने भोज का वध नहीं किया । कामान्ध विल्व मंगल ने अपनी आंख भी नष्ट कर दी जिससे अब काम प्रवेश ही नहीं कर सकता। संसार में कहते हैं क्रोध बड़ा प्रबल है किन्तु उसके मारने का सहज उपाय है शान्ति। त्रिविध नरक एप ह्वारं नाशनमात्मन: कामः क्रोधस्तवालोभ, स्तस्मादेत्तत्रयं त्यजेतु ॥११०॥ काम, क्रोध, लोभ यह तीनों नरक के मार्ग हैं। इनमें भी प्रवल क्रोध है एक क्रोध के जीतने से सब वश में हो जाते है । क्रोधमुलोमनस्तापः क्रोध: संसार वन्धनः । धर्मक्षय करः क्रोधस्तस्मात्‌ क्रोधं परित्यजेत्‌ ॥१११॥ ( ३ ) क्रोध ही मन के सन्‍्तापों का मूल कारण है क्रोध ही संसार का बन्धन है धर्म के नाश करने वाला एक क्रोध ही है इसलिये क्रोध का ही त्याग करना सब पर विजय पाना है। श्री राम के वनवास के समय जब लक्ष्मण जी का क्रोध बढ़ा था। उस समय रामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा था :-- क्रोध एवं महान शत्र्‌: स्तृष्णा वेतरणी नदी सनन्‍्तोष॑ ननन्‍दन, . वर्नं शान्ति रे वहि कामधुक ॥११२॥ मेरे प्यारे लक्ष्मण यह क्रोध सबसे बड़ा शत्रु है और तृष्णा वेतरणी नदी है। और भाई यह सन्‍तोष नन्दन वन है पर शान्ति तो सबसे श्रष्ठ कामधेनु है। दो व्यक्ति परस्पर लड़ रहे हैं यदि उनमें एक शान्‍्त हो जायगा तो क्रोध अपने आप मर जायगा। क्रोध के मारने का उपाय शान्ति है। तस्मात्‌ शान्ति भजस्वाद्य शत्रु रेव भवेन्न हि। गोपियाँ कह रही हैं तब कथामृर्त तप्त जीवनम्‌॥। आपका कथामृत ही तापत्रय विनाश करने वाला है। सत्संग कथा गंगा में स्‍्वान करने से शरीर के सभी दोष शान्‍्त हो जाते हैं। यह सब कथा से ही ज्ञान मिलता है। कथा सुनने वाले भक्त आपको ऐसे मिलेंगे जिनके सत्संग से यह मालूम होगा। यह कंसा बड़ा विद्वान है। वह कथा पीयूष हाथियों के जेसे मद का भी नाश कर देता है और वह हाथी हरि भक्त बन जाता है। ॥ इति रासक्रीड़ा वर्णन नाम तृतीयो5ध्यायः ॥ चतुर्थोष्ध्यायः श्री शुक उवाच ; इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च. चित्रधा रुरुदुः सुस्वर॑ राजन कृष्ण दर्शन लालसा ॥११३॥ श्री शुकदेवजी कहते हैं। है परीक्षित भगवान्‌ की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश्ञ में प्रलाप करने लगी :-- आलापश्च विलापश्च संलापश्च प्रलापक: अनुलापापलापौ च सन्देशश्वाति देशक: ११४ इनके बारह भेद हैं। आलाप, विलाप, संलाप, प्रलाप, अनु- लाप, अपलाप, सन्देश, अतिदेश, निर्देश, उपदेश, अपदेश, व्यप- देश यहाँ प्रलाप है। अर्थालाभ: प्रलाप: मनोरथ सफल न होने को प्रलाप कहते हैं। श्री कृष्ण दर्शन की लालसा से अपने को वह रोक न सकी। करुणाजनक सुमघुर स्वर से फूट-फूट कर रोने लगीं।.. एहि मुरारे कुज विहारे एहि प्रणत जन बन्धों है माधव मधु मथन वरेण्य केशव करुणा. सिन्धों ( थैश ) रास निकु जे गु जति नियतं भ्रमर शत किल शान्‍्त एहि निभूत पथ पान्य त्वामिह याचे दर्शन दान॑ हे मघुयदन शान्त शून्यं कुसुमासनम्तिह कुजे शुन्‍्य: केलि कदम्बः मृदु कल नादं किल स विशाद॑ रोदित यमुना स्वन्भः नवनी रजधर श्यामल सुन्दर चन्द्र कुसुम शुचिवेश गोपीगण हृदयरेश गोवरधन धर वृन्दावन चर वंशीधर परमेश राधा रंजन कंस निसूदत ह प्रणति स्ताबिक चरणे निखिल निराध्य शरणे एहि जनादं॑न पीताम्वर धर कुजे मन्‍्थर. पवने एहि मुरारे नन्‍्द दुलारे एहि प्रणत जन वन्धो है माधव मधु मथन वरेण्य केशव करुणा सिन्धों ( ड६ ) फ्यामसुन्दर गोपियों की सभी लीला छिपकर देख रहे हैं। पर गोपियों का रुदन सहन न कर सके । तासामाविरमृच्छौरि:, स्मपमानसुखावुजः पीताम्वरधरः स्नग्वी, साक्षान्मन्मथ सन्‍्मथः ॥१९५॥ भगवान गोपियों में प्रगट हो गये उस समय की शोभा, वह शौरि श्री कृष्ण पीताम्वर धारण कर रहे थे पुष्पों का हार उनके वक्षस्थल पर शोभित था, मुख पर जगत को मोहित करने वाली मन्द हंसी थी साक्षात्‌ कामदेव के मन को भी मथन करने वाला उनका स्वरूप था। एक-दो कामदेव नहीं अपितु कोटि-कोटि कामों में भी सुन्दर अपने प्राणवल्लभ को देख कर गोपियां खड़ी हो गई मानो उनके प्राण लौट आये। अब तो प्रभु के सन्‍्मान में लग गईं। कोई उनको आसन लगा रहो है तो कोई उनका पटका सम्भार रही है तो कोई उनके श्वूद्भार मुकुट कुण्डलों को सम्भारनें लगी। एक गोपी ने उनका हाथ पकड़ लिया और कोई उनकी भुजाओं को सहराने लगी। किसी ने उनका चन्दन चचित भुजदण्ड अपने कन्धे पर रख लिया । किसी ने भगवान का चबाया हुआ पान अपने हाथों में ले लिया । एकाभुकुटिसमावध्य प्रेम संरम्भ बिहवला घ्नती बेच्छतु काक्षेपः सन्दष्ट दशनच्छदाः ॥११६॥ एक गोपी तो प्रणय कोप में विह्वल होकर भौंहे चढ़ा कर दांतों से होठों को दबा कर अपने कटाक्ष वाणों से वीधती हुई चासाधव रा राज श्री रस ([ उडीं७ ) उनकी ओर देखने लगी। कितना भी उसको कोप है पर देन से तृप्त नहीं हो रही सभी देवियां अपने नेत्नों से प्रभु को हृदय में ले गई तथा अपनी आँखें बन्द कर ली | कारण अब श्री कृष्ण कहीं चले न जाय मोक्ष की कामना वाला परम ज्ञानी सन्त को प्राप्त करके संसार की पीड़ा से मुक्त हो जाता है। उसी प्रकार गोपियां भगवान के दर्शन पाकर विरह सागर से मुक्त होकर आनन्द सागर मैं ड्बकी लगाने लगी। जहाँ वृन्दावन बिहारी खोये थे वहीं वंशीवट पर आज मिल गये । आज एक विशाल सभा मण्डप में श्यामसुन्दर विराजमान हैं। जिनको बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदय आसन पर जिनको विराजमान करने की साधना करते हैं। आज वह योगेश्वर गोपियों की चादर के आसन पर बेठे हुए हैं। गोपियां भी गोपिका गीत में जेसी आश लगा रही थी। वह चरण कमल आज उनको मिल गये। एक गोपी ने कहा--बहिन, श्री कृष्ण के वियोग में जो हमारी दशा हुई थी उनका इनको कुछ ज्ञान है या नहीं इसकी तो कुछ जानकारी करो उस समय गोपियों ने श्यामसुन्दर से कुछ प्रश्न कर दिये । भजतो5नुभजन्त्येक एक एतह्ठिपर्ययम्‌ । नोभयांश्च भजत्येक एतन्नोत्र हि साधुभोः ॥११७॥ बिहारी जी एक बात तो बताइये देखिये, एक पुरुष तो वह होते हैं। जो कि प्रेम करने वाले से ही प्रेम करते हैं। और कुछ लोग ऐसे हैं कि प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं। और कोई-कोई ऐसे होते हैं जो प्रेम करने बाले तथा प्रेम न करने बाले किसी से प्रेम नहीं करते । ( उढदींद ) प्रभु आप इस प्रश्त का उत्तर समझाइयेगा । श्री भगवानुवाच-- श्री भगवान ने कहा-मेरी प्रिय सखियो ! जो प्रेम करने वाले से प्रेम करता है। वह स्वार्थ भरा हुआ है। तू मुझे करता है तो मैं तुझे करता हुँ। इसमें न तो सौहाद है और न धमम है । ऐसे लोगों का प्रेम तो केवल स्वार्थ से भरा हुआ है और जो प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं, वहाँ करुणा है। जेसे माता-पिता, पुत्र कैसा भी है पर करुणा के सागर माता-पिता सदा उसकी भलाई ही चाहते हैं। इसमें सत्य और धर्म है। सखियो ! जो लोग प्रेम करने वाले से भी प्रेम नहीं करते उनका प्रेम न करने वालों से तो क्‍या सम्बन्ध है। ऐसे पुरुष चार प्रकार के होते हैं । आत्मारामा ह्वाप्त कामा, अकृतज्ञा गरुद द्रहः ॥११८॥। एक तो वह जो अपने स्वरूप में ही आनन्द लेते हैं। जिनकी दृष्टि में कभी दंत नहीं रहता। दूसरे वह जो कृत कृत्य हो गये हैं उनका किसी से कुछ प्रयोजन ही नहीं । तीसरे वह जो जानते ही नहीं कि हमसे कोई प्रेम करता है और चौथे जो जानबूझ कर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरु तुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं। उस समय एक गोपी ने कहा-प्रभु, तब आपको किस श्रणी में रक्खा जाय। भगवान ने कहा-- गोपियो, मैं किसी में नहीं हूँ। मैं इन चारों से बाहर हूँ। एक नोपी बोली--फिर तो आप महानिदुर हैं। श्री कृष्ण चन्द्र ने कहा--सखियो, मैं तो दयालु तथा उदार हृदय हैँ । गोपी--श्यामसुन्दर हमको आपने रात भर रुलाया । क्या यह आपको दयालुता है। ( देदे ) श्री कृष्ण--तो आप मेरे ज॑से निठुर से प्रेम क्यों करती हो जब्र मैं दोषी हैँ, तब तो आप मुझे भूल जाओ | गोपी-श्याम, यह प्रेम भूलने भी तो नहीं देता। हम क्या करे। श्री कृष्ण--अच्छा तो यह बताओ मैंने जो तुमको रात भर रुलाया है इससे तुम्हारा प्रेम घट तो नहीं गया | गोपी - श्यामसुन्दर, घटने की क्‍या बात है यह तो उत्तरोत्तर बढ़ ही रहा है। श्री कृष्ण--देवियो, जब तुम्हारी सम्पत्ति बढ़ी है तब तो आनन्द भी बढ़ा है। बताओ, यह तुम्हारी हानि है या लाभ | गोपी ने कहा--जी, लाभ ही हुआ है। श्रीकृष्ण-- जब मैंने तुम्हारी प्रेम सम्पत्ति को बढ़ाया है फिर आप मुझे दोषी क्‍यों बता रही हो । देखो, न तो मैं कृतघ्नी हूँ और न मैं गुरुद्रोही ही हूँ। मैं तो तुम्हारा परम सस्‍्नेही सुहुृद हूँ। मैंने तो तुम्हारी प्रीति की कचाई को पक्रा कर उसे मधुर एक रस बना दिया है। एक गोपी ने कहा-श्यामसुन्दर, हमारी प्रीति में क्या कचाई थी। हम तो सब मर्यादाओं को छिन्त-भिन्‍न कर आपकी शरण में आई हैं। हमारे इस प्रेम में आपने कौनसी कचाई देखी । जिसके लिये हमको इतना ताप सहना पड़ा । भगवान हुंसकर बोलें--देखो, ब्रज देवियो आम की कचाई पकाई को आम नहीं पहचान सकता। उसे तो माली ही पहचान सकता है। जिसने उसे लगाया है सींचा है । जसे-जैेसे फल बढ़ता है वेपते ही माली की आज्ञा बढ़ती है समय आने पर उसको उस फल का स्वाद मिलने लगा ( ९०० ) जब तक फल कच्चा रहता है उसे पकाने की चेष्टा करता है। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारी हृदय वगगिया में प्रीति का बीज बोया था। उसे गली-गली में जाकर सींचा था। जब तक वह परिपक्व न हो जाय तब तक कंसे उसमें हाथ लगाता । इसमें चाहे आप सब मुझे क्रूर कहो चाहे कठोर कहो । गोपियाँ चुप हो गई और कहने लगी-बहिन यह श्री कृष्ण तो शिक्षा गुरु है। भगवान ने कहा-गोपियो, मुझमें दोष मत लगाओ। मैं जो कुछ करता हूँ इसलिए करता हूँ कि लोगों की चित्त की वृत्ति अधिक से अधिक मुझमें लगती रहे देवियो ! इसमें सन्देह नहीं कि तुम लोगों ने मेरे लिए सब कुछ त्याग दिया है। लोक मर्यादा वेद मार्ग तथा अपने सगे सम्बन्धी तुम्हारी मनोवृत्ति केबल मुझमें ही लगी रही । इस लिए परोक्ष रूप में प्रेम करता छिप गया था। तुम मेरे प्रेम में दोष मत लगाओ, तुम मेरी प्यारी हो भौर मैं तुम्हारा प्यारा हूँ। मैं तुम्हारी सेवा त्याग का बदला कभी नहीं चुका सकता । ॥ इति रास क्रीड़ा वर्णन नाम चतुर्थोव्ध्याय: ॥ पंचमोएध्यायः श्री शुक उवाच : इत्थं भगवतोगोप्यः भ्र्‌ त्वा वाचः सुपेशलाः जहुविरहज॑ ताप तदंगोपचिता शिषः ॥११९4॥ इस प्रकार ब्रज देवियां भगवान्‌ के वचन सुन कर विरह जन्य ताप से मुक्त हो गई तथा परमात्मा श्री कृष्ण चन्द्र के अंग संग से सफल मनोरथ हो गई । गोपियां बोलीं-महाराज, रात तो अब बहुत बीत गई है इसमें रास केसे होगा। भगवान ने कहा-तुम चिन्ता मत करो । यह रात्रि छः मास के बराबर हो जायगी। उसी समय रासविहारी ने वन्दादेवी को बुलाया । वन्दा जी आ गई, श्यामसुन्दर ने कहा--तुम जरूदी से रास मण्डल सजाओ | वृन्दा जी ने यमुना तट वंशी वट पर एक दिव्य मंदान में रास मण्डल तेयार कर दिया तथा सभी आव्श्यकीय सामिग्री एकत्रित कर दीं। जैसे शजार विहार विश्वाम के लिए अनेक अद्भुत निकुज बना दी। मानो यहाँ गोलोक की सम्पदा आ गई | उस समय राज राजेश्वर ने भी गोपियों को एक चित्त . करने को वंशी बजाई | उस मुरली का कंसा प्रभाव । ( १०३ ) वंसुरी वजाय आज रंग सों मुरारी । शिव समाधि भूल गये मुनिजन की तारी ॥ वेद भनत बंदह्गा भूले भूले ब्रह्मचारी । सुनत ही आनन्द भयो लगी है करारी । रमस्भा सब ताल चूकी भूल नृत्य कारी । यमुना जल उलट भयो सुधना सम्भारी ! श्रीवृन्दावन वंशी वजी तीन लोक प्यारी । सुन्दरद्याम मोहिनी मूरत तटवर वपुधारी $ सरकिशोर मदनमीहन चरणन वलिहारी । कै दर श्रः रून्धन्तम्बुभूतश्चमत्कृतिपर | ऊँवन्मुहुस्तुम्वरु ध्यानादस्तरयन्‌ सनन्‍्दन सुखातु विस्मापयन्वेधसमस्‌ ओत्सुक्या वलिभिर्वीलि चटुलयनु भोगीरद्र माघूर्णयन सिन्‍्तन्‍्नण्ड कटाह भसित्ति सभितो बस्रास वंशीध्वति:।।१२०॥/ बंशी ध्वनि केवल वृन्दावन को ही झंकृत कर रही है । यह बात नहीं वह तो क्षन्तरिक्ष से भी ऊपर उठ चली। स्वर्गायक तुम्वर भी विस्फारित नेत्नों से वुन्दावन की ओर देखने लगा सनक ससनन्दन प्रभृति की भी समाधि टूट गई वह विक्षिप्त चित्त होकर चारों ओर देखने लंगे। दानवेन्द्र वलि भी आश्चर्य में पड़ गये। भोगीनद्र अनन्त देव भी आज [ १०३ ) चूणित होने लगे। समस्त' ब्रह्माण्ड में रस सिन्धु उमड़ पड़ा। बंशी के मधुर रस ने ही रास मण्डल की सजावट कर दी है। रास नृत्य का परम सुन्दर मेंदान बना दिया है। सत्रारभगणोविन्दों रास क्रौडामनुत्रतेः स्त्री रत्नेरन्बित: प्रीतेः रन्योन्यावद्ध वाहुभि: ॥१२१॥ रास यज्ञ प्रारम्भ हो गया एक दूसरे की भुजाओं में भुजा लिपट रही हैं। परात्पर भगवान श्री कृष्ण चन्द्र ने भी अनेक छूप धारण कर लिए हैं। दो-दो गोपी एक-एक क्ृष्ण। जिससे सभी गोपी श्री कृष्ण जी को अपने पास समझने लगीं। अन्यथा सभी गोपी श्री कृष्ण जी के पास कैसे रह सकती थी-- अंगनामद्धनामन्तरे म्शधवों साधवं माधव चान्तरेणाजरना इत्थमाकल्पिते मण्डले सध्यगः संजगों वेणना देवकी ननन्‍्दनः।॥॥१२२॥ भध्य में श्री राधा कृष्ण और उनके चारों ओर श्री कृष्ण एवं गोपियों के अनन्त मण्डल थे। ब्रह्म बेवर्त महा पुराण के आधार पर तीन लाख अस्सी हजार त्तीन सौ साठ ( ३८०३६० ) बताते हैं और गर्म संहिता के आधार पर गोपियों के सौ यूथ १०० बताते हैं। गोपियों की संख्या करना कठिन है। त्रज चौरासी कोश से ब्रजकिशोरी गण रासमण्डल में आई है जो भागवत रस या भक्ति रस की अधिकारिणी हैं तथा भगवत भक्त रसिक सन्त ही इस रस के अधिकारी हैं । ( १०४ ) बुद्ध मीमांसक, कमंवादियों से इस श्री कृष्ण भक्ति रस की सदा रक्षा करनी चाहिए। जरन्मीमासकाद्रक्ष: कृष्ण भक्ति रसः सदा । सर्वेथव दुर्होउयमभक्त भंगवद्गस: । तद पादाम्वुज-सर्वस्वेर्भक्त रेवास्य रंस्थते । भक्ति रसामृत सिन्धु तात्पय॑ यह है भगवत रसिक ही इस रास रस के अधिकारी है वृन्दावन वंशीवट रास मण्डल की सजावट तो योग माया ने ही की है । वन॑ वुन्दावनं नाम सर्व शृगार दायक॑ | सवेत्र कांचनी भूमि: दिव्योद्यान समुद्धवे । गोविन्द लीलामृत में लिखा है। यहाँ के उद्यान में वृक्षों के तने स्वण मणियों के तथ! स्थूल शाखा इन्द्र नीलमणि की हैं उपशाखा स्फटिक मणि की है। पत्ते मरकत मणि के हैं । उन पर कोपलें पद्मराग मणि कीं हैं तथा पुष्प र्फटिक मणि के हैं तथा फल मुक्ता मणि के लगे हुए हैं । अब आप व॒न्दावन के वृक्षों के नाम सुनिये। ताल, तमाल, रसाल, पियाल, पलास, अनन्नास, साल एवं अमलतास, देवदास, हर-पीपर पाकर, गूलर, बर, केश र, वट, हर और वैर, अंजीर, आम, बदाम, श्याम, अखरोट, नारंगी, नास्पति, नरियल, नीम, सिरस, पत्रज, महुआ, सेमर, सन्तरा, जामुन; सुगन्धरा, छुहारा, सीताफल, अमरूद, कदम्व, अनार, कने र, कचना र, अशोक, जम्बीर, देवदार। यह प्राकृत कल्पवल्ली नहीं है । यह तो रास बिहारी के चिन्मय धाम के चिन्मय तत्व से गठित हैं और भी उद्यान के पृष्प व॒क्षों क्री शोभा । गुलाब, गुलावांस, गुलकेरा; गुल सब्बो, गुडहर, गुले- ( १०५ ) दाऊंदी, गेंदा, मोगरा, मोतिया, मोरशभ्ी, मालती, मरुआ, मदनवान, कदम्ब, कोअल, केतकी, कनेर, कमोदनी, कमल, कुन्द, चमेली, चम्पा, चांदनी, जाती, जपा, जुही, सूयंमुखी, सदा सुहागल, सुगन्धरा, सुदर्शन, सदावहार, माधुरी, मालती, माधवी, वासन्ती, वन मल्लिका, स्वर्णयूथी, गु जा, अपराजिता, विभ्वफललता, लवंग लता आदि वृन्दावन वंशी- वट के बेभव की कौन कह सकता है। मधु के लोभी भ्रमर गरुजार रहे हैं। पक्षीगण अपनी मधुंर वाणी सुना कर मानो रस्तागीरों को बुला रहे हैं। यह देखो, कोयल, कपोत और चातक, चकोर, मोर, सारस, हंजारा, मैना, नीलकण्ठ, सकटुआ, पर्पेया, खंजन और दयामा, चिरेया आदि कंसे फूदक रहे हैं। जहां की स्वरणंमयी भूमि है। यमुनाजी के मध्य में रास मण्डप बना है। पदुम पुराण में लिखा हैं, वृन्दावन के चारों ओर यमुना बहती थी :-- कालिन्दी चाकरोचस्प कणिकाया:ः प्रदक्षिणत््‌ ॥१२३।॥ कलिंग पर्वतात्‌ प्रगटिता कणिकां परितः संवेष्टय प्रवहति । ( श्री युग्मतत्व समीक्षा ) संगीत शास्त्र सुधा तिधि योग माया ने सभी प्रकार के वाद्य एकत्रित कर दिये हैं यथा-सिता र, सारंगी, नस तरंग, जल तरंग, बेला, नफी री, मुरली, नगाड़े; सहनाई, खंजरी, मजीरा, मृदंग, श्री मंडल, सुरमन्दार, घन्टा, घड़ियाल, तमूरा, तुम्वरु, वीणा, तुरई, झालर, ढोल, ढप, मदन मंजरी, मदनभेरी, धोंसा, कटोरा, दुन्दुभि आदि सभी बाजे सजा कर रख दिये। चारों ओर चार सरोबर जिनमें अमृत समान जल भर रहे हैं । ( १०६ ) रास यज्ञ महोत्सव के समाचार मिलते ही गांव-गांव से गोपियाँ आ रही हैं। यह ब्रज के गाँवों के नाम हैं :--- भूषण वन, तिम्बार वन, गरुजा बन, कोकिला वन, वच्छ बन, पीपर वन, लोहवन; बहुला वन, भद्र वन, वेल बन, लाल वन, मधुवन, ताकमोद वन, विलास वन, भाण्डीर वन, महावन, कामवन, वृन्दावन, खिदिर वन | ननन्‍्द घाट: गौ घाठ, चीर घाट, केशी घाट, ब्रह्मांड घाट, सूर्य घाट, शेरगढ़ शान्तनु कुन्ड, सुरभी कुण्ड, अप्सरा कुण्ड; कृष्ण कुण्ड, राधा कुण्ड, माधुरी कुण्ड, नारद कुण्ड, हरजी कुण्ड, गोविन्द कुण्ड, राम- कुण्ड, दोहनी कुण्ड, श्याम कुण्ड, उद्धव कुण्ड, जतीपुरा, -गोवधेन, आन्योर, झुसुम सरोवर, प्रेम सरोवर, भानोखर, चित्रवन, विचित्र वन, लाल बाग, सेखसाई, हथोरा, रीठा, कारव; राबल, गोपालपुरा, जसोली, मांट, आंठ, आभाठस, छटीकरा, नरीसेमरी, वेठन, करहला, नन्दगांव, ऊँचा गांव, वरसानो, चिक्रसोली, जहांगी रपुर, सुनहरा, दीघम, पी रीपोखर, ब्रह्मदेव, चरन पहाड़ी आदि। गाँवों का कहाँ तक वर्णन किया ज्ञाय, ब्रज के कौने-कौने से गोप सुन्दरियाँ आ रही हैं । उनके कुछ नाम भी आपको सुनाते हैं। इन्दुमती, वसुमत्ती, भोगवत्ती, विलासमति. मानवती; कमलारति, प्रेमरति, सुगनन्‍धरा, मनोहरा, मेत नागरा, चारु- कवरा, मन्दिरा, सुचिरा, गान्धविका, कामलिका, केशिका, सुगन्धिका, सुभद्विका, रामलिका, चन्द्रिका, माधुरी, प्रेम मंजरी, प्रेम मोहिनी, संजीवनी, सुमेधिका, केशवी, माधवी, जयदेवी, सहदेवी, श्रीदेवी हीरा छवि, पदमावति, अलखनन्दा, प्रियम्वदा, मित्नविन्दा सन्मथ मोदा, विष्णु कान्‍्ता, सुभद्रा, ( १०७ ) तुखंदा, प्रेमलता, चन्द्र कला, बिमला, सुमंगला, शशिकला, विचक्षणा, देवदत्ता, सुन्दरी, कावेरी, कुमारी, कु जरी, देवरूपा; मधुरेखा, गंधरेखा, रतिमध्या, सुभानना, कुलसंती, चपल नेत्ना, तुगभद्रा, मंजूधोषा, वासवदत्ता, चन्द्रप्रभा, शान्‍्ता, मानवी, रूप रेखा, सुरसुन्दरी; ज्येष्ठा, श्रेष्ठा, करुणा, अरुणा, सुरुपा, विमला, शान्ति, कान्ति, कृष्णा, गुण सुन्दरी, चपला, चंचला, चारुमती, सुकेशी, सुनीता, विनीता, वीणावादिनी, इन्दिरा, कमला, गायत्री, सावित्री, सुकला, मंंगला, अरुच्धती । शत सहस्र यूथ गोपियों के नाम कहाँ तक लिख सकते हैं। रासमण्डल के चारों ओर चार सरोवर हैं :-- (१) सिद्ध पदा सरोवर, (२) प्रेम रस सरोवर, (३) पुष्करिणी सरोवर, (४) मलय निविड़ सरोवर । बीच में श्यामा श्याम का सिंहासन है। आठ सखि प्रभु की सेवा में उपस्थित हैं :-- (१) श्री रंग देवीजी . (२) श्री सुदेवीजी (३) श्री ललिताजी (४) श्री विशाखाजी (५) श्री चम्पक लता (६) श्री तुग विद्या (७) श्री इन्दुलेखा (०) श्री चित्रा । इनकी युगलकिशोर की सेवा का अधिकार है। समय-समय पर यह सखियाँ सब सामग्री एकत्रित किया करती थीं। वृन्दादेवी ने रास मण्डल . की पूरी रचना कर दी है तथा ब्रजकिशोरीगण भी सभी अपने-अपने स्थानों पर सुशोभित [ श्ण्द ) ही रही हैं पर रास रासेश्वरी श्री वृषभानुननन्‍्दनी राधा जी अभी तक नहीं आई हैं । श्री शुकदेवजी ने जो कहा है कि :-- एकाश्र्‌ कुटिमावध्य प्रेम संरम्भ विश्वमाः ध्नन्ती गेक्षत्कटाक्ष पे सन्दष्टदशनच्छदा: ॥ १२४॥ भगवान श्री कृष्ण के आने पर जो गोपी श्रकुटि चढ़ा कर द्ाँतों से होठों को दबा कर प्रणय कोप से व्याकुल होकर एकान्त में बंठी कटाक्षों के आक्षेप से ताड़ना कर रही है। घह श्री कृष्ण के पास नहीं आई है वह भानित्ती राधा है। थह मानिनी गोपियों में सर्वेश्र ष्ठ है। चपला सखि ने आकर कहा-ह्यामसुन्दर, वह मानिनी राधा सेवा कुज में माने करके बेठी है, आप चल कर पहिले राधाजी को मनावें। श्याम सुन्दर बोले--सखियो, तुम ही जाकर उनको लिवा लाओ। इतना कह कर हमारे प्रभु विहवल हो गये और कहने लगे-राधे राधे राघ्ने नेत्नों से अश्र्‌ विन्दु टपक रहे हैं तथा बार-बार चपला सखि की ओर देख रहे हैं । चपला जी कह रही हैं श्यामसुन्दर, आप इतने अधीर क्‍यों हो रहे हो । विरह विषाद दूर कर डारो, नेक धीर अपने सन धारो । काहे को कदरात घिहारी, में ल्याई वृषभानु दुलारी ॥ चपला जी के वचन सुनकर, प्रभु कहने लगे-मेरी प्रिया ( १०४ ) राधा, कहाँ है, आप जल्दी बताओ, कहाँ है वृषभानु राज- दुलारी ? चपला जी ने कहा--मैं अभी राधारानी को लाती हूँ। इतना सुनते ही श्यामजी के (नयन सरोज नीर भर आये) उसी समय एक सखि ने कहा--( आवत प्रिया अबई वनवारी ) ऐसा कह कर सखियाँ सेवा कुज की ओर राधाजी के लिवाने को चल दीं । श्यामसुन्दर आज बड़ा पश्चाताप कर रहे हैं और गोपियों से कह हैं। सखियो, आज वृषभानु राजदुलारी इतना मान करके क्‍यों बंठी है? मैंने तो उनका कोई अपराध भी नहीं किया है। श्री श्यामसुन्दर ऐसा कहते-कहते प्रिया के विरह में अत्य- घिक व्याकुल हो गये । राधा विरह॒ विकल गिरधारी । कहूं माल कहूं मुरली डारो ॥ कहूँ मुकुट कहूँ पीत पिछोरी । नाह कछु सुरति भई मति बोरो ॥ आपको ऐसी अवस्था देख कर सखियाँ प्रभ से प्रार्थना कर रही हैं। व्यामसुन्दर देखो, चपला जी राधाजी को अवश्य . लेकर आयेंगी। चपला के साथ कुछ देवियाँ सेवा कु'ज में पहुंच गई । वह सब राधाजी से प्रार्थना कर रही हैं। इस पर श्री हित हरिवंशजी का सुन्दर पद है ;-- चलोरी क्यों ना मानिनि कु ज कुटी र तुम बिन श्याम कोटि बनता युत मथत मदन की पीर । चलो० ( ११० ) गदुगदू सुर विरहाकुल पुलकित श्रवतः बिलोचन नीर । चलोरी० क्वास क्वास वृषभानु नन्दिनी विलपत-. विपिन अधीर | चलोरी० बंशी विसद्‌ व्याल उर माला वंचानन पिक कीर ॥। चलो री० हित हरवंश परम कोमल चित चली चपल तिय तीर। चलो री० सुन भयभीत ब्रजकों पुजर सूरत सूर रणवीर । चलो री० कैसे सुन्दर दिव्य भावों से भरा हुआ श्री महा प्रभु का पद है। ब्रज सुन्दरियों को इस प्रकार प्रार्थना करने पर भी जब मानिनी राधा का मान कम नहीं हुआ | तब स्त्रयं श्री कृष्ण चन्द्र मानिनी राधा के मनाने को सेवा कुज में पधारे। कहते हैं सेवा कु ज में ही ऐसा भाव है कि श्री राधाजी ऊँची बेठी हैं और श्री कृष्ण जी नीचे बेठे हैं। वह माननी राधा को मना रहे हैं :-- उठो अब मान तजों गोरी सदा सों तुम सन की भोरी रही अब रन बहुत थोरी कहूँ में शपथ खाय तोरी इतने पर भी राधाजी जब मान करती रही तबतो श्री कृष्ण अति दीन होकर बोले :-- (१११ ) अपनी ओर निहार कें, देक अभय वरदान । क्षमा करो अब चूक सब, जो कछु भई अजान ॥ तू तो मोहे प्राणन ते हू प्यारी राधे भूले मान न कीजिये सुन्दर । हों तो शरण तिहारी॥ राधे० नेक हंसे चित बोलिये राधे । खोलिये घृषट सारी ॥ राधघे० कृष्णदास हित प्रीत रीत वश । भर लिये अकन वारी ॥ राघे० इस प्रकार रास बिहारी की अति दीन अवस्था देख कर श्रो राधाजी के नयन भर आये और उठ कर एकाएक श्याम- सुन्दर से लिपट गई। आनन्द विभोर हो गई बह प्यारे के लाड़ से विद्वल होकर उनकी वंशी से प्यार करने लगीं और बोलीं--श्यामसुन्दर, आज आपकी बंशी मैं बजाऊँगी। थोड़ी देर को आप इसे मुझे दे दीजिये :-- श्याम तेरी वांसुरी नेक बजाऊँ जो तुम कहो मुरली मैं सोई सोई गाय सुनाऊ हमरे भूषण तुम सब पहरो हों तुमरे सब पाऊ हमरी विदरी तुमही लगाओ हों शिर मुकुट धराऊ ( ११२ ) तुम दधि वेचन जाऊँ वृन्दावन हों मम रोकन आऊँ तुमरे शिर माखन की मटुकिया हो हों मित्र ग्वाल लुटाऊ माननी होकर मान करो तुम हों गह चरण मनाऊँ सूर एयाम प्रभु तुम जो राधिका हो नन्दलाल कहाऊँ श्याम तेरी बांसुरी नेक बजाऊँ श्री श्यामसुन्दर तथा श्री वृषभानु नन्‍्दनी राधा दोनों ही नृत्य भाव में गोपी मण्डल में आ गये हैं। भगवान रासबिहारी एवं रास रासेश्वरी के आते ही जय जयकार होने लगा। एक साथ ही नाना प्रकार के वाद्यों की स्वर लहूरी सुनाई पड़ने लगी । योगेश्वर भगवान आज अनेक रूप से गोपियों में विराज- मान हैं। उस समय कामदेव ने भी युद्ध का नगाड़ा बजा दिया.। अब श्री कृष्ण इस घेरा में से निकल कर नहीं जा सकते। अब जल्दी ही अपने बाणों से इसको परास्त कर दू'गा। वह अभिमानी यह नहीं समझ रहा कि भगवान अभी क्या-क्या लीला रचेंगे। रासोत्सव का समय हो गया। दुन्दुभि घोष होने लगा। वीणाओं की झनकार से मण्डल झंकृत हो रहा है। चारों ओर से एक साथ ही नूपुर ध्वनि ग्‌ जने लगी । ह बलयानां नृपुराणां किकड़ोनाच योषितां (११३ ) सप्रियाणामभृच्छद स्तुमुली रास मण्डले ॥१२१॥। यहाँ पुरष तो केवल एक श्री कृष्ण हैं बाकी सब गोपियां हैं। कारण :-- रास प्रवेशस्तस्येव येन राधा प्रपुजितः इद मेवाधि दवत्य॑ तद्वारा कृष्णतो यदि ॥१२६॥ रास में तो वही प्रवेश कर सकता है। जिसने श्री वृषभानु राजदुलारी राध्ाजी की पूजा की है। पर एक पुरुष ने भी मण्डल प्रवेश का साहस किया है वह हैं श्री भोलानाथ ब्रज विलास में यह चरित स्पष्ट है। मुदा गोपेन्द्रस्यात्मज भुज परिश्वज्भविधये, स्फुरद्रोपी वृन्दे यंमिह भगवसन्तं प्रणयिभि:। भवद्भिस्तेर्भक्तया' स्वभिलपषितं प्राप्तमचिराद, यभीतीरे गोपीश्वरमनु दिनं त॑ किलभजे। यह गोपीश्वर महादेव का ध्यान है। रासारम्भ में जो दुन्दुभि घोष हुआ था वह सभी जगह फेल गया था। उस समय हिमाचल राजदुलारी पावेती जी उस रासोत्सव के दक्शनों के लिए चल दी। रास यज्ञ में जाने को पाव॑ती ने आज अपना आ्ुगार भी अपूर्व किया है । पावंतोजी जा रही हैं | शंकर जी ने उनको टोक दिया । प्रिये आज सजधज कर कहाँ जा रही हो । ऐसा श्र गार तो पहिले कभी नहीं किया । पावंती जी बीली--भोलानाथ, आपको कुछ मालूम है कि आज वृन्दावन बंशीवंट कालिन्द्री तट पर महारास हो ( ११४ ) रहा है। मैं उसी के दहन करने जा रही हूँ। शंकर जी ने कहा--तब तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूगा। पार्वती--हे शम्भो, वहाँ आपको स्थान नहीं मिलेगा कारण वहाँ स्त्रियों का राज्य है पुरुष तो एक श्री कृष्णजी ही रहेंगे शंकर जी ने कहा--तब तो मुझे वहाँ कोई नहीं रोक सकता। पावेती-- अजी, वहाँ श्री कृष्ण को कौन पूछता है। वहाँ तो सर्व यूथेशवरी एक मात्र राधा का ही साध्राज्य है उनके बिना एक पत्ता नहीं हिल सकता। शंक्रजी--अरी, रहने दे इन बातों को श्री कृष्ण मेरे सच्चे साथी है और मैं उनके प्रभाव को जानता हूँ मुझे कोई नहीं रोक सकता। ऐसा कह कर दोनों ही रास मण्डल की ओर चल दिये। रास मण्डप के द्वार पर द्वारपाल खड़ हैं। राधारानी की विश्वास पात्र सखि ललिता एवं विजश्ञाखा ही पहरा दे रही हैं।पावंती जी तो मण्डप में आदर के साथ चली गईं पर शंकर जी को रोक दिया । आप भीतर नहीं जा सकते। शंकर जी अपना सा मुह लेकर लौट दिये। श्यामसुन्दर होते तो उनसे कुछ बात भी करते स्त्रियों से भोलानाथ क्या बात करें। पार्वजी ने देखा, स्वामी हताश होकर लौट गये । तब पावेती जी ने आकर कहा-भोलानाथ रास देखना चाहते हो। शंकर जी बोले--रास देखने की बड़ी प्रवल इच्छा है पर अब अपमान का भय है। कारण स्यामसुन्दर नहीं मिले। पावेती जी बोली--नाथ, रास मण्डल का मार्ग कठिन है। यहां दान, ब्रत तप, यज्ञ कोई भी सहायक नहीं हो सकते । कारण बवृन्दावना- धिपत्यं तु दत्त तस्ये प्रतुष्पता--राधावृन्दावने बने यहाँ की मालिकनी तो राधा ही है। ( ११५) अधिकारस्तु तस्यब या स्त्रीत्व तु समाचरेत्‌। नान्यस्य तपसा भक्तया दानेन क्रिययाउथवा । हां, मैं आपको एक उपाय बता सकती हूँ। आप स्त्री का रूप धारण कर लें फिर आपको कोई नहीं रोक सकता। उस समय रासोत्सव देखने के चाव से प्रभु ने स्त्री का रूप धारण कर लिया तथा पाती जी ने उनका श्वूगार किया। अब तो वह सर्वाग सुन्दरी दिव्य भषा विभूषिता गौरांगी गुण सुन्दरी पावंती के साथ रास मण्डप की ओर चल दी। ललिता, विशाखा उस गुण घुन्दरी को देखती ही रह गई। सोचने लगी यह कोई देवलोक से आई है । नवीन अवस्था सर्वांग मनोहरी उज्बल सचिकण जिसका शरीर चन्द्रमा जैसा मुखारबिन्द, मृग के से नेत्र, कमान सी भूकुटी, द्यामसटकारे घृघर वाले श्याम छललानदार अलका- बली, कपोत की सी ग्रीवा, जिसमें शंख कीसी रेखा पड़ी हुई हैं। तिल पुष्प सी सूआ सारी नासिका, आरसी जैसे गोल कपोल, कन्द्रो जैसे लाल-लाल ओष्ठ, कुन्दकली से दाँत, सुवर्ण कलश जसे उरोज, त्रिवली दार उदर, गम्भीर नाभि सिंह की सी कमर, सुढार भुजयुगल लाल कमल जेसे हाथ, कमल जैसे कोमल चरण जिनमें चमकदार महावर लगी हुई है । माणिक जैसे नख, नारंगी जैसी एड़ी, हंस की सी चाल, कोयल के समान कण्ठ गहरे रंग की साड़ी जो गोटा किनारो से शोभायमान थी । चन्द्रहार मस्तक पर बेना बन्दी कंकड़ नूपुर कन्धनी से सुसज्जित, ग्रण सन्दरी कोद्वार पर आते देख ब्रज देवियाँ आशचये में भर गई। उसका सौन्दर्य, माधुये ओऔदारय एवम्र अतुल सौभाग्य देख कर आदर सन्‍्मान के साथ रासबिहारी के पास ले गई किन्तु सातवीं ढूयोड़ी पर एक ( ११६ ) ह्वारपाल को सन्देहु हुआ कि यह पुष्ट देह वाली कोई अपरिचित है। उसको उस परिचारिका ने रोकना चाहा पर श्री कृष्ण चन्द्र ने हाथ बढ़ा कर उसका स्वागत किया और बोले गुण सुन्दरी इस रास नृत्य की श्री गणेश तो आपके ही द्वारा होगा। आपने बहुत देरी कर दी ऐसा प्रभु के कहते ही एक साथ बाजे बजने लगे। महादेव जी बड़े संकोच में पड़ गये, पर कया करे। रास रासेश्वर की आज्ञा कि प्रथम नृत्य आपका ही होगा । नन्‍न नन्दन रास रच्यो आये त्रिपुरारी सखि, आये त्रिपुरारी । नन्द० हिचक झिझक पग धरत, कहूँ को पग कहूँ परत, जटा काढि मांग गंग की निकारी । नन्द० बेंदी माथे विशाल चूनर ओडढ़ी है, लाल मनमानी चले चाल, तीन नयनवारी । ननन्‍्द० देखे जब नन्‍द लाल हंसके बोले ग्रुपाल, आयो गोरीश ईश झीश गंगधारी ॥ नन्‍्द नन्‍्दन रास रच्यो आये त्रिपुरारी सखि आये त्रिपुरारी शद्धूर जी बड़े संकोच से नृत्य कर रहे हैं, पर उनका यह संकोच नृत्य की शोभा बढ़ा रहा है। श्री कृष्ण चन्द्र ही इस रहस्य को जान सके। प्रभु कह रहे हैं आप गोपेश्वर हैं तभी से बंशीवट पर गोपेश्वर महादेव विराजमान हैं। उनका श्रुद्भार भी सदा गोपियों जेसा होता है। अब श्री कृष्ण चन्द्र नृत्य करने को पधारे। एक साथ बाहर के तथा भीतर के वाद्य बजने लगे तथा गोपियों के आभूषणों की झनकार होने लगी । (६ ११७ ) कृष्णा हंस कपोत मोर विहगाः कृष्णाइचको रा मुगाः । कृष्णा श्री यमुना तदन्तियतटाः वाप्यश्च कृष्णास्तथा । कृष्णा गोकुल मण्डली वन चर्य॑ कृष्ण॑ च सर्ब॑ वनम्‌ १ श्री कृष्णस्यरुचा किमन्यह्ने राधापि कृष्णा भवेत्‌ ॥१२७॥ रासबिहारी जी ने जेसे ही रास नृत्य की फिरकयां लो कि एक साथ श्याम रस की वर्षा होने लगी, वह रंग सब पर चढ़ गया। वहाँ के रस चकोर, मोर आदि सब पक्षो श्याम दीखने लगे श्री यमुना तट वृन्दावन श्याम लत्ताओं से शोभित्त हो गया। वह सम्पूर्ण गोकुल मण्डली श्याम रंग में रंग गई और तो क्या वह गौर बदन वृषभानु किशोरी भी श्याम सखी जैसी दोखने लगी। यह देख कर गोपियाँ बोलीं- वाह प्रभु, आपने अच्छा काला रंग बरसाथा | क्या आपके पास कोई दूसरा रंग नहीं था। उस समय पदुमा बोली--बहिन, कारे को चसियावे । श्री ललिताजी ने राधारानी को नृत्य करने को खड़ा कर दिया चारों ओर से जय जयकार की ध्वनि गुज उठी । राधा रानी की जय ! राधारानी की जय !! श्यामसुन्दर ने देखा, ओहो ! श्री प्रियाजी आ गई। श्री वृषभानु किशोरी की घूघरु फी झनकार से संभी बाजे फीके पड़ गये। रासेश्वरी ने नृत्य प्रारम्भ किया। उसमें तो मौर रस की वर्षा होने लगी, रास मण्डल का रंग बदल गया । ( १९१८ ) गौरांगा पशुभुड़' कोशिलगणों गोराश्चकोरा सृगगाः गोरा श्री यमुना तदन्तिय तटा वाप्यश्च गौरास्तदा गोरा गोकुल मण्डसी वन चर्य॑ गोर॑ व सर्व बन श्री राधाय रुचा किमन्यहने - कृष्णो<पि गोरायते ॥१२८॥। श्री राधाजी की गौर कान्ति के प्रभाव से रास मण्डल चमक उठा। वहाँ के हंस, चकोर; मोर, सारस, कोयल, भोंरा, मृग आदि सब गोरे हो गये। वृन्दावन यमुना तट पर श्यामता छा गई थी। वह गंगा की तरह स्वच्छ, उज्वल, सफेद, गौरवर्ण की दीखने लगी। गोकुल मण्डली गौरवर्ण की हो गई और तो क्‍या भगवान श्री कृष्ण चन्द्र भी गोरे ग्वाल जेसे दीखने लगे। इस नृत्य के प्रभाव को देखकर गोपियां तालियाँ बजा कर कहने .लगी--जय राधे जय राधे तुम धन्य हो तुम धन्य हो । राधेजी काले रंग पर किसी रंग का प्रभाव नहीं पड़ता पर राघें आज आपकी विजय हो गई । छांडि मन हर विमुखन को संग जिनके संग कुबुद्धि उपजत ह परत भजन में भंग । छांड़ि कहा होत पय पान कराये विष नहिं तजत भुजंंग । छां० कागहि कहा कपूर चुगाये शान नहाये गंग। छां० ( ११४ ) खरकों कहा अरगजा लेपे मरकट भूषण अगभ । छां० सूरदास प्रभु कारी कामर चढ़त न दूजो रंग । छां० पर आज तो कारे पर गोरा रंग चढ़ गया। इससे बड़ी विजय और क्या होगी ब्रज देवियों का उल्लास बढ़ गया अब सब एक साथ मिलर कर नृत्य करने लगीं । $ अथ गानस्‌ #६ जय कँष्ण मनोहर योगतरे यदुनन्दन भन्‍्द किशोर हरे जय रास रासेश्वर पृरणणतमे बरदे वृषभानु किशोर हरे जयतीह कदम्ब तले ललित्तः कल वेणु समीरित ग्रान रतः सहि साधिकया हरिरेकमतः सतत तरुणी जन मध्यगतः वृषभानु सुता परमा प्रकृति: पुरुषों ब्रजराज सुत्त: सुकृति: इहनृत्यति गायति बाइयते सह मोपिकया पुलिने रमते यमुना पुलिने वृषभानु सुता ( (२० ) नंवनीत लतादि सखी सहिता रमतें हरिणा सह नृत्यरता गति चंचल कुडल हार रता कृषभानु जया सह कुज वने यदुनन्दन येति सुखे विजने न्रजमोहन॒ नागर वीर वरः परि रम्भन चुम्बत दान परे: जय कृष्ण मनोहर योगतरे यदु नन्‍न्दन नन्द किशोर हरें ॥ श्री रास रासेश्वर भगवान की जय हो ।॥# # नृत्य की शोभा # चरणन की धरन; नृपुरन की वजन, झाझन की ठमकंन और दामन की छूमन और मोतिन की लूमन, कमर में कन्धनी की रुरकन, मोतीमाला की दमकन, जिसमें जड़ाऊ पाटियान की चमकन, गोरी गोरी भुजान में वाजूबन्द की फसन। मुख पर श्याम अलकावली की छुटन; कानन में कुष्डलन की हलन, मन्द मुसकान की चिंतवत, वेनाबम्दी की सजन; नासिका की चढ़ंन, अधरन की फड़कन; उदर में त्रिवली की परन ललित त्िभग की विलसन, मुरली की धरन, अग्रुली की नचन, आनन्द की उममन, पीतपट की चटकन। आधमा की चढ़न, यह नृत्य का भाव है। नाचते समय उनकी छसी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी मानो दो लड़ हो गई है। झुकना, बेठना, उठना, चलना, बड़ी फूर्ती से उछरना तथा स्ठनों का हिलना; वस्त्र उड़ रहे हैं। कानों के कुण्डल हिलकर कपोलों ( १११ ) पर लटक रहे हैं । परिश्रम से मुख पर पसीना टपंक रहे हैं। कैशों की चोटियाँ ढीली पड़ गई है। नटवर लाल की परम' प्रेयसी गोपियाँ नृत्य में मग्न हो रही हैं। श्री कृष्ण चन्द्र का संस्पर्श आपके रोम-रोम को खिला रहा है। उस समय गन्धर्व पति मुख्याधिकारी सस्त्वरीक भगवान के निमल यश का गान कर रहे है । नमस्त्वां सुहारं यशोदा कुमारं गुणानासगार कृपा रपारम्त विराजद्विहारं प्रदानेत्युदारं खल श्रोणिदारं सदा लिविकारस ॥११४।॥ तासां तस्य च अमल॑ कामादि वासना निरसनम्‌। रासो- ह्सव दर्शन एवं श्रवण करने से विषय वासना का नाश होता है । इस महारास का वेभव ही अद्भुत है। राजोपचार सामि- ग्रियों से भरपुर है। जहाँ नाना विध निकुज बंनाई गई हैं। मणि निकु ज़ जहाँ मणियों का वेभव है। पुष्प निकुञ्ज जहाँ पुष्पों का सौन्दर्य है। भावना निकुन्ज जहाँ वासना का निरा- करण है। पहिले मणि निकुन्ज का ही वर्णन करते हैं। जहाँ पिरोजा का परकोटा, मृ गा की बनी मुडगेली, वैद्य के बने द्वार, माणिक के किवार, कौस्तुभ की कील, घुन्नी की चोखट, गीमेंद के दासे वेदूर्य की वारहद्वारी, चन्द्रकान्त की चांदनी, विल्लोर के फरस, नीलमणि के खम्ब, हीरा के हटरा, कोस्तुभ' के कलश लग रहे हैं। लता पताओं से शोभायमान यह मणि निकुन्ज है। इसमें प्रिया प्रियतम का शुज्भार भी मणियों से किया गया है । ( ११३ ) प्ृणि निकुन्ज में रक्षक भी चारों ओर घूम रहे हैं। अच्छा प्रबन्ध है पर वहाँ एक आश्चर्यजनक घटना हो गई। यहाँ भोपषियों का साम्राज्य है। पुरुष तो एक श्री कृष्ण जी ही फस रहे हैं। भोलानाथ तो स्वयं अपने को संकोच वश छिपा रहे हैं । उस समय मोपियों ने विचार किया आज इस बांसुरी को छिपा दो । सोरो संब बंशी आज दाव भजो पायो है, यह उपकार प्यारी सदा मानेगी | गोरी राग सावरो रिश्लायो है। बहुत अधरामृत्त चुंवाओ श्याम मुरली बीच: दिन दिन की कसक आज काइ़ पायो है । रसिक पीतम जो बिनती करे हजार बार, तोऊ वा बांसुरी को भेंद ना बतायो है । विचार तो गोपियों का बन गया पर बंशी को चुराने का किसका साहस है। उस समय राधारानी से हो प्राथंना करी बह काम आप कर सकती हो। गोपियों के मनो भाव जान कर एक बड़े मनोविनोद के उद्देश्य से श्री किशोरी जी ने घड़े साहस से यह काम किया। गोपियाँ प्रसन्न हो रही हैं और कह रही हैं--बहिन, आज इसमें ऐसी मार लगाओ जो श्यामसुन्दर को छोड़ कर चली जाय देखो बहिन, यह हयामसुन्दर का अधरामृत पान करके कंसी मोटी हो गई है। अब तो बंशी में चारों ओर से मार पड़ने लगी। उसकी बोलती गोपियों ने बन्द कर दी और कहने लगी । ( ११३ ) बासुरी तू कब न गुमान भरी । धोने की नाही रूपे की नाही, नाह्ठी रतन जड़ी। बांसुरी तूं० जात सिंकत तेरी सब कोई, जाने मधुवन की लकड़ी | बासुरी तू० क्यारी भयो जब हरिमुख लागी, वाजत विरह भरी | बांसुरी तृ० सुर श्याम याको का करिये, ह अधरन लागतरी । बॉंसुरी तृ० बांसुरी की चोरी हो गई है और उसमें मार भी पड़े रही है। बांसुरी के बिना प्रभु काजी व्याकुल हो रहा है। बार“ बार पटका की परौठ को टटोल रहे हैं। हाय | आज बांसुरी कहाँ गई | किससे पूछ' यहाँ तो इन सच्ियों का ही राज्य है इनका ही बहुमत है भगवान आज सब रास रंग भूल गये । जिस बाँसुरी को एक क्षण के लिए नहीं छोड़ते थे। कमर में कसके रखते थे। उसकी आज चोरी हो गई। प्रभु की ऐसी दशा हो गई । एक पग भी चलने में असमर्थ हैं। आपने विचारा कि नम्रता से ही काम चलेगा। यहाँ मेरा कोई सहायक नहीं है। दयामंसुन्दर एक-एक गोपी से प्रार्थना करने लगे। दैवियो, मैरी बंशी देखो होय तो बतादी। गोपियों का संगठन टृढ़ था। इस भेद का कोई स्रोत नहीं मिला। आज प्रभु, धोके में आ गये । ऐसी भूल आपसे कभी नहीं हुईं। आप गोषियों की खुशामद कर रहे हैं और कहने लगे । ( १२४ ) कोते बंसत या बृन्दावन में. या बंशी को चोर । जानी नहीं लई काऊ कर में, कर में उरसी जोर । घोरी नहीं वर जोरी एरी, प्यारी मो मुरली को चोर । राजा को ही दिये बनेगी, यही न्‍्याब की तोर । जबे किसी ने मुरली का रहस्य नहीं बताया तब आपने समझ लिया यह काम राधा का ही है और किसी का इतना साहस नहीं हो सकता राधा की बिनती करने से ही काम घनेगा। आप राधा को मनाने लगे। मुरलिया जो पाऊ तो मैं तेरे ही भुण गाऊँ। सुनहु कुमरि किशोरों राधे । श्री राधे राधे गाय घुनाऊँ । मुरलिया जो पाऊँ तो तेरे ही गुण गार्ऊ । चरन छुवाय कहत हों घुमसो। तेरो ही ध्यान लगाऊँ। यह विनती भलि हार विहारिन । तेरे हो हाथ विकाऊ। मुर० इस प्रकार श्यामसुन्दर की दीनता एवम्र करुण अवध्था देखकर श्री प्रियाजी का हृदय भर आया। उनने बंशी निकाल कर दे दी। फिर इंयामसुन्दर ने बड़े मघुर भजन सुनाये । ( १२५ ) जयति जय राधा रसिकमनि मुकुटमनहरणी प्रिये । पराभक्तिप्रदायनी करि कृपा करुणानिधि प्रिये |! परा० ॥१॥ जयति गौरी नव किशोरी सकल-सुख-सीमा प्रिये ॥२॥ जयति रतिरसवद्धिनी अति अदुभुता सदया हिये | परा० ॥३॥ जयति आनन्दकन्दिनी जगवन्दनी बरवन्दनिये। परा० ॥४॥ जयति श्यामा अयितनामा वेदविधिनिर्वानिये ! परा० ॥५॥। जयति रासविलासनी कलकलाक़ोोटिप्रकाशिये | परा० ॥६॥ जयति विविधविहारकवनी रसिकरवनीं शुभधिये। परा० ॥७।॥ जयति चंचलचारलोचन दिव्यदुकलाभरनिये ! परा० ॥८ा।। जयति प्रेमा प्रेमसीमां कोकिलाकंलगैनिये | परा० ॥ढै॥ जयति कांचनदिव्यअज्जी नवलनीर जनेनिये। परा० ॥|१०॥ जयति वलल्‍लभ वललभा आनन्दकलाभातरुनिये । परा० ॥११॥ जयति रावलपतिकुमारी नन्दबालवधूटिये | परा० ॥१२॥ जयति नागरगुण उजागर प्रानधनमतहरनिये । परा० ॥१३। जयति नूतननित्यलीला नित्यधामनिवासिये । परा० ॥१४॥ जयति गुणमाधुय्येभूसा प्रेम रूपा शक्तिये | परा० ॥१५॥ जयति शुद्धस्वभावशीला श्यामला सुकुमारिये। परा० ॥१६॥ जयति यशजमप्रचुरपरिकर श्रीहरिप्रिया जीवनजिये। परा०। १७॥ गोपियाँ इ्यामसुन्दर के साथ मणि निकुन्ज का गैभव देख कर कहने लगीं। प्रभु इससे बड़ा सुख और कहाँ मिल सकता है। प्रभु ने कहा देवियों मैंने भी एक कुन्ज बनवाई है । आओ उसका भी सुख गैभव अनुभव करो ब्रजसुन्दरी बड़े ( १२६ ) चाव से उनके साथ चल दी। आपने उनको एकान्त में जंगल में ले जाकर बैठा दिया । सखियाँ हँस कर बोलीं--प्रभु, यही आपकी निकुन्ज रचना है। एक बोली--बहिन, ग्वारिया को जंगल ही सुहाता है। एक गोपी ने कहा -श्यामसुन्दर, इस निकुन्ज का क्‍या नाम है। श्यामसुन्दर कहने लगे-यह भावना निकुन्ज है। यहाँ के जीव समान भाव से रहते हैं। यहाँ ध्यान की धरती है और प्रीती के परकोटा हैं। इसमें नम्नता की नीम लगी है। यहाँ भावना की भीत है और चाहना की चौखण्डी है इसमें दास्यता के द्वारे हैं और चितवन की चौखट है। कीतंन के किवार जिनमें कृपा की कील जड़ रही है। दया के दास बने हुए हैं तथा खुशी के खम्ब एवं मोक्ष की महराव लगी हुई हैं। भक्ति के भवन हैं अर्थ के आले हैं। वचन जाल की जारी हैं और हुए के हटरा एवं आहलाद की अटारी बनी हुई हैं और चातुरी की चित्रश्याला तथा कल्पना के कोठे और मोह की मुड़गेली बनी है महिमा के मिरगोल, मन के महल कटाक्ष के कलश रखे हैं धर्म की ध्वजा लग रही है तथा प्रेम की पताकाओं से सुशोभित है। जहाँ प्रीति का पलंग बिछ रहा है जिसमें प्रेम के पाये हैं तथा नीति की निवाड़ कस रही है। जहाँ ज्ञान के गद्दा बिछ हैं स्नेह की इस कुन्ज में सोठ बन रही है और चाहना की चांदनी तन रही है यह सुखमयी भावना निकुन्ज है यत्र नेसगंदुर्बरा सहासनू नृमृगादयः मित्राणीवा जिताबास दर तह्ट्‌ वर्षकादिकसु ॥१३०॥ ( १२७ ) यहाँ के जीवों के मन में वर भाव की बृत्ति कभी नहीं आती यहाँ तो जो स्वभाव से ही बेर मुक्त हैं। ज॑से मनुष्य व्याप्र। विडाल मूषक। सर्पनकुल। यह शत्रु भाव परायण है पर इस निकुन्ज में तो सब मित्र भाव से ही रहते हैं । अह निसर्ग ते जीव सब बेर भाव विसराय वसहि जहां सुख सों सदां प्रीति अधिक अधिकाय ॥१३ १॥ गोपियाँ जब भावना निकुन्ज में श्री कृष्ण चन्द्र के साथ पधारी पर उसे देख कर आएचर्य में पड़ गई। बाबरी सी हो गई कि श्यामसुन्दर हमको कहाँ ले आये हैं। यहाँ तो ध्यान धारणा धरती और ज्ञान भावना भक्ति के सिवाय और कुछ नहीं दीखता । हाय ! कसी जगमगाती ज्योति में से निकाल कर इस साधुओं की धूनि लगाने के स्थान पर ले आये हैं। यहाँ किसका मल लगेगा, उसी समय वहाँ लक्ष्मी जी भी एक कमल पुष्प हिलाती चली आई। सामने से सरस्वती जी भी वीणा पुस्तक माला लेकर आ गई कंसा रंग में भंग पड़ गया। देखते ही देखते झोली गोमुखी तथा कमण्डलु के ढेर लग गये और वीणा से मधुर ध्वनि सुनाई पड़ने लगी :-- बहुत गई थोड़ी रही तारायण अब चेत काल चिरेया चुग रही निशदिन आयु खेत नारायण सुख भोग में तू लम्पट दिन रेन अन्त समय आयो निकट देख खोल के नैन नारायण संसार में भूषपति भये अनेक मैं मेरी करते रहे - ले न गये तृण एक ब्रजकिशोरी गण आँख फाड़-फाड़ कर देखने लगीं। यह क्या हो रहा है हम क्‍या देख रही हैं। उन सुन्दरियों के सामने बड़ा संकट आ गया। उसी समय सिद्धियाँ आ गई वह उन सुकुमारियों को झोली बांटने लगी और एक और सुन्दर रंगीली गौमुखी बांटने लगीं। पुस्तकें भी रंग बिरंगी मन को लुभाने वाली वटने लगीं। जिसको जो पसन्द है अपनी इच्छा- नुसार ले लीजिये यह सब लीला देख कर गोपियाँ घबड़ा गईं | पर एक ब्रजकिशो री चतुरा समझ गई यह कोई चाल है । इस भावना निकुन्ज में लाकर हम सबको वंरागिन बनाने का! रूपक मालूम दे रहा है। उस चतुरा गोपी ने आगे बढ़ कर वह झोली तथा मालाओं को समेट कर बाहर ले आई। वहाँ बड़े वेष्णव साधु सन्‍त भगवदशनाभिलीषी खड़े हुए थे। उनको रास मण्डल में घसने का तो अधिकार नहीं था पर बांसुरी की तान सुन कर एकत्तित हो गये थे । उस चतुरा ने विरक्त वेष्णवों को उसकी इच्छानुसार प्रसाद रूप में वह झोलियाँ बाँट दीं तथा गृहस्थ बेष्णवों को ( १२४८ ) उनकी इच्छानुसार गौमुखी बांठ दी तथा कुछ साधुओं को कमण्डल दे दिये तथा ब्रह्मचारियों को पुस्तक बांट दीं श्याम सुन्दर भी यह लीला देखते रहे | गोपियाँ आकर वोलीं-श्याम सुन्दर यह वेरागियों की निकुन्ज हमको पसन्द नहीं है। हम तो आपके स्नेह की प्यासी है । नीरव नीरस निर्जन निर्मम निद्रित निशा जगादो श्याम शुध्र चन्द्र की सुभग ज्योति में ललित कला वरसा दो श्याम सूर्य सुता पर स्वर लहरी में तरल तरंग उठा दो श्याम कण कण वन उपवन में नृतन जीवन धार बहा दो श्याम आज चलो फिर यमुना तट पर मुरली मधुर बजा दो श्याम एक बार बस एक बार आनन्द सुधा बरसादों श्याम मन्द मन्द मृदु हास सुमत का सुख सौरभ विथुरा दो श्याम मधुर वेणु के मृदु कल रव को मादक घूट पिला दो श्याम एक बार बस एक बार आनन्द सुधा बरसा दो श्याम आज चलो फिर यमुना तट पर मुरली मधुर बजा दो श्याम श्यामसुन्दर यहाँ से चलो आप हमको वेरागिन बनाना ( १३० ) चाहते हैं। यह तो घुडियान की कुण्ज हैं यहाँ तो वरागी रहते हैं। इयाम थोड़ी सी असावधानी में यह माला झोली हमारे शिर मढ़ जाती । वह तो अच्छा हुआ साधु सन्त आ गये । वह आपका प्रसाद माथे लगा कर ले गये। वह देखा विरक्त वावा सब झोलियाँ ले गये । तरह सब ब्रह्मचारी आपकी पुस्तकों को ले गये। वह कुछ गृहस्थी भक्त गौमुखी ले गये तथा यह सन्‍्यासी महात्मा आपके कम्बल ले गये। हम तो सब वबाल से बच गई। यह सब लीला देखकर एक बार उस कामदेव को भी झटका लगा कि कहीं गोषी इन पो्थी मालाओं को न सम्भाल लें फिर श्री कृष्ण को वश में करता असम्भव हो जाता । गोपियों ने कामदेव को फिर मेंदान बना दिया और व्यामसुन्दर को भावना निकुन्ज में से निकाल लाई। यह जो धामिक पुस्तकें तथा गौमुखी माला झोली एवम्‌ कमण्डल आदि साधु सामिग्रों भगवत्थसाद है। इनको कोई भागवती ही प्राप्त कर सकता है। सर्वेसाधारण के भाग्य में आने वाली सम्पत्ति नहीं है । चन्द्रानना ने कहा-श्यामसुन्दर, आपने जो हमको मार्स दिखाया था यह सब बड़े ज्ञानियों का मार्ग है। हम अवलाओं में इतनी बुद्धि कहाँ है जो इसको सीख सकें। श्यामसुन्दर देखो वृन्दाजी ने कंसी सुन्दर पुष्प निकुन्ज बनाई है। सब देवियाँ रास रासेश्वरी राधा एवम्‌ सर्वेश्वर श्री कृष्ण को लेकर पुष्प निकुन्ज में था गई | यहाँ सभी शोभा पुष्पों से बनाई है । %£ पुष्प निकुझ्ज का वर्णन $# पीत का परकोठा बना है। दाऊदी के द्वार बने हैं। चमेली की चोखण्डी, दुपहरिया के दासे ! जाह को झरप गुल्लाला की ( १३१ ) गलता | केतकी के किवाड़। किशन देई की कील, सेबती की सांकर। कुन्द के कुन्दा, केला के खम्ब। मोतिया के मिर- गोल । सहदेई की सोठ, टेसू के तोड़े, छाबरी के छज्जे । मोगरा के मोखा; जाफरा के झरोखा, मदनवान की महराव, जुही की जारी, अरती के अटा, अनार की भअटारी, तुर्रा की तिवारी, चम्पा की चित्न सारी, हार सिंगार के हठरा, पितोनिया की पोरी, सुगन्धरा की सिडडी, छुई को छाप कुन्द के कमल, पीत की पताका धाय की ध्वजा वेला की वन्दनवार, पितोनिया का पलका, पीत की पाटी, सेवती के सेहरे, कमल के पाये, दुपहरिया की डोरी, गुलाब के गहा, चमेली की चादर, गुल सवों के गेंदुआ । पुष्प निकुन्ज में प्रिया प्रियतम का पुष्पों का ही शव गार हुआ है। प्रियाजी का श्युड्भार : चम्पा की चूनरी, लाल कमल का लंहगा, कुन्द की कंचुकी, चमेली की चरि्द्रिका, मोतिया को सांग, सूर्यमुखी के शीश फूल, वरबवीना का वोरला; वरफ की वन्दिनी, बेला का वेना, वबूना की बेंदी, कदम के झूमका, कमल के कर्णफूल, बसन्‍त की विचकनी। वासूमती के बाला, नरगिस की नथ, बोरे श्री की भोगली, चान्दनी का चन्द्रहार; इस्क पेच की इकल री, दुपहरिया की दुलरी, तुर्रा की तिलरी, सुबन्धरा की सतलरी, हार श्थूगार के हार, कचनार के कठला, मोतियों की माला, जुही की जौ माला, मरुआ की मोहन माला, तिलहर का तिमनिया, पितोनिया का वंचमनिया, मुलर बांस के बाजू, बोरा श्री के वराप्रीत कमल की पछेली, पितोनिया की पहुंची, दाऊदी के दुआ; अरती की आरसी, फ्रेतकी के कड़े, कमल के कंकड़, छावरी के छल्ला, छुईं की ( १३२ ) छाप, हार श्द्धभार के हथफूल, केवड़ा की कौधनी, पीत के पायजेब, नागचम्पा के नूपुर, चमेली की चुटकी, अनार के अनवट, सेबती के सांकड़ा, सहदेई की सांट, छई की छेलखड़ी, जाफरा की झांझन | यह श्री प्रियाजी का श्वूगार है। श्री श्यामसुन्दर जी का श्यूद्भार : मोतियों का मुकुट, सोन- जुही की पाग, चमेली की कलंगी, गुल तुर्रा के तुर्रा। कदम्ब के कुण्डल, सेवती का जामा; फिरंग का फेंटा, पीत का पटका, पठार का पायजामा, सुन्दरा की सांकर, कैतकी के कडूला, मालतो की माला, रायबेल की मृ्‌ दरी, जुही का जोसन पुष्प निकुन्ज में पुष्पों का ही श्र॒गार हुआ है। वहाँ के द्वारपालों का भी पुष्पों का श्वु गार हो रहा है। बुन्दाजी ने पुष्प निकुज में प्रिय प्रियतम के झूलने को पुष्पों का ही हिडोला बनाया है। उस पर श्याम श्यामा दोनों बेठे हैं तथा ब्रजदेवियाँ उनको झुलाने लगी :-- युगलवर झूलत दे गल बाही वादर वरसे चपला चमके, सघन कदम्ब की छांही इत उतत पेग बढ़ावत सुन्दर मदत उमंगन माही ललित किद्योरी हिडोला झूलें बढ़ यमुना लों जाही युगलवर झूलत दे गल वांही कितना माधुर्य रस उमड़ रहा है इस हिंडोला लीला में यहाँ सभी सूुखदायी ऋतु अपनी-अपनी लीलानुसार स्वयं भा ( १३३ ) रही हैं हिडोला लीला में तो वर्षा ने सबको तराबोर कर दिया है इस समय उमंग तरंगों का आना भी स्वाभाविक है। सखियां सावन के गीत-गारियां गाने लगीं । देखोरी मुकुट झोका ले रहयो । ले रह्मो यमुना के तीर । देखो० मणिमय कुण्डल झलक रहे हैं । सुरभित चलत समीर । देखो० मुक्ता मणि कौस्तुभ मणि राजे । वीर धरावे धीर । देखो० क्ुद्र घन्टिका कटि तट सो है । वरसत आनन्द नीर । देखो० रत्न जड़ित नृपुर पग सोहे । हरत जगत की पीर । देखो ० यहाँ होली का भी महोत्सव मनाया गया है। देखते ही देखते होली महोत्सव की सब सामिग्रियाँ एकत्रित हो गई। कुकुम गुलाल रंग भरी पिचकारी सभी ग्रुलाल वर्षा करने लगे। इस आनन्द में किसी को समय का ज्ञान नहीं है। इस उत्सव में राधाजी नन्दनन्दन बन गई नन्दनन्दन राधा रूप बन गये । श्याम श्यामा सों होली खेलत आज नई नन्‍्द नन्दन को राधे कोनो माधव आप भई ( १३४ ) बाजत ताल सृदंग झांश ढप ताचत थेई थेई गोरे श्याम सामरी राखे या मूरति चितई पलटो रूप देख मोहन को सृुधि बुधि बिसर गई। इस प्रकार रास मण्डल में सभी लीलाओं का उत्सव मनाया गया हैं। ततश्च कृष्णोपवने जल स्थल । प्रसन गन्धानिलजुष्ट दिक्‌ तटे ॥। चचारभ ग॒ प्रमदागणा बतो । यथा मदच्युद्‌ द्विरदः करेणुनि: ॥१३१॥ भगवान श्री कृष्ण चन्द्र प्रमदाओं से घिरे हुए यमुना के वन उपवन में थल क्रीड़ा एवं सभी प्रकार की जल क्रीड़ा कर रहे हैं। एक मद स्त्रावी गजराज की तरह उपवन में भ्रमण कर रहे हैं । आगे आपकी जल क्रीड़ा है श्री यमुना पुलिन को देखकर तो सबकी जल क्रीणा करने की इच्छा हो गई। श्री बिहारी जी एवं बिहारिन जी सब सखियों के साथ श्री यमुना स्तान को पधारे। यह तो एक आनन्दमयी क्रीड़ा है। एक दूसरे पर पानी उलीचना। श्री बिहारी जी चारों ओर पानी उछांट रहे तथा सखियां भी चारों ओर से बिहारी जी पर पानी की वरसा कर रहो हैं। यह अद्भुत जल विहार लीला है। श्री ( १३५ ) यमुना जी की भी आज शोभा बढ़ रही है मानो श्रीजी ने अपना आगार किया है। चारों ओर देवलोक के सुमन बिखर रहे हैं। रस शास की वर्षा हो रही है। यह सब आनन्द प्रेम की लीला है। जब देवियों ने देखा कि बिहारी जी को अधिक परिश्रम हो रहा है। तब जल से निकल कर विहारी जी का शज्धार किया। उस समय ब्रज देवियों के बीच में से प्रभु फिर अन्तर्धान हो गये। यह कसा आदरचय है ? अब तो हमसे कोई अपराध भी नहीं हुआ । ब्रज देवियाँ श्याभसुन्दर को चारों ओर डूढने लगीं। बंशीवट यमुना तट एवं सभी कुन्ज निकुस्जों में प्रभु को देखा पर कहीं पता नहीं लगा। निराश होकर देवियाँ घाट पर आकर श्री कालिन्दी के पार के भंदान को देखने लगीं। उस समय घाट पर एक नौका खड़ी देखी । यहाँ एक नाविक भी यघुना तीर पर कम्बल ओढ़ कर सो रहाथा। वहु किशोरीगण नदी के किनारे पर खड़ी घुकार रही हैं! हा नाथ हा रमानाथ ! हा दीनाताथ ! हा अनाथों के नाथ, आप कहाँ हो हमने तो कोई आपका अपराध नहीं किया । एक मसोपी बोली-बहिन, हमने उनकी भावना निकुन्ज का अनादर कर दिया इससे तो वह असन्तुष्ट नहीं हो गये । एक गोपी ने कहा--बहिन, वह ऐसी छोटी-मोटी बातों पर बुरा मानने वाले नहीं हैं। जो महान हैं बह छोटों के अपराध नहीं देखते । एक सुन्दरी ने कहा--सखि,' श्री विहारीलालजी कहीं यघुता पार अपने गुरुदेव के पास तो नहीं चले गये। ऐसा विचार कर देवियाँ उस नाबिक के पास भाकर बोलीं-- भैया, हमको यमुना पार जाना है। नाविक भी आलस्य में भरा था पर इतनी गोपियों को देख कर आश्चर्य में पड़ ( १३६ ) गया। वह अपना कम्बल सम्भालता नौका दण्ड को लेकर नाव पर चढ़ गया। गोपियाँ भी उसमें चढ़ गई एक ऐसा चमत्कार कि वह नौका बड़ी होती जा रही है। उसमें अनगिनती गोपियाँ चढ़ गई। बड़ी तेजी से नाव यमुना की बीच धार में पहुंच गई । नाव बहुत तेजी से चल रही है। उस समय नाबिक श्री राधाजी से बोला :-- राधेत्व परिमुच नील वसनं । मारूहमय नोकामिर्मा ॥ बातो वारिद सम्प्रमाद्‌ यदि वहेतु । मग्नाभवेन्नो रिदस ।) शुक्ल सद्‌ वसनान्‍तर परिदधा । म्यादों तबेदं बपु: ॥ श्याम श्याम नवीन नीरद सर्म । तक़ समाच्छाथताधु ॥१३२॥ नाविक बोला--राधे, आप इस नील वस्त्र को त्याग दो कारण यह बादल जैसा दीख रहा है। कहीं इस वस्त्र को बादल समझ कर पवन ने झोका दे दिया तो नाव डूब जायगी। राधा--अरे नाविक मेरा तो नीला ही वस्त्र है। तेरा तो शरीर काला है। पहले तू अपने शरीर में मठा लेपन कर ले फिर पवन की बात करना। वह नील वस्त्र को बादल समझता है या कारे रंग को बादल समझता है। उस समय नाविक श्री किशोरीजी को उस शुण्ड में देख कर परम आश्चये में पड़ गया और बोला--हे तरुणि, आपके साथ बहुत गोपियाँ हैं। राधिकाजी परिहास कर बोली--यह नौका ( १३७ ) है तर नहीं तरि और तर दोनों शब्दों की सप्तमी में तरों बनता है । नाविक बोला--मैं तरणि कह रहा हूँ। राधाजी ने कहा-- तरणि सूर्य का बोधक है। इस प्रसंग में सूर्य को लाने की क्या आवश्यकता है। नाविक लज्जित हो गया। राधाजी बोली--भरे नाविक, नाव तो तेरी नवीन है और नौका दण्ड भी नवीन मालूम पड़ता है। इससे हम सब यमुना पार जल्दी पहुंच जायगी | पर एक शंका है । शंका निदानसिदमेव ममातिमात्तं, त्व॑ चंचलो यदिह माधव नावको5ठपि ॥१३३॥ अरे नाविक, तू माधव की तरह अति चंचल मालुम पड़ता है। उस समय परिहास प्रिय उस नाविक ने एक ठोकर से नाव का तख्ता तोड़ दिया। अब तो उसमें पानी भरने लगा। गोपियां व्याकुल हो गई। हाय ! अब हम सब डूब जायेंगी। हाय श्यामसुन्दर ! दर्शन भी न हो सके। भरे भेया, तू ऐसी टूटी नाव क्‍यों रखता है। नाविक बोला--तुम्हारे वजन से या तुम्हारे आभरणों के वजन से यह नाव ड्ब रही है। देखो, तुमको त्तो अपनी जान की चिन्ता है। मुझे तो जानमाल दोनों की चिन्ता है। नाव न रहने से मेरे बच्चे भूखे मर जायेंगे । गोपी बोली--बहिन, यह मल्लाह तो बड़ा' मसखरा मालूम देता है। हां बहिन, कोई चोर मालूम देता है इसकी हमारे गहनों पर नीयत है । भरी, यह तो तेराक होते हैं। यह तो कद कर निकल जायगा। एक गोपी ने कहा निकलेगा कंसे इसको पकड़ लो। चारों ओर से मललाह का कम्बर खींचने लगी। उसमें से श्यामसुन्दर प्रमट हो गये अब तो सभी ( १८ ) शौषियाँ हँसने लगी। भगवान बोले-गोपियों, यह हँसने का समय नहीं है। एक गोपी बोली--महाराज ! यह मल्लाह का काम आपने कब से ले लिया है। भगवान बोले--अब आप सब मिल कर इस पानी को उलूचिये गोपपुन्दरी ने कहा-- श्यामसुन्दर, अब हमको नाव डूबने का भय नहीं है कारण संसार सागर से पार लगाने वाला हमारे साथ है फिर इस छोटी-मो टी नदियों का क्‍या भय है। देखिये, गोपियों की अखण्ड ब्रह्मांड नायक भगवान श्री कृष्ण चन्द में कैसी भावना थी । उस समय आपने नौका किनारे से लगा दी। रास बिहारी श्री कृष्ण गोपियों से कहने लगे। देखो यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मण भोजन कराना जरूरी होता है। आप भी अब ब्राह्मण भोजन कराइये | गोपी--प्रभुजी यहाँ इस समय कौन ब्राह्मण मिलेगा । श्यामसुन्दर ने कहा--यमुना पार मेरे गुरुदेव दुर्वासाजी रहते हैं उनको आप भोजन कराओ। एक गोपी मे कहा--श्यामसुन्दर, यह नाव तो आपने तोड़ दी। अब हम उस पार कंसे जायेगी। भगवान ने कहा-- गोपियो; यमुना से प्रार्थना करो । है यमुने यदि श्री कृष्ण चन्द्र बाल ब्रह्मचारी हैं तो तुम हमको मार्ग दे दो । गोपियाँ नाना प्रकार के पकबान मिठाई चतुविध भोजन सामिग्री संजोय कर यमुना किनारे आ गईं । श्री यमुना जी से कहा--हे यमुने | यदि श्री कृष्ण जी बाल ब्रह्मचारी है तो तुम हमको मार्ग दे दो। यमुनाजी मे' उनको पार जाने का मार्ग छोड़ दिया । ( १३४ ) वह सब दुर्वासा जी के पास पहुंच गई। उनको सबने भोजन कराया | ब्रज देवियां दुर्वाप्ताजी को भोजन परोस रही हैं । लड़आ नुकती रबड़ी पेड़ा, खीर, जलेबी,. खाजा खुरमा, अमरस, मेवा, गौरस नेनि मलाई ताजा रसगुल्ला रसभरी समोसा हलवा सरस करारी सिरसा मोहन भोग वेसनी रवणी विविध प्रकारी सेव कचौरी दाल सलोनी सोठ तलेवा न्यारी निबू आम मुरब्वा चटती अदरख विविध तरारी आम अनार नारंगी लीची केला अम्बज खिरनी सेव जम्बु अग्ूर फालसे सारदा किसमिस इरनी बहु व्यंजत पकवान सुगन्धित त्यार किये हैं. भर भर प्याले थार सखी सब करन लिये हैं ( १४० ) दुर्वासाजी को भोजन करा रही हैं। सबके मन उल्लास में भर रहे हैं। जंपे भोजन करने वारे तेसे ही भोजन कराने बारे महामुनि को आज इच्छानुसार भोजन सामिग्री मिल रही है। गोपियाँ थक गई जेसे गिरराज बाबा को भोजन कराते-कराते गोप थक गये थे। अब तो एक ब्रजकिशोरी जल की झारी ले आई। जल झारी लाई सखि सौरभ सरस मिलाय अचवत पान करायकें दपंण. दिये दिखाय॑ बस गुरुजी, अब अपने मुख के लिए स्वच्छ करो। समय बहुत हो गया है अब हमको यमुना पार जाना है। गोपियों ने गुरुजी की बड़े मान सन्‍्मान से पूजा की है। कारण यह हमारे स्वामी के भी स्वामी हैं। अब देवियाँ अपने रीते पात्रों . को लेकर यमुना किनारे आ गई पर श्री यमुना जी के गम्भीर वेग को देख कर रुक गई। अब उस पार कसे पहुंचे। उस समय कुछ गोपियाँ गुरुदेव से कहने लगीं। बाबा बताओ, अब हम यमुत्ता के पार कैसे जायाँ। उस समय महामुनि बोले देवियों, तुम यमुना से कहो कि यदि दुर्वासा जी केवल दूर्वाका ही आहार करने वाले है तो हमको तुम मार्ग दे दो | कुछ गोपियाँ तो आइचये करने लगी कि इतना बड़ा भोजनी और अपने लिए दुर्वाहारी वत्ताता है। उस समय बाबा को हँसी आ गई और बोले-ब्रज रानियों, तुम शंका मत करो । जाओ जल्दी जाबो श्रीजी के पास बह तुमको अवश्य मार्ग दे देगी। वह करुणा की सागर हैं। गोपियाँ ( १४१ ) यमुना तट पर आकर कहने लगी-यमुने हमको मार्ग दे दो । जैसे ही गोषियों ने यमुना से कहा कि दुर्वासा दुर्वाहारी हैं तो हमको मार्ग दे दो उसी क्षण यमुना पांज हो गई। सभी गोपी ब्राह्मण भोजन करा कर आ गई । इसका आशय स्पष्ट है कि भगवान अनन्त कोटि बनताओं के साथ रहकर भी ब्रह्मचारी है तथा आपको रास के बाद ही योगेश्वर की उपाधि प्राप्त हुई है। यह है कामदेव की पराजय । महामुनि दुर्वासाजी आज सभी गोपियों की सामिग्री अरोग गये । फिर भी दुर्वासा है वह दूब खाकर ही ब्रत करते हैं और बरसों दूब के सहारे रह सकते हैं। अतः उतका नाम दुर्वाहारी कहलाता है। यज्ञ के अनन्तर ब्राह्मण भोजन भी हो गये। अब वह ब्रज सीमन्तियां पुष्प निकुन्ज में आकर ही विश्वाम कर रही है । रास रासेश्वर भगवान श्री कृष्ण एवं रास रासेश्वरी श्री राधा एक दिव्य सिहासन पर विराजमान हैं। सब साजों से सुसज्जित गोपियाँ बठी हैं। एक साथ वीणा की झनकार होंने' लगी मृदंग ध्वनि से निकुन्ज मानो ताल से नृत्य करने लगी। गोपियाँ श्री राधा कृष्ण के गुणानुवाद वर्णन करने लगी । जय राधे जय राघे राधे जय राधे जय श्री राधे जय कृष्ण जय कृष्ण कृष्ण जय कृष्ण जय श्री कृष्ण ( १४२ ) श्यामा गोरी नित्य किशोरी प्रीततम जोरी श्री राधे रसिक रंगीलो छेल छबीलो गुन गरवीलो श्री कृष्ण रासव्हिरिन रसविस्तारिन पिय उर धारितनी श्री राधे नव नव रंगी नवल त्रिभंगी श्याम सुअगी श्री कृष्ण प्राण पियारी रूप उजारी अति सुकुमारी श्री राधे मौन मनोहर महामोद कर सुन्दर वरतर श्री कृष्ण शोभा श्रेणी महायोनी कोकिल बेनी श्री राधे कीरतवन्ता काम निकनन्‍्ता श्री भगवन्ता श्री कृष्ण चन्दा वबदनी कुन्दा रदनी शोभा सदनी श्री राधे परम उदारा प्रभा अपारा अति सुकुमारा श्री कृष्ण हंसा गमनी राजत रमनी क्रीडा कवनी श्री राधे ( १४३ ) रूप रसाला नयन विशाला परम क्षपाला श्री क्रृष्ण कांचन वेली रति रसेली अति अलवेलि श्री राधे सब सुख सागर सब गुन आगर रूप उजागर श्री कृष्ण रमणी रम्या तरु तर तम्या सग्रुण अगम्या श्री राघे धाम निवासी प्रभा प्रकाशी सहज सुहासी श्री कृष्ण शक्ताहलादिनी अति प्रिय वादिनी उर उन्मादिनि श्री राधे अंग अंग टौना सरस सलौना भुभग सुलौना श्री कृष्ण राधा नामनिगुण अभिरामनि श्री हरिधामनि श्री राधे जय राधे जय राधे राधे राधे जय राधे जय श्री राधे जय कृष्ण जय क्ृष्ण कृष्ण जय कृष्ण जय श्री कृष्ण इस प्रकार रास महोत्सव में सभी ने मिल कर यह श्री राधा कृष्ण के गुणानुवाद वर्णन किये। ब्रज किशोरी गणों के तो राधा ( १४४ ) कृष्ण हो सर्वस्व हैं। उनके दिव्य वेभव के दशेन' के उद्देश्य से ही यह रास क्रीड़ा हुई है। रास रासेश्वर भगवान श्री कृष्ण चन्द्र की इस आनन्दमयी क्रीड़ा के दर्शन हेतु श्रूति मुनि देव सब गोपी रूप धारण करके प्रगट हुए हैं । यह रस रास चरित हरि कीनों व्रजयुवतिन वांच्छित फल दीनो ब्रज तिय सुख हित कुज बिहारी करी मास निशि षट उजियारी साथ न हो युवतिन मन राखी श्री भागवत कह्यों शुक भाखी वेद उपनिषद्‌ साख बतावें ब्रह्मा शम्भु सहस मुख गावें नारद शारद ऋषिय अनन्‍न्ता कहत सुनत गावत सब सन्‍्ता सोरह सह्न गोप सुध मारी तिन के संग लाल गिरधारी कियो रास रस रहस भअगाधा पूरत करी सबन की साथा ब्रजधुन्दरियों के आज मनोरथ पूर्ण हो गये वही देवियाँ रास रासेश्वर की आरती करने लगी । लेआई सखि आरती बत्ती दिव्य जराय। फेर फूल जल आरती करत फूल बरसाय ॥ के ॥ ॥/2 ॥| ॥॥ ५. 42 के े प १] ॥ जे 2॥॥॥॥8: 5७४/ ७ , - 70७ ५॥/ जा ५॥ ३५१३ २५ »» ५ बई | ९ । | ॥ ५) /६ ४५ * ५५, 5 श्र (१६ युगलवर राधा ननन्‍्दकिशोर (१४५ ) आरतो युगल किशोर की कीजे गौर इ्याथ को रूप रसामृत नयनन भर भर पीजे। आरती० मोर मुकुट सो मिली चन्द्रिका ताको. लख. लख जीजे। आरती० भूषन वशन अंग की जगमग छटा हृदय भर लीजें। आरती० इस प्रकार रास महोत्सव की समाप्ति पर सखियों ने रास विहारी जी की आरती की । श्री रास बिहारी ने इस रास महोत्सव के कारण यह आश्वन शुक्ला पूणिमा की रात्रि भी जो शरद पूणिमसा कह- लाती है। यह प्रभु ने छह मास के बराबर कर दी थी पर किसी को इसका ज्ञान नहीं। यह छः महिना की रात बड़ी जल्दी बीत गई। शेष रात्रि में श्याम श्यामा को ग्रोषियों ने शेया पर शयन कराया। अत्यधिक परिश्रम के कारण श्याम इयामा को शीघ्र ही निद्रा आगई। गोपियाँ जहाँ बैठी थीं वहीं सो गई । जो वीणा बजा रही थी उसका हाथ वीणा पर ही रक्‍्खा है। वह धोर निनद्रा' में पड़ गई। जो मृदंग बजा रही है। वह मृदंग के सहारे ही सो गई रात्रि बीत गई, प्रात;।काल हो गया । श्यामसुन्दर गहरी निद्रा में सो रहे हैं रस्तागीरों के आने जाने का समय हो गया है। अब श्यामसुन्दर को कौन जमाये | गोपियों ने दृन्दाजी से प्रार्थना की आप ही इनको जगा सकती हैं। श्री वृन्दाजी ने भगवान के जगाने को पक्षियों को संकेत किया कि आप श्यामसुन्दर को जगाबें। ( १४७६ ) निशाबसानं समवेक्ष वृन्दा वृन्दं द्विजानां निजशासनस्थ नियोजयामास स राधिकस्य प्रवोधनार्थ मधुसूदनस्य ॥१३४॥ निकुन्ज के पक्षिगण बुन्दाजी का इशारा पाकर चहचहाने लगे दाख के पेड़ पर बठी मेना बोलने लगी। आम के वृक्ष पर बेठी कोयल बोलने लगी। करोदा के पेड़ पर बेठा हुआ तोता बोलने लगा। पीलू के वृक्ष पर बठे कबूतर गुनगुनाने लगे। प्रियाल पर बेठे मोर अपनी केका वाणी सुनाने लगे। लताओं में छिपे भ्रमर ग्रुजारन लगे। पृथिवी में घूमने वाले मुर्गा बोलने लगे। मुर्गा की वाणी हृस्व दीघं प्लुत में होती है का] कुक्कुटोप्य पठन्‌ प्रात बेंदाभ्यासी वदु यथा । जिस प्रकार वेदाभ्यासी वट्ु प्रातः वेदाभ्यास करते हैं। उसी प्रकार कुक्क्रुट बोलने लगे। मुर्गा प्रात: सबसे पहिले बोलता है। मेना गोकुल वन्धों जय रस सिन्धों जाग्रहि तलपं त्वज शशि कल्प प्रीत्यनु कूलाश्िित पर मूलां बोधय कान्‍्तां रतिभर तांतां॥१३५॥ है गोकुल वन्धों हे रस सिन्धों आपकी सदा जय हो। जागिये प्रभु, इस चन्द्र शैया को त्यागिये प्रभु और प्रीति के अनुकूल नीति से शोमित रतिसे परिपूर्ण श्री किशोरी जी को भी जगाइये । ( १४८ ) याता रजनी प्रातजीत' सौरं॑ मण्डल भ्रदन प्राप्त' सम्पति शीतल पल्‍लवशयने रुक्तिमपनय सखि पंकज नयने ॥|१३६॥ श्री राधाजी से प्रार्थना कर रहे हैं रात्रि अब व्यतीत हो गई प्रात:काल हो गया है । भुवन भास्कर ऊपर चढ़ आये हैं। हे कमल नयने |! अब इस शीतल शया को त्यागिये | तोता : श्री कृष्ण के अनुराग की गरिमार्थ में निपुण अति धीर मति वाला तोता जो वाक्‌ चातुर्य में श्रेष्ठ था। वह श्री माधव को जगाने के लिए एक सुन्दर पद्यावलि बोलने लगा । जय जय गोकुल मंगल कन्द त्रज युवति तत भृग्यरि वृन्द प्रति पद व्धित नन्‍दानन्द श्री गोविन्दाच्युत नतशन्द ॥१३७॥ तोता की वाणी सुन कर द्यामसुन्दर उठ गये। कारण गोचारण के समय वह कौीरकी वाणी सुन कर उठते हैं त्रिभुवन सुन्दर श्याम कंसी भी घोर निद्रा में रहते थे किन्तु तोता की वाणी सुनकर शया त्याग देते हैं। कौर की वाणी ही गो सेवा का पाठ पढ़ाती थी। रस्तागीर आने जाने लगे। गोपियाँ भी भगवान से आज्ञा लेकर जाने लगी। अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड नायक भगवान से संस्पर्श पाकर गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेम और आनन्द में विह्वल १४४) हो गयी है । वह अपने-अपने शरीर को सावधान रख रहो हैं । उनके केश बन्धन खुल गये हैं हारमाला टूट गई है सभी गहने' अस्त व्यस्त हो गये हैं वह अपने को पूर्णतया सम्भालने में असमर्थ हो रही है। इस रास क्रीड़ा को देख कर स्वर्ग की देवांगगाये भी मिलन की कामना से मोहित हो गई है। अन्यान्य चन्द्रादिकों के मन भी चकित्त रह गये हैं। मन के अधिष्टात्री देवता चन्द्रमा की जब यह दशा है। तो मन की क्या गिनती और मन के पुत्र कामदेव को तो वहाँ क्‍या चल सकती है। उसे तो वहाँ से भागना ही पड़ा । यह रास महोत्सव शरद्‌ ऋतु में पूणिमा में मनाया गया कारण यह रात्रियाँ काव्य कथाओं के रस की आधार थी । एवं शशांकाशु विराजिता निशाः स॒ सत्यकामोपनुरता बला गण: सिषेव आत्मन्यवरुद्ध सौरतः सर्वा: शरदकाब्य कथारसाक्षया: ॥१३८॥ ह रास पंचाध्यायी का रास महोत्सव का अन्तिम इलोक है इसमें जो विशेषण दिये हैं। यह सब कामदेव पर विजय प्राप्त करने के हैं। जैसे सत्य काम । अनु रतावलागण: । आत्म- न्‍्यव रुद्ध सौरत: । भगवान सत्य संकल्प है। जी कि सदा अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हैं। गोपियों को वचन दिया था। तुम आगामी शरद्‌ ऋतु की रात्रि में मेरे साथ रहोगी। कृष्णावतार सभी के गये दूर करने को हुआ है। ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण, यमराज, कामदेव आदि का गर्व नष्ट किया है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि श्री शुकदेव जी एवं परीक्षित महाराज निगमकल्पतरोगलितं॑ फल, शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्‌ । पिबत भागवतं रसमालयं, मुहुरहो रसिका भुवि भावुका: ॥। ( १५१ ) को परास्त करने के हेतु ही आपका अवतार है। भात्मन्यवरुद्ध सौरतः | इस लीला में काम भाव को तथा उसको चेष्टाओं को एवं उसकी क्रियाओं को सबंधा अपने अधीन कर रकक्‍खा था। रास माहात्म्य को सुनकर महाराज परीक्षित बोले :-- संस्थापनाय धर्मेस्य प्रशभायेतरस्थ च अबतीर्णो हि भगवान अंशेन जगदीश्वरः ॥१३४॥। सकथ धर्मसेतुनां वक्ता. कर्ताभिरक्षिता। प्रतीपभाचरद ब्रह्मन्‌ पर दाराभिमशंणम्‌ ॥१४०॥ भगवान श्री कृष्ण चन्द्र सारे जगत के ईश्वर हैं। आपने पूर्ण रूप से अवतार लिया है। आप धर्म के वक्ता कर्ता रक्षिता हैं फिर भी आपने धर्म व्यतिक्रम किया जो पराई स्त्रियों के साथ रास किया । इसमें क्‍या अभिप्राय है । श्री शुक उवाच : धर्मव्यतिक्रमो दृष्ठ ईश्वराणां थे साहसस्‌ तेजोयर्सा न दोषाय बन्‍्हे: सर्वंभुजो यथा ॥१४१॥ ( १५२ ) श्री शुकदेवजी ने कहा--राजन्‌, ईश्वरों के साहस को कोई क्या समझ. सकता है। उनमें धर्म व्यतिक्रम देख कर तुम विचलित हो गये । एक शक्तिशाली पुरुष जिस काम को कर सकता है क्‍या उसे सर्व साधारण कर सकते हैं। दार्शनिक परम्परा! के अनुसार ईश्वर कर्म के बन्धन में नहीं फँसता । एक तेजवान पुरुष में ऐसे व्यतिक्रम नहीं देखे जाते। वह स्व शक्ति सम्पन्त होता है । उसमें कोई भी दोष नहीं लग सकता । ईश्वराणां चचः सत्य तथवा चरित' क्वचितु तेषां यत्स्ववचोयुत्त' बुद्धिमांस्तत्समाचरेतु ॥१४२॥ ईश्वरों के वचन सत्य हैं। उनके आचरण को कहीं सत्य माने जैसा उनने कहा है। उसके अनुसार बुद्धिमान पुरुष को आचरण करना चाहिये श्री राम एवं श्री कृष्ण के ही प्रधान अवतार हुए हैं। श्री राधवेन्द्र रामजी ने जैसा कहा है वसा ही किया है। अतः रामजी का कहना तथा करना दोनों ही आचरण करने योग्य हैं। इसी प्रकार श्री कृष्ण ने जो कहा है गीता वाक्य उनका आचरण करे। उनको लीलाओं का तो ध्यान करना चाहिये। जो मनुष्य उनकी वाक्य निष्ठ प्रामाणिकता की अपेक्षा आचरणनिष्ठ प्रामाणिकता का सम्बल लेकर स्वयं धर्माति क्रान्त स्वच्छन्द पथ का आश्रय लेते हैं वे बुद्धिहीन हैं । बुद्धिमान व्यक्ति के लिए महा पुरुषों की उन्हीं लीलाओं का अनुकरण श्र यस्कर होता है जो लीलायें उनके उपदेशात्मक है वाक्य विन्यास के अनुकल होती है अन्यथा पुरुष स्वयं विपत्ति में पड़ जाता है। ( १५३ ) राजन; सूये अग्नि आदि ईश्वर जो कभी धर्म व्यतिक्रम करते हैं इसमें तेजवान पुरुषों को कोई दोष नहीं लगता । देखो, अग्नि सब कुछ खाता है किसी में लिप्त नहीं होता । जो अग्नि अपवित्न मृत देह का भक्षण करता है वही अग्नि यज्ञ की आहुतियाँ भी भक्षण करता है। मृत देह का भक्षण करने पर भी अग्नि को दोष नहीं होता । तेजीयसां न दोषाय बन्‍हेः सर्वभुजो यधा ॥१४३॥ अब तेजवानों के प्रभाव की बात सुनिये :-- प्रजापते ब्रह्मणो दुहित्रानुगमनाम्‌ इन्द्रस्याहलल्‍्या. गृह गमनम््‌ सोमस्य गुरु स्त्री तारागमनस्‌ विश्वामित्रस्याभक्षमांसासनम्‌ प्रभूत्ति आदिन: सप्तर्षिणां शव भक्षणोद्योग: । अजीगतंस्य पुत्र विक्रय: । पराशस्य दास कन्या संगरच ग्राह्य:। तप आदि प्रभावोदभूत तेजसा साहसस्यदम्धत्वाहोषाय पापाय नेति हृष्टान्तः वन्हे: सर्व भुजो यथा--गौ ब्राहमणादि शरीरामेध्य दाहे--ना ग्नेह त्यादि दोषो भवति तेजस्वित्यादिति । जिन लोगों में इस प्रकार की शक्ति नहीं है उनको कभी ऐसी बात नहीं सोचनी चाहिए। यदि कोई मू्खेतावश ऐसा काम कर बेठता है तो उसका नाश ही हो जाता है। विनस्यत्योचरेन्मौठयाद्यथा रुद्रोडव्धिजं विषम्‌ ( १५४ ) शैकरजी ने विष पान किया वह समर्थ है दूसरा तो विष पीकर मर ही जायगा। इसलिए तेजवानों के तो बचनों का ही पालन करना चाहिये उनका अनुकरण नहीं करना चाहिये । गीता के वचनों के अनुसार चलना है। यह उन्चकी वाणी है। भाई ईश्वर के साथ भाव शुभ अशुभ कंसे जोड़ा जा सकता है । भगवान जीवों पर कृपा हेतु ही मनुष्य रूप में प्रगट होते हैं। गोपी और उनके पतियों के तथा सम्पूर्ण श्रीरधारियों के शरीर में आत्मा रूप से विराजमान सब्व साक्षी परम पत्ति अपना दिव्य चिम्मय श्री विग्र॒ह॒ प्रकट करके लीला करती हैं ? जिनके चरगारविन्द परागके सेवन से संतृप्त तथा योग के प्रभाव से समस्त बन्धनों को दूर करने वाले मुनिजन भी बन्धन मुक्त होकर स्वेच्छा से जगत में भ्रमण करते हैं। तब बताइये श्री कृष्ण चन्द्र, में यहु दोष कंसे आ सकता है। राजन, मैं यह जानता हूँ आपने इन साधारण बुद्धि वाले मनुष्यों के सन्देह निवृत्त करने को ऐसा प्रइन किया है। अन्यथा शंका करते समय आप ऐसे वचन न कहते कि आप्तकाम-यदूपति इससे स्पष्ट है कि परीक्षित राजा के हृदय में कोई शंक्रा नहीं थी यह तो अन्यान्य सामान्य पुरुषों को सन्‍्तोष दिलाने को महाराज ने ऐसा कहा था । यत्पाद पंकज पराग निषेष तृप्ता योग प्रभाव विधृता खिल कर्म वन्धाः स्वेरं चरस्ति मुनयो४ पिन नह्यमाना स्तस्पेच्छयाउत्त बपुष: कुत एब वन्च: श्री कृष्ण की माया का तो ऐसा प्रभाव रहा है। कि सभी ( १४५ ) गोप अपनी पत्नियों को अपने पास ही मानते रहे । ब्रजवासियों की श्री कृष्ण के प्रति शंका नहीं हुई। यह योगेश्वर की लीला है चार वर्ष के थे जब ब्रहमणमा जी को अपनी ईश्वरीय लीला दिखाई तथा आठ वर्ष की अवस्थः में ब्रजवासियों को ईश्वरीय लीला के दर्शन कराये जिन ब्रजवासियों की महिमा ब्रह्माजी ने वर्णन की थी :-- अहो भाग्य महो भाग्य नन्‍द गोप ब्रजोकसाम्तु यन्मित्र' परमाननदं पूर्ण ब्रहा सनातनथ्‌ अहा ! इन ब्रजवासियों के समान किसका भाग्य होगा। जो सनातन ब्रह्म परमानन्द जिनका मित्र है। उन महाभागी शब्रजवासियों को आपने यह लीला दिखाई है! ब्रह्म रात्र उपावृत्त वासुदेवानुमोद्िता: अनिच्छन्त्योययू गो प्यि: स्वग्रहाल भगवत्त्रिया: श्राह्म मुहुतें हो गया पर किसी मोपी का भगवान के पास से जाने को मन नहीं कर रहा है पर भगवान के आदेशानुसार वह भगवत्प्रिया अपने-अपने घरों को चली गई । अनुग्रहाय भूतानं मानुषं देह माश्चित भजते ताहशी क्रीड़ा यां श्र त्वा तत्परो भवत्‌ । श्री बिहारी जी ने प्राणियों पर कृपा हेतु मनुष्य रूप धारण किया है और ऐसी-ऐसी लीलायें आपने की हैं जिससे प्राणी मात्र श्री कृष्ण परायण हो जाता है । ( १५६ ) विक्रीडित' ब्रजवधूमिरिदं चर विष्णों: श्रद्धान्वितो3नुश णुयादथ वर्णयेद थः भक्ति परां भगवति प्रतिलभ्य काम हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ॥ श्री शुकदेवजी राजा परीक्षित से कह रहे हैं। महाराज सुनिये--श्री कृष्णचन्द्र को इस चिन्मय .रास विलास लीला को जितनी बार श्रद्धा से पढ़ेगा या सुनेगा उसकी भगवान के चरणों में परा भक्ति बढ़ती ही जायगी और बहुत शीघ्र अपने हृदय के रोग काम विकारों से छुटुटी मिलती जायगी। उसका काम भाष सवंदा के लिए नष्ट हो जायगा। परात्पर भगवान की यह महारास लीला ही सर्वोत्तम है पर इसके लिए पात्र भी सर्वोत्तम होना चाहिए। कारण उत्तम पात्र में ही रासलीला का रस ठहर सकता है। बिना पात्र के वस्तु नष्ट हो जाती है। जैसी सामिग्री बेसा ही पात्र सम्भव है श्री वाररायणी भगवान ने श्री क्ृष्णचन्द्र की अन्य लीलाओं को नदी स्वरूप में वर्णन किया है और रासलीला को तो कृप के जल के समान बताया है कारण नदियों के जल को तो प्रत्येक व्यक्ति प्रयोग कर सकता है। पात्र नहीं है तो हाथों से ही पी सकता है। हाथ भी नहीं तो मुंह लगा कर भी पी सकता है। यहाँ अधिकारी एवं अनधिकारी का भी प्रयोजन नहीं है। सबको समान है। यह लीला सबको सबंदा काल में मिल सकती हैं। पर रासलीला कूप जल के समान है इसके लिए तो डोरी की आवश्यकता है। प्रेम पात्र चाहिए और निष्ठा रूप डोर चाहिए इसीलिए इस अन्तिम पद में लिखा है । ॥ श्रद्धान्वितोउनुश्ञणुयादथवर्ण येद्‌य : ॥। ( १५७ ) बिना प्रेम श्रद्धा के रास पंचाध्यायी के कूप से एक बूंद भी रस की नहीं मिल सकती है। ऐसी निष्ठा होनी चाहिए हम इसी रस को पीयेंगे। इस जन्म में नहीं तो सौ जन्म में पीयेंगे । इसके हमको चाहे बार-बार जन्म लेना पड़े | कारण सर्व वेदान्त सारं॑ हि श्री भागवतमिष्यते । तद्रसामृत तृप्तस्य नान्‍्यत्रस्था दति: क्वचित्‌ ।। श्रीमद्भागवत सर्व वेदान्तों का सार है। भागवत रसामृत से तृप्त जन की फिर किसी में प्रोति नहीं रहती। बस रासो- त्सव में ही रस की परम चरम स्थिति है । रासलीला ही लीला मुकुट मणि हैं। इसको ही माघुर्य मुकुट मणि कहते हैं। इसको हो त्रेलोक्य सौभाग्य मुकुट मणि कहते हैं । इस सौभाग्य सम्पत्ति का प्रसाद तो इन ब्रजवासियों को ही मिला है। इसके लिए बेकुण्ठ लोकवासी भी तरसते हैं । नायं श्रियो$ड्भः उ नितान्त रतेः प्रसाद: । स्वर्योषितां नलिन गनन्‍्ध रुचां कुतोन्या: | रासोत्सवेउस्य भुजदण्ड गृहीत कण्ठ । लव्धाशिषां य उदगाद्‌ ब्रजवल्लवोनाम्‌ ॥। ब्रज देवियों का ही यह सौभाग्य रहा है। जो कि श्याम सुन्दर इनके गले में हाथ डाल कर ब्रज वीथियों में भ्रमण कर रहे हैं। जेसा इनको ब्रजनन्दन ने कृपा प्रसाद वितरण किया है। वेसा भगवान की परम प्रेमवती नित्य संगिनी वक्षस्थल पर विराजमान लक्ष्मीजी को भी नहीं मिला। कमल गन्ध की सी सुगन्धी वाली देवांगनाओं को भी यह प्रसाद नहीं मिला और तो किसको मिल सकता है । ( १४८ ) जो सुख लेत सदां ब्रजवासी सो सुख सपनेहु नहिं पावत, जे जन हैं बेक्रुण्ठ निवासी । हां घर घर है रहो खिलौना, जगत कहे जाको अवनासी । नागरिदास विश्व ते प्यारी, लग गई हाथ लूट सुख रासी । कहने में कोई नहीं चुकता । हे रसिक गोविन्द ! बेकुण्ठ में तो एक अकेली कान्ति से हो चरण सेवा करा लेते होंगे। यहाँ तो गोपियों के साथ गनवाही देकर घूमने की स्वतन्त्रता आपको मिली है। इस परिहास के साथ ही इस इलोक के ब्रजवधु शब्द पर ध्यान आता है। विक्रीदितं ब्रज वघूभिरिदज्च विष्णो: ब्रज युवतियों के साथ जो रासलीला विलास ब्रजवधु-- यह एक केवल ब्रज के गोपों की वधू नहीं है। इसका भाव तो यह है। श्री कृष्ण को प्रेमपाश में बांधने वाली वधू। बध्नाति कृष्ण स्व प्रेम रसमया अथवा ऐसा कहो वह ब्रज वधू स्वयं प्रेमपास में बँधी हुई है। बध्यन्ते श्री कृष्ण प्रेम रसनया इस प्रेमपाश में बंधी रहने के कारण ही उनने दुर्जर गेह श्र खला को छिन्न-भिन्‍न कर दिया दुस्त्यज आये पथ का त्याग कर दिया। वास्तव में वध तो इनका ही नाम है। इतको साधारण वधू मत समझना । उद्धव जी ने मथुरा जाते समय कहा है :-- बन्दे नन्‍्द ब्रज स्क्रीणां पादरेणुमयी क्ष्णशः यासां हरि कथों दुगीत धुनोति भुवनत्नयभ्‌ ( (शरद ) मैं तो इन नन्द ब्रज की स्त्रियों के चरण रज की निरन्तर वन्‍्दना करता हूँ। जिनकी हरि भक्ति ने त्रिभुवन को पवित्न कर दिया है। इसी से ब्रज रज को भक्तजन मस्तक चढ़ाते हैं और वही इसका स्वाद जानते हैं। परम सन्त इसी रज में वृक्षों के रूप में जन्म धारण करते हैं। कारण धूलि सदा हमारे ऊपर पड़ा करे। धन्या धूलिरयं धुनोति धरणे, दुख धुनीतेतरास्‌ । धोराणां धुरमंहसोी धृति मर्ता धेर्याध्वर ध्वसिनी । श्री योविन्द पदार विन्द पगयो या मिन्दिरा सुन्दरी । तन्दीशो5प्यर विन्दजो$पि दिविसद, देव: सम विन्दति । यहीं तक इस रज का माहात्म नहीं है। यह तो धन्‍न्या है धरणी के समस्त दु.ख को दूर करने वाली धीरों के पातको को दूर करने वाली है। घर्य से थके पुरुषों के श्रम को दूर करने वाली है। यह श्री गोविन्द के पदारविन्द की धूलि जिसकी इन्दिरा लक्ष्मी सदा धारण करती है । नन्‍्दीश महादेवजी तथा ब्रह्माजी देवताओं के साथ अपने-अपने लोकों में इसको धारण करते हैं । महारास की कथा में ब्रज देवियों की सौभाग्य सम्पदा का ही वर्णन किया है। एक मात्र प्रेम की सर्वोपरि ध्वजा गोपियाँ थी। आनन्द को सीमा ही यहाँ तक है। तपः सीमा सुक्तिः सकल सुख सीमा वितरणं कला सीमा काव्य जनन सुख सोीसा सुबदना श्रियां सीमाहलादः सुकृत जप सीमाश्चित भूति. भियां सीमा सृत्युः श्रवण खुख सीमा हरिकथा तप करने वाले को अन्तिम फल (सीमा) मुक्ति है। इसी प्रकार सभी सुखों की सीमा वितरण है दान करना | कलाओं की सीमा काव्य है। जनन सुख की सीमा तो सुबदना तक ही है । भय की सीमा मृत्यु है। लक्ष्मी की सीमा आहलाद है। जप की सीमा है चित्त का सावधान रहना तथा श्रवण सुख की सीमा तो हरिकथा है। इससे आगे और कोई सुख नहीं है । ॥ इति रासक्रीड़ा वर्णन नाम पंचमोडध्याय: ॥।